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    उम्मीद की किरण

    By Edited By:
    Updated: Thu, 23 Oct 2014 05:48 AM (IST)

    प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से दीवाली के दिन श्रीनगर जाने और बाढ़ पीड़ितों का दुख-दर्द बांटने की

    प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से दीवाली के दिन श्रीनगर जाने और बाढ़ पीड़ितों का दुख-दर्द बांटने की घोषणा के साथ ही जिस तरह उनके इस फैसले को लेकर किंतु-परंतु के स्वर उभर आए उससे यही ध्वनित हुआ कि भारतीय राजनीति किस हद तक दूषित हो चुकी है? हर मामले को संकीर्ण नजरिये से देखने और उसी हिसाब से उसकी व्याख्या करने की प्रवृत्तिसे समाज में केवल नकारात्मकता ही नहीं फैलती, बल्कि समस्याओं के समाधान में बाधा भी खड़ी होती है। क्या यह अजीब नहीं कि प्रधानमंत्री के बाढ़ पीड़ितों के बीच जाने की सुखद पहल भी राजनीतिक विरोधियों को चुभ गई? आखिर इस मानवीय पहल में कांग्रेस को मीन-मीख निकालने की क्या जरूरत थी? क्या यह महज आलोचना के लिए आलोचना का एक और उदाहरण नहीं है? कश्मीर के अलगाववादियों ने तो यह कहकर अपनी धर्माधता और छोटी सोच का ही परिचय दिया कि प्रधानमंत्री अपनी संस्कृति हम पर लादने आ रहे हैं। पथभ्रष्ट अलगाववादियों के ऐसे तंग नजरिये पर हैरत नहीं, लेकिन यह सवाल तो उठेगा ही कि उन्हें हतोत्साहित करने के लिए केवल जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ही क्यों आगे आए? क्या यह अच्छा नहीं होता कि सभी राजनीतिक दल कश्मीर के अलगाववादियों की एक सुर से निंदा करते? दीवाली के दिन बाढ़ पीड़ितों के बीच रहने की प्रधानमंत्री की पहल कुल मिलाकर दुखी-उदास लोगों के बीच आशाओं का दीप जलाने और पूरे देश को एक सकारात्मक संदेश देने वाली है। उनकी यह पहल दीपोत्सव की पावन भावना के सर्वथा अनुकूल है। आखिर दीपावली यही तो संदेश देती है कि चहुंओर शुभ का संचार हो और जन-जन के बीच सुख-समृद्धि, शांति-सद्भाव का प्रसार हो।

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    यदि राजनीति हेय बन गई है तो अपनी उन्हीं प्रवृत्तिायों के कारण जिनके चलते हर मामले को संकीर्ण दृष्टि से देखा जाता है। यह विचित्र है कि एक ओर तो यह कहा जाता है कि राजनीति वह व्यवस्था है जो लोगों को दिशा देने का काम करती है और दूसरी ओर राजनीतिक दल एक दूसरे के उचित फैसलों को भी राजनीतिक अर्थात अनुचित करार देते हैं। यदि राजनीति का ऐसा मतलब निकाला जाएगा तो फिर वह अपनी गरिमा कैसे बनाए रखेगी? सभी राजनीतिक दलों को, चाहे वे सत्तापक्ष के हों अथवा विपक्ष के, यह गौर करने की जरूरत है कि प्रतिस्पर्धा और प्रतिद्वंद्विता ने उन्हें किस तरह संकीर्णता के दलदल में धंसा दिया है? इस दलदल से निकले बगैर वे न तो खुद का भला कर सकते हैं और न ही देश का। यह शुभ संकेत है कि प्रधानमंत्री एक के बाद एक ऐसी पहल कर रहे हैं जिससे राजनीति का मान भी बढ़े और समस्याओं का समाधान जनता की भागीदारी से भी हो। स्वच्छ भारत अभियान शुरू करते हुए उन्होंने यह स्पष्ट करने में संकोच नहीं किया कि यह काम सरकार का नहीं है और उससे हो भी नहीं सकता। यह उत्साहजनक है कि आम जनता के बीच यह संदेश जा रहा है कि सरकार हर काम नहीं कर सकती और देश के भले के लिए हर एक को हाथ बंटाना होगा, लेकिन आवश्यकता इस बात की है कि जनता अपनी जिम्मेदारी का परिचय देती भी नजर आए। यदि रोशनी के इस पावन पर्व पर हर नागरिक अपने दायित्वों के निर्वहन का संकल्प ले सके तो फिर हर तरफ सुख-समृद्धि का प्रकाश फैलने में देर नहीं लगेगी।

    [मुख्य संपादकीय]