सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश वाली पीठ के इस सुझाव ने सदियों पुराने अयोध्या विवाद के समाधान की एक उम्मीद फिर से जगाई है कि इस मसले का हल बातचीत से निकालने की कोशिश की जाए। सुप्रीम कोर्ट ने अपने समक्ष लंबित इस मामले में यह सुझाव उस याचिका पर दिया जिसमें अयोध्या विवाद का जल्द निपटारा करने की मांग की गई थी। सुप्रीम कोर्ट जिस तरह छह वर्ष बाद आपसी सहमति से मामले को हल करने के सुझाव तक ही पहुंच सका उससे यह सहज ही समझा जा सकता है कि अयोध्या विवाद कितना संवेदनशील है। इससे बेहतर और कुछ नहीं हो सकता कि इस संवेदनशील मसले का हल बातचीत के माध्यम से हो। इससे ही शांति और सद्भाव को बल मिलेगा। हालांकि दोनों पक्ष इससे अवगत हैं कि अयोध्या विवाद का समाधान आपसी सहमति से निकलने में ही समाज और देश का हित है, लेकिन संकीर्ण स्वार्थ आपसी समझबूझ कायम करने में बाधक बन रहे हैं। इन स्वार्थों के कारण ही अतीत में बातचीत के जरिये इस विवाद को सुलझाने की कम से कम दस कोशिशें नाकाम रहीं। इनमें से कुछ कोशिशें तो तत्कालीन प्रधानमंत्रियों की पहल पर हुईं। ऐसे में यह अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या विवाद सुलझाने में मध्यस्थता की पेशकश की। अच्छा होगा कि उसकी मध्यस्थता में ही आपसी बातचीत का सिलसिला शुरू हो ताकि यदि किसी कारण बात न बने तो फिर अदालती फैसला सुनाने में आसानी हो। इस मध्यस्थता की आवश्यकता इसलिए भी है, क्योंकि दोनों ही पक्षों से कई पैरोकार हैं और इनमें से कुछ की दिलचस्पी केवल मामले को लटकाने या लोगों को बहका कर अपनी राजनीति चमकाने अथवा दूसरे पक्ष के प्रति तनिक भी रियायत न बरतने देने की है।
फिलहाल यह कहना कठिन है कि अयोध्या विवाद को आपसी सहमति से हल करने की कोई गंभीर कोशिश शुरू हो पाएगी या नहीं, लेकिन यह ध्यान रहे कि ऐसी कोई कोशिश तभी सफल हो सकती है जब बाबरी मस्जिद के पैरोकार राम जन्मभूमि पर अपना दावा छोड़ने के लिए तैयार होंगे। जब ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक साक्ष्य विवादित स्थल में मंदिर होने की गवाही दे रहे हैं और उनकी पुष्टि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले में भी हो चुकी है तब फिर विश्व हिंदू परिषद अथवा निर्मोही अखाड़ा से ऐसी अपेक्षा का कोई मतलब नहीं कि वे सद्भाव के नाम पर मंदिर के दावे से पीछे हट जाएं। ऐसी अपेक्षा का मूल्य इसलिए भी नहीं, क्योंकि यह मान्यता सदियों पुरानी है और उससे मस्जिद समर्थक भी भली तरह अवगत हैं कि राम का जन्म अयोध्या में हुआ था। हालांकि बाबर या फिर उसके सेनापति का अयोध्या से कहीं कोई लेना-देना नहीं था फिर भी इस प्राचीन नगरी में मस्जिद का निर्माण हो सकता है। यह ठीक है कि अयोध्या विवाद का हल निकालने की तमाम कोशिशें नाकाम रहीं, लेकिन इसी आधार पर एक और कोशिश से पीछे हटने का कोई औचित्य नहीं। सुप्रीम कोर्ट के सुझाव को एक नए अवसर के तौर पर लिया जाना चाहिए। यह अवसर अपेक्षित परिणाम इसलिए दे सकता है, क्योंकि अयोध्या मसला अब राजनीतिक मुद्दा नहीं रह गया है। अच्छा होगा कि सुप्रीम कोर्ट ने जो अवसर उपलब्ध कराया है उसे अंतिम अवसर मानकर बातचीत की प्रक्रिया शुरू हो।

[ मुख्य संपादकीय ]