नई दिल्ली [ सूर्यकुमार पांडेय ]। यदि एक बार अपने इस चौखटे पर भी कैमरे की लाइट चमक जाए तो अपुन भी दस-बीस लोगों के बीच मुंह दिखलाने के लायक हो जाएं। भाई साहब को जब देखो तब, अपने गालों पर हाथ फेरते हुए, इस सदिच्छा को व्यक्त करते पाए जाते थे। इसे आप उनकी चरम या अंतिम इच्छा भी समझ सकते हैं। मीडियातुर समय है साहब! यहां तक कि आए दिन मीडिया को खरी-खोटी सुनाने वालों को भी आखिर में उसका ही आसरा लेना पड़ता है। ऐसे दौर में स्टूडियो दर स्टूडियो भटकने की प्रबल उत्कंठा सब में है। तो भाई साहब भी इसके अपवाद नहीं। जैसी आज के समय में हर किसी की तमन्ना है, वैसी ही भाई साहब की भी। कहते पाए जाते हैं, मुझे भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सामने आना है। बार-बार आना है। बात-बात पर आना है। कोई बात न हो तो बिना बात भी आना है। गोया, संसार की हर शै का इतना ही फसाना है। येन-केन या फिर लेन-देन प्रकारेण मीडिया के बंधुओं को फंसाना है और चैनलों पर आना है।

आज के संत-महात्मा टीवी पर भी दिखलाई देते हैं

धनेषणा और यशेषणा किस मनुष्य को नहीं व्यापती? अपने धर्मग्रंथ और पुराण भी बताते हैं कि यह कोई नई टपकी हुई एषणा नहीं है। यह इतनी पुरानी है कि इसे आप मनुष्य की आदिम इच्छा भी कह सकते हैं। क्या गृहस्थ और क्या ऋषि-मुनि, सभी में यह डिग्री के अंतर में पाई जाती है, परंतु पाई जरूर जाती है। तो भाई साहब भी कोई साधु-वैरागी तो हैं नहीं! वैसे भी आज के संत-महात्मा ही कौन-सा नाम-दाम से विरत हैं! वे भी तो टीवी पर दिखलाई देते हैं! आप कह सकते हैं, भाई साहब भी समाज सेवा करने को इसलिए नहीं निकले हैं कि अपनी अंटी से माल लगाएं, बाप-दादों की अर्जित कमाई गलाएं और फिर ‘रातों में चोर जागा, किसने देखा?’ वाली स्थिति पैदा करें। ऐसा भी हातिमताई किस काम का, जिसकी नेकी को चैनलों के मार्फत दस-पचास लाख लोग देख न लें। आज का हातिम तो नेकी करके दरिया में भी डालता है तो कैमरों के सामने ही डालता है।

दलाली करके ही कमाई करनी होती तो कब के अरबपति हो गए होते

चोरी करने के हजार रास्ते बनाए गए या कि बन गए हैं। ईमानदारी से जीने का एक ही मार्ग होता है। यदि दलाली करके ही कमाई करनी होती तो भाई साहब भी कब के अरबपति हो गए होते। मगर वे कमाई के इस गुप्त रास्ते पर कभी नहीं गए। जाते भी तो कैसे? अवसर ही नहीं थे। एक-दो बार छोटे-मोटे मौके भी आए तो अपने घर में सलाह- मशविरा करने लग गए कि क्या किया जाए? पत्नी ने साफ मना कर दिया। भाई साहब की पत्नी नहीं चाहती थीं कि उनके साहब की समाज में बदनामी हो, वह भी दस-पांच हजार रुपयों की खातिर! चोरी के जुर्म में जिला जेल जाने में और घोटालों में फंसकर तिहाड़ जाने में मौलिक अंतर होता है।

 

तिहाड़ जाने का फायदा यह मिला कि जब भी पेशी के लिए जाते कैमरों की लाइटें सत्कार करतीं थीं

बीते कई वर्षों से एक से एक कद्दावर गौरव बढ़ाने जेल नहीं, तिहाड़ ही गए। तिहाड़ जाने का फायदा उन्हें यह मिला कि जब भी पेशी के लिए इधर-उधर जाते, कैमरों की लाइटें ललकती हुई उनका सत्कार करतीं थीं। इससे उनका रुतबा और रोशन होता। आखिरकार स्टैंडर्ड भी कोई चीज होती है कि नहीं! कहां तो चोर की बुझी हुई ढिबरी और कहां यह घोटालेबाजी की फोकस मारती हुई हेलोजेन लाइट? तो भाई साहब के घर में राय यह बनी कि कमाई का छोटा-मोटा धंधा न किया जाए। समय की प्रतीक्षा की जाए। और जैसे ही बड़ी डीलडौल वाली डील की गुंजाइश बने मुंह और हाथ दोनों मारे जाएं। इसी प्रतीक्षा में साल-दर-साल निकलते चले गए। चमड़ी झूलने लग गई और भाई साहब का, जिसे संयम का बंधन कहा जाता है, वह तक ढीला पड़ने लगा।

मीडिया मैनेजमेंट के कुछ गुर मुझे भी सिखाइए

भाई साहब ने एक रोज मुझसे भी सलाह चाही। कहने लगे, ‘पांडेजी, तनिक मीडिया मैनेजमेंट के कुछ गुर मुझे भी सिखाइए। टीवी पर कई बार आना तो हुआ, मगर औरों जैसी न फेस वैल्यू बन पाई है, न ही लोकप्रियता मिल पाई है।’ मैंने कहा, ‘भाई साहब, आपको धारा के विपरीत बहना होगा। उलटी बयानबाजियां करनी होंगी। अपनी वाणी से विवाद खड़े करने होंगे। सनसनीखेज बयान उछालने होंगें।’ कुछ ऐसा बोलना होगा जिसके बारे में लोग सोच भी न सकें। गलत कामों और बातों को सही बताना होगा और सही कामों में भी मीन-मेख निकालनी होगी। लगता है, भाई साहब मेरी बात के मर्म को समझ चुके हैं। मीडिया और खासकर टीवी पर छाए रहने के लिए वे धारा के विपरीत तो तैर ही रहे हैैं और बेहिसाब उलटी-सीधी नहीं, केवल उलटी ही बयानबाजियां कर रहे हैैं। वे मीडिया में हिट भी हैं और फिट भी। वे दनादन अपने बयानों के उल्कापिंड बरसा रहे हैं। उनके वक्तव्य वायरल हो रहे हैं। सर्वत्र भाई साहब के नाम की चर्चा है। मीडिया के आकाश में वह एक पुच्छल तारे की तरह चमक रहे हैं। तारीफ के साथ धन भी उपजने लगा है। सुना है, भाई साहब जल्दी ही स्वयं का न्यूज चैनल डालने जा रहे हैं।

[ हास्य-व्यंग्य ]