बेचैन मतदाता
उपचुनाव नतीजों पर विभिन्न राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया में जो स्वर उभर रहे हैं, वे स्वाभाविक ही हैं। समाजवादी पार्टी मैनपुरी लोकसभा और आठ विधानसभा सीटें जीतकर अपनी पीठ थपथपा रही है। सपा का मानना है कि मतदाताओं ने लव जिहाद जैसे काल्पनिक व साम्प्रदायिक जुमले को नकार दिया है, जनता महज चार माह में ही केंद्र सरकार से निराश हो गई है, महंगाई और भ्रष्टाचार कम करने के वादे की पोल खुल गई है। जाहिर है, भाजपा इससे सहमत नहीं हो सकती। उसका मानना है कि उपचुनाव स्थानीय सरकार ही जीतती है, इसे केंद्र के कामकाज से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। कांग्रेस इतने पर ही खुश है कि भाजपा को करारी शिकस्त मिली है तो बसपा जिस तरह पहले चुनावी अखाड़े से बाहर मौन खड़ी थी, उसी तरह दंगल खत्म होने के बाद मौन साधे है। परिणामों पर राजनीतिक दलों का यह मत आंशिक रूप से सही हो सकता है, लेकिन इनका इसी रूप में विश्लेषण करना मतदाता की बेचैनी को सम्पूर्ण स्वर नहीं देता। आखिर क्यों चार माह पहले वाली लहर सुस्त बयार में बदल गई। क्या मजबूरी है कि जिस पार्टी को लोकसभा चुनाव में नकार दिया गया था, मतदाता उसे ही फिर गले लगा रहा है। क्या इसे भाजपा को पूरी तरह नकार देना और सपा के सामने समर्पण माना जाना चाहिए। यदि गुजरात और राजस्थान के रुझान को भी संदर्भ में रखें तो साफ दिखता है कि मतदाता ने वहां भी ऐसा ही निर्णय दिया है। इस आईने में मतदाता की बेचैनी ही दिखती है। दूसरे शब्दों में कहें तो मतदाता हर राजनीतिक दल और व्यक्तित्व में तारणहार खोज रहा है। महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, कानून-व्यवस्था जैसी बुनियादी समस्याओं से वह इतना दुखी हो चुका है कि उसे अब इनका हर हाल में निदान चाहिए। सरकारों से काम चाहिए। उसे जिधर उम्मीद दिखती है, उधर हो लेता है। उम्मीद टूटती है तो मुंह मोड़ लेता है। मतदाता बेचैन है, वह स्थायी भाव में नहीं है। न यह मानना उचित है कि वह केंद्र सरकार से चार माह में ही निराश हो गया है और न यह मानना चाहिए कि वह निर्विकार है। यही बात प्रदेश सरकार पर भी लागू होती है। बेहतर होगा कि राजनीतिक दल उपचुनाव परिणामों की सुविधाजनक व्याख्या करने की बजाए मतदाता की बेचैनी को समझें। उसका हृदय जीतना है तो काम पर ध्यान दें और वादों को पूरा करें।
[स्थानीय संपादकीय: उत्तर प्रदेश]