सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या मसले के हल की संभावनाएं जगाने के बाद जिस तरह इस मामले की जल्द सुनवाई के आग्रह को ठुकरा दिया वह निराशाजनक है। इसलिए और भी अधिक, क्योंकि उसकी ओर से ऐसा कुछ नहीं कहा गया कि यदि दोनों पक्ष अभी भी आपसी सहमति से इस मसले को सुलझाना चाहें तो वह मध्यस्थता के लिए उपलब्ध होगा या नहीं? इस बारे में भी कोई स्पष्टता नहीं कि अब सुप्रीम कोर्ट बातचीत से इस मसले के हल के पक्ष में है या नहीं?

पिछली सुनवाई में अयोध्या मसले को संवेदनशील और आस्था से जुड़ा बताने वाले सुप्रीम कोर्ट ने गत दिवस इस आधार पर जल्द सुनवाई का आग्रह टाल दिया, क्योंकि ऐसा अनुरोध करने वाले सुब्रमण्यम स्वामी इस मसले के पक्षकार नहीं और उन्होंने अपनी याचिका के बारे में दूसरे पक्षकारों को सूचित भी नहीं किया था। सुप्रीम कोर्ट के पास जल्द सुनवाई का आग्रह ठुकराने के पर्याप्त आधार हो सकते हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि अब अयोध्या मसला आस्था से जुड़ा संवेदनशील मामला नहीं रह गया है। अयोध्या मसले की संवेदनशीलता इस आधार पर खत्म नहीं होने वाली कि जल्द सुनवाई चाहने वाला कोई याचिकाकर्ता इस मामले का पक्षकार है या नहीं? अयोध्या मामला सदियों से संवेदनशील है और किसी अदालती टिप्पणी से उसकी संवेदनशीलता समाप्त नहीं होने वाली। अच्छा होता कि सुप्रीम कोर्ट आपसी बातचीत से इस मसले के हल की संभावनाएं बनाए रखता। उसके ताजा रुख से तो बातचीत की संभावनाएं भी धूमिल होती दिख रही हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या मसले की जल्द सुनवाई का आग्रह ठुकराने के साथ यह टिप्पणी भी की कि इस मामले की अभी सुनवाई की जरूरत भी नहीं और उसके पास समय भी नहीं। इसमें कोई दोराय नहीं कि सुप्रीम कोर्ट के पास ढेर सारा काम है और अनेक महत्वपूर्ण मामले लंबित भी हैं, लेकिन इसके आधार पर अयोध्या मामले को ठंडे बस्ते मे नहीं डाला जा सकता। यह ऐसा मसला नहीं जिसकी अनदेखी की जा सके और यदि अनदेखी की जाती है तो समस्याएं बढ़ सकती हैं। देश में बहुत से ऐसे लोग हैं जो इस मामले के समाधान में हो रही देरी से अधीर हो रहे हैं। क्या यह विचित्र नहीं कि सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले पर रोक लगाने के करीब छह साल बाद अयोध्या मामले का संज्ञान लिया और फिर उसे ठंडे बस्ते की ओर धकेल दिया?

जिस मसले पर सारे देश की निगाहें लगी रहती हैं और अयोध्या में मंदिर-मस्जिद को लेकर एक बयान मात्र देश भर में हलचल पैदा कर देता है उसके बारे में ऐसी कोई टिप्पणी ठीक नहीं कि उसकी जल्द सुनवाई की जरूरत नहीं। आस्था से जुड़े इस संवेदनशील मसले की न्यायिक उपेक्षा का कोई मतलब नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने अपने रुख-रवैये से उन लोगों को भी निराश किया है जो इस मसले पर बातचीत के लिए माहौल बना रहे थे। किसी भी विवाद को यथास्थिति में बनाए रखने का कोई भी फैसला न तो तर्कसंगत कहा जा सकता है और न ही न्यायसंगत। सुप्रीम कोर्ट के रुख के बावजूद उचित यह होगा कि दोनों पक्ष आपसी बातचीत से इस मसले के हल की संभावनाएं टटोलें।

(राष्ट्रीय संपादकीय)