स्पीड पोस्ट से तलाक दिए जाने पर जयपुर की रहने वाली आफरीन रहमान 18 मई को सुप्रीम कोर्ट पहुंच गईं। आफरीन के मुताबिक उनके ससुराल वाले दहेज की मांग को लेकर उसे मानसिक तौर पर प्रताडि़त करते थे। ऐसे ही एक और मामले में उत्तराखंड की सायरा बानो ने सुप्रीम कोर्ट से तीन तलाक के चलन पर प्रतिबंध लगाने की मांग की है। इस तरह के मामलों से दो बातें सामने आती हैं। पहली, पीडि़त महिलाएं इस्लाम में किसी तरह के सुधार की मांग नहीं कर रही हैं, बल्कि वे शरिया कानून को बदलने की आवाज उठा रही हैं, ताकि पति केतलाक देने के मनमाने अधिकार को समाप्त किया जा सके। दूसरी, भारत बुनियादी तौर पर एक ऐसा समाज है जिसमें तलाकशुदा महिलाओं को अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता। लिहाजा जो आवाजें उठ रही हैं उनके पीछे धारणा यह है कि तलाक एक बुरी चीज है, जबकि सच यह है कि तलाक कोई ऐसी खराब चीज नहीं है। महिला-पुरुष के लिए खराब चल रहे संबंध से बाहर आने के लिए तलाक को और बेहतर जरूर बनाया जा सकता है। अगर कोई मुस्लिम महिला ऐसे मामलों में तनाव रहित समाधान के बारे में सोचे तो भारतीय संविधान उसे आसान विकल्प भी देता है। मसलन मुस्लिम महिलाएं और पुरुष विशेष विवाह कानून के तहत शादी कर सकते हैं। इसमें विवाह को एक सामाजिक करार माना गया है। इस कानून के जरिये तमाम समस्याओं से निजात मिल सकती है। दिलचस्प यह है कि मुस्लिम महिलाएं इस कानून को मानने से गुरेज कर रही हैं, जबकि यह उनके हित में है।

अगर पति के नजरिए से भी देखें तो शरिया के तहत तीन ऐसे विधिक प्रावधान हैं, जिनके तहत भारतीय मुसलमानों के बीच शादी, तलाक और हर्जाने के मामले तय होते हैं। पहला है, मुस्लिम पर्सनल लॉ-1937। इसके तहत मुस्लिम पुरुष बिना अदालत गए तलाक दे सकता है। अगर वह अदालत का रुख करता है तो उसकी तलाक की अर्जी रद हो जाएगी। वह बाध्य है इसके लिए कि वह अपने स्तर पर खत, फोन, वीडियो या इंटरनेट के जरिये तलाक का फैसला ले। 1937 के इस कानून के तहत तलाक के दो तरीकेहैं। पहला है, तीन बार तलाक कहना, जिसके बाद विवाह तत्काल तौर पर समाप्त मान लिया जाता है। दूसरा है, एक-एक माह के अंतराल पर तलाक कहना। इसके तहत यह गुंजाइश रखी गई है कि इन तीन महीनों के दौरान सुलह-सफाई का अवसर दिया जाए, लेकिन इस तरीके में पत्नी पति द्वारा पहली बार तलाक कहने के बाद दहेज प्रताडऩा मामला दायर कर सकती है। लिहाजा 498 ए दहेज उन्मूलन कानून से बचने के लिए पति तीन बार तलाक कहने के रास्ते को ही बेहतर मानते हैं।

1937 के मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत इस्लामी उसूलों के मुताबिक केवल पति को ही तलाक देने का हक है। इसे देखते हुए ही मुस्लिम महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए 1939 का कानून आया। इस दूसरे कानून के तहत भी मुस्लिम महिलाएं तलाक दे नहीं सकतीं, बल्कि सिर्फ इसकी इच्छा व्यक्त कर सकती हैं। जो तीसरा कानून 1986 में आया उसकी चर्चा अक्सर शाहबानो मामले को लेकर होती है। इस कानून ने सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले को उलट दिया कि तलाक के बाद शाहबानो को हर्जाना दिया जाए। इस कानून ने उस शरिया कानून की हिमायत की कि तलाकशुदा महिला महज तीन माह के लिए हर्जाने की हकदार है। अब जबकि मुस्लिम महिलाएं तलाक से जुड़े मामलों पर बहस कर रही हैं तो महिला अधिकारों की रक्षा का सवाल महज किसी धर्म से जुड़ा नहीं हो सकता। इस सिलसिले में इन बिंदुओं पर गौर करना चाहिए। पहला-काजी की देखरेख में हुए निकाह को इस लिहाज से अमान्य करना चाहिए कि इस्लाम में विवाह के लिए मौलवी या काजी की जरूरत बताई ही नहीं गई है। इस्लाम के मुताबिक तो विवाह एक सामाजिक करार है, जो दो चश्मदीदों की मौजूदगी में किया जा सकता है। दूसरा-सिर्फ पुरुष गवाह की मौजूदगी की बात से इंकार करना चाहिए, क्योंकि यह लैंगिक समानता के अधिकार के खिलाफ है। तीसरा-भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन इस मांग पर जोर देता रहा है कि मेहर (वह रकम जो पति अपनी पत्नी को शादी के समय देता है) को पति की सालाना आमदनी माना जाए। यह शरिया की ही मान्यता की कहीं न कहीं पैरवी है। मेहर महिला हित से जुड़ा मामला है, लेकिन चिंता की बात यह है कि इसके लिए मुस्लिम लड़कियां अमीर लड़कों की ख्वाहिश रखेंगी, ताकि उन्हें मेहर की मोटी रकम हासिल हो। मेहर भले एक माह या एक साल की आमदनी के बराबर हो, इससे महिलाओं की स्थिति बहुत बदलती नहीं।

चौथा-यह साफ है कि मुस्लिम महिलाएं सबसे ज्यादा तीन तलाक के चलन से पीडि़त हैं। अदालत के दखल के बिना होने वाले हर तरह के तलाक को अमान्य करना चाहिए, भले ही इस्लाम उसकी इजाजत दे या न दे। तलाक लेने की प्रक्रिया भी आसान हो। सुनिश्चित यह भी करना होगा कि तलाक की प्रक्रिया शुरू होने के बाद कोई महिला दहेज उत्पीडऩ का मामला दायर न कर सके। किसी भी तलाक के लिए अदालती शरण में जाना जरूरी होना चाहिए। पांचवां-बच्चों के मामले में पति-पत्नी, दोनों को उनकी परवरिश के हिसाब से अपनी-अपनी आमदनी के मुताबिक खर्च उठाना चाहिए। शाहबानो मामले में यही तय हुआ था कि पति तलाक के बाद तीन माह तक हर्जाना देगा। यह लैंगिक न्याय के खिलाफ है कि पूर्व पति अपनी पूर्व पत्नी को हर्जाना दे। तार्किक यही है कि तलाक के बाद पति-पत्नी के बीच किसी तरह का कोई संबंध न रहे, लेकिन सच यह भी है कि गरीब और जरूरतमंद महिलाओं को मदद की जरूरत पड़ती है। एक विचार यह हो सकता है कि बीमा कंपनियां तलाक के बाद सरकारी बंदिश के तहत गुजर-बसर की रकम अदा करें-ठीक उसी तरह जैसे किसी की मौत के बाद बैंकों द्वारा बीमा की राशि दी जाती है। इसमें पति-पत्नी को बीमा की प्रीमियम राशि तब तक जमा करानी होगी जब तक उनकी शादी कायम रहती है। इंश्योरेंस पूल के रूप में इस तरह का नया विचार नाभिकीय क्षति अधिनियम 2010 के लिए नागरिक जवाबदेही के संदर्भ भी में चर्चा में आया था। भारत पहले ही नाभिकीय क्षतिपूर्ति के लिए 1500 करोड़ रुपये का राष्ट्रीय इंश्योरेंस पूल बना चुका है।

छठवां-जब तक इस्लाम में सुधार की प्रक्रिया पूरी न हो तब तक मुस्लिम महिलाओं और पुरुषों को तमाम समस्याओं से बचने के लिए विशेष विवाह कानून के तहत शादी करनी चाहिए। सातवां-विवाह के बाद विवाद की स्थिति में भी इसी कानून की शरण में जाना चाहिए। मुस्लिम समाज आज जिस तरह की परेशनियों से घिर गया है उसमें टेबलेट की नहीं सर्जरी की जरूरत है। अपने हक के लिए संघर्ष कर रहीं महिलाओं को भी यह बात समझनी होगी कि उनका सशक्तीकरण तब होगा जब वे काम के लिए बाहर निकलेंगी और अपनी बेटियों को मदरसों में नहीं स्कूलों में कक्षा एक से 12वीं तक गणित, विज्ञान आदि विषय पढ़ाएंगी।

[ लेखक तुफैल अहमद, वाशिंगटन स्थित मिडिल ईस्ट मीडिया रिसर्च इंस्टीट्यूट में निदेशक हैं ]