आर्थिक उत्थान का बजट
यह अपेक्षित ही था कि रेल बजट की तरह मोदी सरकार का पहला आम बजट भी लोक-लुभावन वाली राजनीति से प्रेरित
यह अपेक्षित ही था कि रेल बजट की तरह मोदी सरकार का पहला आम बजट भी लोक-लुभावन वाली राजनीति से प्रेरित नहीं होगा। इसे होना भी नहीं चाहिए था, क्योंकि आज की जरूरत देश को नए सिरे से आर्थिक दिशा देने की थी। वित्तमंत्री अरुण जेटली अपने बजट के जरिये यही कोशिश करते दिखे हैं। उन्होंने विकास को गति देने, रोजगार के अवसर बढ़ाने, बचत के साथ निवेश के लिए उपयुक्त आधार तैयार करने के साथ-साथ कृषि की दशा सुधारने के लिए जो कुछ आवश्यक था उस सबके लिए कई उल्लेखनीय कदम उठाए हैं। वह ऐसा इसीलिए कर सके, क्योंकि एक तो मोदी सरकार इसके लिए प्रतिबद्ध थी और दूसरे देश के भले के लिए ऐसा किया जाना वक्त की मांग भी थी। शायद यही कारण है कि आम बजट न तो दिल्ली चुनाव नतीजों से प्रभावित नजर आ रहा है और न ही आगामी विधानसभा चुनावों की परवाह करता दिख रहा है। यह देश के विकास की चिंता करता दिख रहा है। इस कोशिश में सेवाकर की दर के साथ उसका दायरा बढ़ाने और आयकर की दरों को यथावत रखने जैसे फैसलों को लेकर आम जनता और खासकर मध्यवर्ग शिकायत कर सकता है, लेकिन यदि महंगाई पर लगाम लगी रहती है तो मोदी सरकार जनता के भरोसे को बनाए रख सकती है। आम बजट ने आर्थिक सुधारों की दिशा में कुछ नए कदम उठाने के साथ ही जिस तरह आर्थिक चिंतन की झलक पेश की है उससे यह स्पष्ट है कि मोदी सरकार कई क्षेत्रों में बुनियादी बदलाव लाने के लिए प्रतिबद्ध है और अच्छी बात यह है कि उसका जोर तात्कालिक नतीजों के बजाय दूरदर्शी परिणामों पर है। यह वह नजरिया है जिसका परिचय हाल की सरकारों ने मुश्किल से दिया है और यदि दिया भी है तो वे उसे पूरा करने के लिए तत्पर नहीं दिखीं।
वित्तमंत्री ने जिस तरह आम बजट में गांव-गरीबों की परवाह करने के साथ ही सामाजिक सुरक्षा पर विशेष जोर दिया है उसे देखते हुए यह प्रचारित किए जाने का कोई मूल्य-महत्व नहीं कि यह गरीब विरोधी और अमीर समर्थक सरकार है। ऐसा नहीं है कि विपक्षी दलों के पास इस बजट की नीर-क्षीर ढंग से आलोचना करने के लिए कुछ भी नहीं है, क्योंकि वित्तमंत्री के सामने यह एक चुनौती तो है ही कि उन्होंने जैसी तस्वीर पेश की है उसमें वैसे ही रंग भरें जिसका उन्होंने भरोसा दिलाया है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि आम बजट को लेकर दुष्प्रचार किया जाए। ज्यादातर विपक्षी नेता जिस तरह आम जनता को यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि यह सरकार तो केवल कारपोरेट जगत और उद्यमियों की चिंता करती दिख रही है वह एक तरह से विकास विरोधी रवैया है। यदि इस तरह की राजनीति चलती रही तो खतरा इस बात का है कि इस देश में कहीं उद्योगपतियों, उद्यमियों और कारपोरेट जगत को हेय दृष्टि से न देखा जाने लगे। यह बिल्कुल भी ठीक नहीं कि अपने संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थो को पूरा करने के फेर में विकास के कार्यक्रमों को जनविरोधी तौर-तरीकों के रूप में पेश किया जाए। गरीबों की चिंता करने का यह मतलब नहीं कि उन्हें केवल छूट और रियायतें देकर उनके हाल पर ही छोड़ दिया जाए। अभी तक इस देश में ऐसा ही हुआ है। कम से कम अब तो नए जमाने में पुराने तरीके की राजनीति का परित्याग किया ही जाना चाहिए।
[मुख्य संपादकीय]