आज पूरा देश हर्षोल्लास से 69वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है और प्रत्येक भारतीय गर्व कर रहा है कि उसका स्वतंत्र लोकतंत्र अनेक गंभीर समस्याओं के बावजूद जीवंत है और देश को प्रगति और विकास के रास्ते लेकर चल रहा है। करीब सात दशकों की स्वतंत्रता की यात्र कोई सीधी-सपाट यात्रा नहीं रही। देश ने अनेक उतार-चढ़ाव देखे, कई युद्धों की विभीषिका झेली, लोकतंत्र पर प्रहार देखे, सूखे-बाढ़ और भूकंप की त्रासदी से दो-चार हुए, देश का सोना विदेशों में गिरवी रख देश की समस्याओं से निपटे, सांप्रदायिक और जातीय हिंसा से जूझ्ो तथा कई नेताओं का बलिदान देखा। पर इन सबके बावजूद भारत की स्वतंत्रता और लोकतंत्र की पूरी दुनिया में साख है। गरीबी, अशिक्षा और रोजगार की समस्याओं के बावजूद भारत ने विश्व में अपनी एक पहचान जरूर बनाई है और दुनिया के लोग भारत की ओर इज्जत से देखते हैं। कभी भारत को विश्व गुरु के रूप में जाना जाता था, आज वैश्विक समुदाय द्वारा पुन: भारत से वैश्विक नेतृत्व की अपेक्षा की जा रही है, लेकिन क्या स्वतंत्रता के 68 वर्षों बाद भी हम अपने को उस अपेक्षा के अनुरूप बना पा रहे हैं? क्या हमारे दिलों में वैसा जज्बा है जो स्वतंत्रता आंदोलन के दीवानों में था?

स्वतंत्रता दिवस का मर्म समझने के लिए हमें उसके तीन पहलुओं पर गौर करना पड़ेगा- स्वतंत्रता का लक्ष्य, प्रक्रिया और संकल्प। लक्ष्य के रूप में स्वतंत्रता दिवस सदियों की अंग्रेजी-गुलामी को समाप्त कर भारतीयों का शासन स्थापित करने की याद दिलाता है। यह कोई आसान लक्ष्य नहीं था। अत्यंत शक्तिशाली अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध संघर्ष करके उसे हराना था और वह भी मूलत: बिना हिंसा का प्रयोग किए- ऐसे साम्राज्य के विरुद्ध जहां जनरल डायर जैसे अत्याचारी थे जो निहत्थे भारतीयों पर गोलियों की बरसात कर जलियांवाला बाग जैसे बर्बरतापूर्ण कांड करते थे। वह संघर्ष एक ऐसे शत्रु के विरुद्ध था जो हम पर तो गोली चलता था पर प्रत्युत्तर में जिस पर गोली न चलाने का हमने और हमारे नेताओं ने संकल्प ले रखा था। एक ऐसा शत्रु जो हमें अपनी बात रखने के लिए न अपील, न दलील और न वकील करने देता था। आजाद भारत में एक संसद, 28 विधानसभाओं और लाखों नगरपालिकाओं व पंचायतों में आज हमें अपनी बात रखने की स्वतंत्रता है। लेकिन यदि ऐसा न कर हम उन्हें अवरुद्ध करें, जैसा कि अभी मानसून सत्र में संसद में हुआ, तो लगता है कि जो लोग ऐसा करते हैं, वे स्वतंत्रता की त्रसदी और उससे जुड़ी संवेदनाओं से विमुख हो चुके हैं। अत: यह जरूरी है कि स्वतंत्रता को केवल रस्मी तौर पर न मना कर उसकी संवेदनाओं से जनता और खास तौर से उस पीढ़ी को जोड़ा जाए जो स्वतंत्रता के मायने ही नहीं समझती।

स्वतंत्रता दिवस को एक श्रमसाध्य प्रक्रिया के रूप में भी याद किया जाना चाहिए जिसे हम स्वतंत्रता आंदोलन के नाम से जानते हैं। 68 वर्षों की स्वतंत्रता यात्रा कठोर, यातनाओं से परिपूर्ण और शहीदों के बलिदानों से भरी पड़ी है। 1885 में कांग्रेस के नेतृत्व में इस लंबी लड़ाई की शुरुआत हुई हालांकि पूरा देश ही उस समय कांग्रेस था। कांग्रेस में नरम और गरम दोनों तरह के लोग थे जो क्रमश: शांति और क्रांति दोनों तरीकों का प्रयोग करना चाहते थे, लेकिन गांधीजी की अहिंसा की प्रतिबद्धता ने सबके हाथ बांध दिए थे और कांग्रेस केवल शांतिपूर्ण तरीके से ही स्वतंत्रता आंदोलन चलाती रही। पर इसी के समानांतर भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और राम प्रसाद बिस्मिल जैसे असंख्य क्रांतिकारियों ने भी अपनी जान की बाजी लगा दी। हर गांव और शहर में ऐसे असंख्य वीरों ने स्वतंत्रता आंदोलन में अपने प्राणों की आहुति दे दी, पर विडंबना देखिए कि हम उनको जानते भी नहीं, याद करना तो दूर है। सरकार की ओर से कुछ लोगों को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पेंशन दे कर फर्ज-अदाएगी हो जाती है, लेकिन कभी इसे जानने का प्रयास नहीं किया जाता कि वे कौन लोग थे जिन्होंने देश को स्वतंत्र कराने में अपने प्राणों की आहुति दे दी? आज की पीढ़ी ऐसे ज्ञात-अज्ञात क्रांतिकारियों और उनकी कुर्बानियों से नितांत अपरिचित है। लेकिन इसमें उनका क्या दोष? क्या हमने कभी कोशिश की कि ऐसे क्रांतिकारियों से हम उनका परिचय कराएं जिससे वर्तमान पीढ़ी को स्वतंत्रता के उस मूल्य का एहसास हो सके जिसका आनंद आज वे उठा रहे हैं? आज दिन है उन सभी बलिदानियों और उनकी कुर्बानियों को याद कर नमन करने का, अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने का और साथ ही वर्तमान पीढ़ी को यह बताने-समझाने का कि उन्हें स्वतंत्रता आंदोलन प्रक्रिया को और आगे ले जाना है जिससे स्वतंत्रता के राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक पहलुओं को वास्तविक जामा पहनाया जा सके।

आज उन संकल्पों को दोहराना सबसे महत्वपूर्ण है जो हमने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लिए। 15 अगस्त, 1947 को जब पूरा विश्व सो रहा था, भारत की जनता का अपनी नियति से मिलन हो रहा था। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि यह ऐसा क्षण है जब किसी राष्ट्र की आत्मा को अभिव्यक्ति मिलती है। यह वही क्षण था जिसमें हमें अपने संकल्पों को दोहराने और उन्हें मूर्तरूप देने का स्वर्णिम अवसर मिला। और नेहरू के अनुसार वे संकल्प थे देश, जनता और मानवता की सेवा करना। क्या वास्तव में हमें आज वे संकल्प याद भी हैं? अगर याद ही नहीं तो उन्हें लागू करने का सवाल ही कहां पैदा होता है? जरूरी है कि वर्तमान और आने वाली पीढ़ी को इन संकल्पों के बारे में बताया जाए, उनको इन संकल्पों के अर्थ और भाव समझाए जाएं। शिक्षा इसका एकमात्र साधन है, लेकिन अगर देश में सबसे ज्यादा कहीं कमजोरी आई है तो वह है शिक्षा के क्षेत्र में। शिक्षा का जिस तरह से व्यवसायीकरण हुआ है वह आने वाले समय के लिए खतरे की घंटी है।

हमारा स्वतंत्रता दिवस महर्षि अरविंद का जन्मदिन भी है; अत: हमें उन्हें भी स्मरण एवं नमन करना चाहिए। महर्षि अरविंद के अनेक संदेशों में एक संदेश यह भी है कि ‘अगर हम गिरते हैं तो अधिक अच्छी तरह चलने का रहस्य सीख जाते हैं’। अत: आज स्वतंत्रता के इस पावन पर्व पर हमें अपनी गलतियों और कमजोरियों का एहसास होना चाहिए और उन्हें दूर करने के रहस्यों को समझने की कोशिश करनी चाहिए। हमें अपनी स्वतंत्रता पर गर्व है, लेकिन हमें अभी बहुत आगे जाना है और उन तमाम संकल्पों को साकार करना है जो हमने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लिए थे। लेकिन यह तब होगा जब हम स्वयं ‘स्वतंत्र’ होंगे अर्थात अपने लिए अपना तंत्र बनाएंगे। ऐसा तंत्र जिसमें हम अपने, अपने समाज, देश और मानवता के लिए ऐसे आचरण का चयन करेंगे जो चहुं ओर खुशियां और उन्नति लाए। हम विदेशी आक्रांताओं से तो जरूर स्वतंत्र हुए पर क्या अपने और अपनों की कमजोरियों से स्वतंत्र हो पाए?

(डॉ एके वर्मा: लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)