मुस्लिम आबादी से उपजे सवाल
2011 की धार्मिक जनगणना में मुस्लिम आबादी को लेकर लोगों में काफी उत्सुकता थी। वर्तमान में देश में मुस्लिम आबादी बढ़कर 17.22 करोड़ हो गई है जो कुल जनसंख्या का 14.2 फीसद है। पिछले दस वर्षो में मुस्लिम आबादी 3.5 करोड़ और हिंदू आबादी 13.8 करोड़ बढ़ी, लेकिन दोनों की
2011 की धार्मिक जनगणना में मुस्लिम आबादी को लेकर लोगों में काफी उत्सुकता थी। वर्तमान में देश में मुस्लिम आबादी बढ़कर 17.22 करोड़ हो गई है जो कुल जनसंख्या का 14.2 फीसद है। पिछले दस वर्षो में मुस्लिम आबादी 3.5 करोड़ और हिंदू आबादी 13.8 करोड़ बढ़ी, लेकिन दोनों की जनसंख्या वृद्धि दर लगातार कम हो रही है।
जहां हिंदू जनसंख्या में वृद्धि 1981-91 में 22.71 फीसद, 1991-2001 में 19.92 फीसद और 2001-2011 में 16.76 फीसद रही वहीं मुस्लिम आबादी की वृद्धि दर 1981-91 में 32.88 फीसद, 1991-2001 में 29.51 फीसद और 2001-2011 में 24.60 फीसद रही। यह दिखाता है कि दोनों समुदायों में जनसंख्या नियंत्रण को लेकर जागृति है। जनसंख्या नियंत्रण और परिवार नियोजन उपायों पर अभियान चलाकर जनता को बताया जाना चाहिए कि छोटे परिवारों से बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और अच्छा जीवन कैसे संभव है?
लोकतंत्र में संख्या बल का अपना महत्व है और शायद धार्मिक जनसंख्या के इन आंकड़ों को बिहार, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश के चुनावों से जोड़ने की कोशिश की जाए, लेकिन सामान्यत: मुस्लिम जनसंख्या से जुड़े सवालों को उठाने से पार्टियां परहेज करती हैं। उनको लगता है कि इससे कहीं मुसलमान नाराज न हो जाएं और उनके वोट न कट जाएं, लेकिन मुसलमानों पर अविश्वास क्यों? क्या वे भारत के हित में नहीं सोचते? क्या वे देश की समस्याओं के समाधान में कोई योगदान नहीं करना चाहते? क्या मुसलमानों का वोट इतना जरूरी है कि उसे लेने के लिए देश, समाज और स्वयं मुसलमानों के दूरगामी हितों के बारे में नहीं सोचा जाना चाहिए। दुर्भाग्य से बुद्धिजीवी वर्ग भी ऐसे प्रश्नों से बचना चाहता है। उसे लगता है कि कहीं उस पर सांप्रदायिक, भाजपाई और संघ परिवार से जुड़े होने का आरोप न लगे। सवाल है कि फिर उन प्रश्नों पर स्वस्थ चर्चा हो कैसे? मुस्लिमों से जुड़े प्रश्नों का एक ऐतिहासिक संदर्भ है।
भारत का विभाजन और पाकिस्तान का निर्माण। इससे भौगोलिक सीमा रेखा तो खिंच गई, लेकिन उस रेखा के आर-पार लोगों के दिलों में एक-दूसरे के लिए बहुत मोहब्बत है जो मुङो कुछ समय पूर्व अपनी लाहौर यात्र में देखने को मिली हालांकि वह सरकार और मीडिया की अभिव्यक्तियों में दिखाई नहीं देती। विभाजित परिवारों की त्रसदी तो हृदय विदारक है। इसके चलते हिंदुस्तान का मुसलमान अक्सर अपनी भावनाओं का इजहार करने में पाकिस्तानी समाज और पकिस्तान राज्य में भेद नहीं कर पाता और तब हिंदू समाज को बुरा लगता है। विश्व में 57 इस्लामिक राज्य हैं और पैन-इस्लामिक आंदोलन के अंतर्गत सभी इस्लामिक राज्यों को 1969 में आर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक को-ऑपरेशन संगठन का स्वरूप दिया गया। पाकिस्तान उसका सदस्य है। हिंदुस्तान के मुसलमान यदा-कदा इस पैन-इस्लामिक बयार में बहकर ऐसा व्यवहार कर बैठते हैं जिससे उनकी राष्ट्रीय निष्ठा पर प्रश्नचिह्न् लगने लगते हैं। शायर जावेद अख्तर का कथन है कि हिंदुस्तान का मुसलमान एक बार पकिस्तान जाकर लौटेगा तो वह हिंदुस्तान की मिट्टी को चूमेगा। यह कथन मुस्लिमों की निष्ठा और सोच को सही और सकारात्मक दिशा देता है।
धार्मिक आधार पर बंटवारे के बावज़ूद हमने सेक्युलर संविधान अपनाया। उसी संविधान से मुस्लिम समाज को अल्पसंख्यक का दर्जा और तमाम मौलिक अधिकार मिले जिससे आज मुसलमान तरक्की कर रहा है, लेकिन जब कभी इस्लाम और संविधान के प्रति निष्ठा का प्रश्न आता है तो मुस्लिम समाज कुछ ऐसे संकेत दे देता है जिससे लगता है कि संविधान के मुकाबले इस्लाम के प्रति उनकी निष्ठा कहीं ज्यादा है। ऐसे में हिंदू समाज को चिंता होती है। इन चिंताओं को दूर कैसे किया जाए? राजनीतिक स्तर पर वोट-बैंक की राजनीति से हमें फुर्सत मिले तब न। सामाजिक स्तर पर हिंदू मुस्लिम मेलजोल में बहुत कमी आई है, लेकिन उसकी भरपाई करना न किसी पार्टी के एजेंडे में है और न ही हिंदुओं या मुस्लिमों की तरफ से कोई पहल हो रही है। सामान्यत: वे अपने-अपने समुदाय के परिवारों से मिलते हैं लेकिन एक दूसरे के परिवारों से नहीं। समाज में कोई हिंदू-मुस्लिम साझा मंच नहीं हैं जिससे एक समुदाय की चिंताएं दूसरे समुदाय तक पहुंच ही नहीं पातीं और कोई चर्चा खुलकर नहीं होती जिससे पारस्परिक तनाव बढ़ता है और छोटी-सी चिंगारी भी सांप्रदायिक हिंसा को जन्म दे देती है।
सांप्रदायिक हिंसा के लिए भाजपा और संघ को उत्तरदायी ठहराने का फैशन हो गया है। इतना सरलीकरण कर हम एक शुतुरमुर्गी समाधान प्राप्त करते हैं, लेकिन समस्या की तह तक नहीं पहुंचते। जिस तरह देश के विभिन्न राज्यों में मुस्लिम-बस्तियां विकसित हुई हैं क्या वह चिंता का कारण नही हैं? असम में मुस्लिम आबादी 34.22 फीसद है, लेकिन आठ जिले ऐसे हैं जहां मुस्लिम आबादी 50 से 70 फीसद के बीच है। उत्तर प्रदेश में मुस्लिम जनसंख्या 19.2 फीसद है, लेकिन छह जिले ऐसे हैं जहां मुस्लिम जनसंख्या 40 से 50 फीसद पहुंच गई है। इनमें रामपुर, मुरादाबाद, बिजनौर, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, अमरोहा शामिल हैं। इस तरह के जनसंख्या घनत्व से सांप्रदायिक तनाव को बढ़ावा मिलता है। इससे कुछ हिंदुओं के मन में यह प्रश्न उठता है कि ऐसी स्थिति में मुस्लिम अल्पसंख्यक कैसे हो सकते हैं? कई शहरों में कुछ मुस्लिम बस्तियां जनसंख्या विस्फोट से त्रस्त हैं तो कई सांप्रदायिक तनाव के लिए जानी जाती हैं। कई शहरों में मुस्लिम बस्तियों का विस्तार करने हेतु धनी मुस्लिम आसपास की हिंदू संपत्तियां खरीद रहें हैं। हिंदुओं और मुसलमानों की अलग होती बस्तियां और उनका आपस में घटता मेल-जोल एक गंभीर समस्या है। इस संबंध में 1989 का सिंगापुर मॉडल उल्लेखनीय है। वहां किसी भी मोहल्ले में चार प्रमुख संप्रदायों चीनी-77 फीसद, मलय-14 फीसद, भारतीय-8 फीसद और अन्य- एक फीसद में किसी भी संप्रदाय के मकानों की संख्या उनकी जनसंख्या अनुपात या निर्धारित कोटा से ज्यादा नहीं हो सकती।
मुस्लिम-बस्तियों के बदतर हालात किसी से छिपे नहीं हैं। ऐसी बस्तियां गैरकानूनी गतिविधियों के लिए भी इस्तेमाल हो जाती हैं। उनका प्रयोग न केवल समाज विरोधी तत्व बड़ी आसानी से कर लेते हैं बल्कि उन्हें मुस्लिम युवाओं को कट्टर बनाने वाली नर्सरी के रूप में भी इस्तेमाल करते हैं। ज्यादातर पार्टियों ने मुसलमानों को भारतीय नागरिक के रूप में पनपने का अवसर दिया ही नहीं और उन्हें सदैव अल्पसंख्यक और पीड़ित होने की मानसिकता में रखा है। हाल में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के कुलपति लेफ्टिनेंट जनरल जमीर-उद्दीन शाह ने कहा कि मुस्लिमों को अब भेदभाव की शिकायत बंद करनी चाहिए और शिक्षा पर ध्यान देना चाहिए। देश की सेवा करते हुए उनको कभी भी धार्मिक आधार पर भेदभाव देखने को नहीं मिला। मुस्लिम समाज को बताया जाना चाहिए कि उनकी समस्याएं भी वही हैं जिनसे संपूर्ण भारतीय समाज जूझ रहा है। उन्हें भारतीय समाज के अभिन्न अंग के रूप में अपनी समस्याओं को परिभाषित करने और अपने समुदाय के अंदर के अंतर्विरोधों से निपटने की चुनौतियों को खुले मन से स्वीकार करना होगा।
[डॉ. एके वर्मा: लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं]
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