आखिरकार एक लंबे संघर्ष के बाद लोकपाल व्यवस्था के निर्माण का स्वप्न साकार हुआ। यह आश्चर्यजनक है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जिस व्यवस्था का निर्माण करने की पहल मई 1968 में की गई वह 2013 में अंजाम तक पहुंच सकी। इस देरी के लिए अनेक कारण गिनाए जा सकते हैं, लेकिन असली वजह राजनीतिक नेतृत्व की अनिच्छा ही कही जाएगी। पक्ष-विपक्ष के राजनीतिक दल भ्रष्टाचार से लड़ने और लोकपाल सरीखी व्यवस्था का निर्माण करने की बड़ी-बड़ी बातें करते रहे, लेकिन उन्होंने इस व्यवस्था का निर्माण करने के लिए जरूरी इच्छाशक्ति का परिचय नहीं दिया। वे शायद अभी भी ऐसा नहीं करते अगर दिल्ली में अन्ना हजारे से अलग हुए उनके साथियों ने अप्रत्याशित जीत हासिल नहीं की होती और खुद अन्ना फिर से अनशन पर नहीं बैठे होते। नि:संदेह लोकपाल विधेयक पारित होने के लिए सत्तापक्ष और विपक्ष समेत इस विधेयक का समर्थन करने वाले सभी राजनीतिक दल अपनी पीठ थपथपा सकते हैं, लेकिन इसका श्रेय तो सिर्फ अन्ना हजारे के खाते में ही जाएगा। यदि उन्होंने इस विधेयक के लिए अनथक संघर्ष नहीं किया होता तो यह लगभग तय है कि यह ंिवधेयक अभी भी कानून का रूप नहीं लेता। जो भी हो, यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि समाजवादी पार्टी और शिवसेना को छोड़कर अन्य सभी राजनीतिक दलों ने लोकपाल विधेयक के प्रति न केवल एकजुटता दिखाई, बल्कि यह सुनिश्चित भी किया कि वह हर हाल में पारित भी हो जाए। यह भी उल्लेखनीय है कि इन राजनीतिक दलों ने इस पर भी गौर किया कि अपेक्षाकृत एक सशक्त लोकपाल व्यवस्था का निर्माण हो।

यद्यपि आम आदमी पार्टी के नेता इस लोकपाल से संतुष्ट नहीं, लेकिन इतना तो है ही कि यह कहीं अधिक सक्षम लोकपाल है। इस व्यवस्था के निर्माण का रास्ता अभी भी शेष है और इस शेष रास्ते के पार होने अर्थात लोकपाल कानून पर अमल के तौर-तरीके ही यह बताएंगे कि भ्रष्टाचार से लड़ाई का कारगर हथियार आम जनता के हाथ में आया या नहीं? इस संदर्भ में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि किसी सशक्त कानून की सार्थकता उस पर सही ढंग से अमल होने में ही है। बेहतर हो कि राजनीतिक दल यह सुनिश्चित करें कि लोकपाल भ्रष्टाचार के खिलाफ एक प्रभावी कानून के रूप में सामने आए। उन्हें यह समझना ही होगा कि देश की जनता बढ़ते भ्रष्टाचार से आजिज आ चुकी है और वह घपले-घोटालों के बेरोकटोक सिलसिले को और अधिक समय तक सहन करने वाली नहीं है। यह अजीब बात है कि जब सभी राजनीतिक दलों ने यह महसूस किया कि भ्रष्टाचार के खिलाफ किसी कारगर व्यवस्था का निर्माण आवश्यक हो गया है तब समाजवादी पार्टी और शिवसेना अलग राग अलापती दिखीं। इन दोनों दलों ने लोकपाल के खिलाफ जो तर्क दिए उनका कोई मूल्य-महत्व नहीं। ये तर्क यही बताते हैं कि कुछ राजनीतिक दल किस तरह समय के साथ बदलने के लिए तैयार नहीं। वे एक ऐसे समय इस तरह के रवैये का परिचय दे रहे हैं जब यह पूरी तरह स्पष्ट है कि आम जनता शासन-प्रशासन के तौर-तरीकों में बदलाव की न केवल अपेक्षा कर रही है, बल्कि इसके पक्ष में जोरदारी के साथ अपनी आवाज भी उठा रही है।

[मुख्य संपादकीय]

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