दो चरण का मतदान हो जाने के बाद भी बिहार चुनाव की रोचकता बरकरार है। टिकट बंटवारे को लेकर सभी दलों में कुछ उठापटक, पारस्परिक तनाव, आक्रोश और कहीं-कहीं विद्रोह भी हुआ, लेकिन इस बार के चुनावों में भाजपा के नेतृत्व वाले राजग को इससे कुछ ज्यादा रूबरू होना पड़ा, क्योंकि उनके टिकटार्थियों की आशा थी कि इस बार उनकी सरकार बनने वाली है। जब भी किसी दल या गठबंधन की जीत की संभावना बढ़ जाती है तो उसमें टिकटों की मारामारी भी बढ़ जाती है। दूसरे दलों के असंतुष्टों की आवक भी उस दल में बढ़ जाती है। लेकिन दलों को उससे निपट कर चुनाव प्रचार की रणनीति बनानी पड़ती है। बिहार के चुनाव विशुद्ध जातीय आधार पर लड़े जाते रहे हैं। उनमें विकास, गरीबी, किसानी, कानून एवं व्यवस्था, शिक्षा और रोजगार के मुद्दे गौण रहते रहे हैं। ज्यादातर राजनीतिक दल इसी जातीय गणित में उलझे रहे और सत्ता प्राप्त करने की जुगत में लगे रहे हैं। कभी किसी ने यह नहीं पूछा कि सत्ता लेकर करोगे क्या? चुनाव को हमेशा लोकतांत्रिक महोत्सव के रूप में मनाया गया और निर्वाचन आयोग से लेकर सरकारों, प्रशासन, राजनीतिक दलों, अनेक उत्साही गैर सरकारी संगठनों आदि ने चुनाव संपन्न कराने और अधिक से अधिक मतदाताओं की सहभागिता बढ़ाने में तो रुचि दिखाई पर 'करोगे क्या' पर सब उदासीन हो जाते हैं। देश में पोलिटिकल ऑडिट की न तो किसी ने कभी बात की, न कोशिश। इसकी जिम्मेदारी मीडिया या कुछ एनजीओ पर डाल दी गई।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार की परंपरागत चुनावी शैली को चुनौती दी है। सबका साथ सबका विकास के आह्वान से एक ओर उन्होंने जातीय आधार पर लड़े जाने वाले चुनावों की धार कुंद की है तो दूसरी तरफ चुनावों को विकास केंद्रित बना कर पोलिटिकल ऑडिट की एक नई खिड़की भी खोल दी है। उनके इस पैंतरे से लालू-नीतीश-कांग्रेस महागठबंधन कुछ असहज हो गया, क्योंकि उसके नेता न तो जातीय राजनीति से ऊपर उठाना चाहते हैं, न ही वे पोलिटिकल ऑडिट के लिए तैयार हैं। लेकिन बिहार का मतदाता क्या चाहता है? वह मोदी की चुनौती के साथ है या उसके खिलाफ? वोट देते समय क्या उसके जेहन में जाति कौंधेगी या विकास गरजेगा? यह एक यक्ष प्रश्न है जिसका उत्तर तो चुनाव नतीजों के दिन ही पता चलेगा।

लोकनीति और सीएसडीएस के ताजा सर्वेक्षण में बिहार में लालू-नीतीश-कांग्रेस महागठबंधन के मुकाबले राजग को चार फीसद की बढ़त दिखाई गई है। खासतौर से शहरी क्षेत्रों में यह बढ़त बहुत ज्यादा है। ऐसा लगता है कि भाजपा को इस बढ़त के लिए विशेष प्रकार की चुनावी रणनीति बनानी पड़ी होगी जिसे हम सैंडविच रणनीति कह सकते हैं। इस रणनीति में एक ओर तो विकास को तरजीह दी जा रही है जिसे प्रधानमंत्री मोदी अपने प्रत्येक भाषण और रैली में बड़ी शिद्दत से उठा रहे हैं वहीं दूसरी ओर अमित शाह ने टिकट बांटने में जातीय गणित को भरपूर तरजीह दी है। भाजपा ने अनेक जातियों को टिकट दिया है, जिसमें 60 फीसद टिकट दलित-पिछड़ों को दिए गए हैं। कुल टिकट का 50 फीसद युवाओं और महिलाओं को दिया गया है, पर सबसे महत्वपूर्ण है कि पार्टी ने यादव, कुर्मी और पिछड़े वर्ग के प्रत्याशियों को खूब टिकट दिए हैं जिससे लालू और नीतीश के वोट बैंक में सेंध लगाई जा सके। अनेक यादव नेता लालू के दल को छोड़ भाजपा में आ रहे हैं। दलितों और महादलितों को तो मांझी और पासवान के माध्यम से पहले ही काफी टिकट दिए जा चुके हैं। अभी तक भाजपा ने 160 सीटों में 65 सवर्ण, 22 यादव, 33 अत्यंत पिछड़ा वर्ग, 12 महादलित और आदिवासी, 10 पासवान, 6 कुशवाहा, 4 कुर्मी और 2 मुस्लिमों को टिकट दिया है। इतना ही नहीं अमित शाह ने बिहार के सबसे महत्वपूर्ण तबके सर्वाधिक पिछड़े वर्ग की अनेक उपजातियों के लोगों को भी टिकट दिया है। टिकट वितरण में ऐसा जातीय संतुलन भाजपा के नारे सबका साथ सबका विकास के माध्यम से समावेशी राजनीति को अमली जामा पहनाने का एक सशक्त प्रयास लगता है। टिकट वितरण में समाज के सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व देना स्वागतयोग्य है, जबकि लालू-नीतीश-कांग्रेस महागठबंधन ने 243 में से लगभग 97 सीटें केवल यादव-मुस्लिम वर्ग को आवंटित कर यह संदेश देने की कोशिश की है कि वे अभी भी इन दो सामाजिक वर्गों को अपने जनाधार का सबसे महत्वपूर्ण घटक मानते हैं। यद्यपि उन्होंने भी कुर्मियों को 16 और सर्वाधिक पिछड़े वर्ग को 40 सीटें दी हैं।

टिकट वितरण में जातीय समीकरणों को तरजीह देना एक बात है और उसका मतदान व्यवहार पर प्रभाव एक दूसरी बात। बिहार में पिछले लोकसभा चुनावों में इसकी पुष्टि हो गई जब भाजपा के नेतृत्व वाले राजग को 40 में 31 सीटें और 38.8 प्रतिशत वोट मिले। जाहिर है बिहार में जाति चुनावों में एक 'डोमिनेंट नैरेटिवÓ रही है। कुछ अवसरों पर मतदाता को जब बेहतर विकल्प दिखाई देता है तो वह उस नैरेटिव को बदल भी देता है। मतदाता के इस लोकतांत्रिक चरित्र को समझना जरूरी है। जातीय राजनीति पर पलने वाले राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों को इसीलिए सजातीय मतदाताओं पर जरूरत से ज्यादा भरोसा नहीं रखना चाहिए। आज बिहार का मतदाता बदल गया है। उसमें एक तिहाई मतदाता नवयुवक हैं जिन्हें अपने भविष्य की चिंता है, जिन्हें रोजगार और विकास के मुद्दे ज्यादा लुभाते हैं। क्या यह वर्ग बदलेगा या मतदान के समय उसकी भी जातीय प्रतिबद्धता मुखर हो उठेगी?

चुनावों में मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए तीन प्रकार की प्रवृत्तियां उभरी हैं। एक, जातीय राजनीति। दूसरा, सोशल इंजीनियरिंग और तीसरा, समावेशी राजनीति। जातीय राजनीति में कोई दल किसी जाति विशेष को आधार बनाकर चुनाव लड़ता है और सजातीयता ही उसके जनाधार का मूल होती है, जैसे पासवान की लोकजनशक्ति पार्टी या मांझी की हिंदुस्तान अवाम मोर्चा आदि। सोशल इंजीनियरिंग में किसी दो या दो से अधिक जाति वर्ग समूहों को इकठ्ठा करने की कोशिश होती है जो दल को बहुमत दिला सकें, जैसे लालू का यादव-मुस्लिम समीकरण या 2007 में उत्तर प्रदेश में मायावती का दलित-ब्राह्मण गठजोड़ और तीसरा, समावेशी राजनीति जिसमें समाज की सभी जातियों और वर्गों को अपने जनाधार का हिस्सा बनाने की कोशिश की जाती है जैसा कि भाजपा ने विगत लोकसभा चुनावों में किया और इस बार बिहार में करती दिखाई दे रही है। तीनों प्रवृत्तियों का अपना महत्व है और एक क्रम भी। इसमें सबसे लोकतांत्रिक प्रवृत्ति समावेशी राजनीति की है जो सभी दलों के दूरगामी हितों के लिए जरूरी है। बिहार में भाजपा की चुनावी रणनीति में विकास एकमात्र मुद्दा नहीं है, बल्कि जातीय गणित और माइक्रोसोशल इंजीनियरिंग के माध्यम से समावेशी राजनीति को भी महत्व दिया गया है। इन चुनावों में उसका जो भी परिणाम निकले, पर भाजपा को एक राष्ट्रीय दल के रूप में उभारने और बिहार की राजनीति में सशक्त हस्तक्षेप करने की क्षमता विकसित करने में यह अवश्य योगदान करेगी।

[लेखक डॉ. एके वर्मा, राजनीति शास्त्र के प्राध्यापक रहे हैं और शोध संस्थान सीएसडीएस से संबद्ध हैं]