पुरस्कार की राजनीति
देश में बढ़ रही असहिष्णुता के विरोध में कुछ साहित्यकारों ने साहित्य अकादमी सम्मान को वापस करने की घोषणा की है। सर्वप्रथम हिंदी लेखक उदय प्रकाश ने सम्मानित कन्नड़ लेखक एमएम कलबुर्गी की हत्या के विरोध में पुरस्कार वापस किया।
देश में बढ़ रही असहिष्णुता के विरोध में कुछ साहित्यकारों ने साहित्य अकादमी सम्मान को वापस करने की घोषणा की है। सर्वप्रथम हिंदी लेखक उदय प्रकाश ने सम्मानित कन्नड़ लेखक एमएम कलबुर्गी की हत्या के विरोध में पुरस्कार वापस किया। फिर नयनतारा सहगल ने यह कहकर वापस किया कि भारतीय संस्कृति की विविधता एवं वाद-विवाद पर भयंकर प्रहार हो रहे हैं। इसके बाद अशोक वाजपेयी ने भी ऐसा ही किया और कहा कि यह सही वक्त है जब लेखकों को ऐसी घटनाओं के खिलाफ लामबंद होना चाहिए। फिर तो इसकी झड़ी लग गई। अब तक पुरस्कार वापस करने वालों की संख्या दो दर्जन से अधिक हो गई है। इसमें कोई शक नहीं कि हाल के समय में कुछ विचलित करने वाली घटनाएं हुई हैं। नरेंद्र डाभोलकर, गोविंद पानसरे, एमएम कलबुर्गी तथा मो. इखलाक की हत्याएं हिलाने वाली हैं और देश के वैविध्य और सहनशीलता की गरिमामय परंपरा को तहस-नहस कर सकती हैं। लेखकों को विरोध करने का हक है और यह उनकी अभिव्यक्ति का तरीका है। वे अपने तरीके चुनने को स्वतंत्र हैं, परंतु पुरस्कारों का लौटाया जाना कुछ सवाल भी खड़े करता है। ये लेखक प्रशस्ति-पत्र, प्रमाण-पत्र एवं पुरस्कार की राशि तो वापस कर सकते हैं, लेकिन उस सम्मान एवं पहचान को कैसे वापस करेंगे जो पुरस्कार के कारण उन्हें मिली। इस कारण उनकी पुस्तकों की बिक्री बढ़ी, उनके अनुवाद अन्य भाषाओं में हुए तथा कई जगह पाठ्यक्रमों में निर्धारित भी हो गईं। हर व्यक्ति को असहमति जताने का पूरा हक है और यदि असहमति को कुचला जाता है तो इसका पुरजोर विरोध होना चाहिए। परंतु साहित्य अकादमी पुरस्कार के चयन में सरकार की कोई भूमिका नहीं होती। यह काम एक लेखकमंडल करता है। आज तक साहित्य अकादमी पूरी तरह स्वायत्त है। सरकार केवल पुरस्कार की राशि देती है। सवाल है क्या शब्दों की ताकत पूरी तरह खत्म हो गई है?
वाल्टेयर एवं रूसो के लेखन का इतना प्रभाव पड़ा कि फ्रांस में क्रांति हो गयी। पहले तो साहित्यकार पुरस्कार पाने के लिए सारे जुगाड़ लगाते हैं और फिर सुर्खियां बटोरने के लिए उन्हें वापस करते हैं। जो लेखक पूरी तरह स्वतंत्र रहना चाहता है उसे कोई पुरस्कार स्वीकार ही नहीं करना चाहिए। ज्यॉ पॉल सात्र्र ने नोबेल पुरस्कार ठुकराने के दो कारण दिए थे-व्यक्तिगत एवं वास्तुगत। उन्होंने लिखा, 'मेरा अस्वीकार करना आवेगपूर्ण संकेत नहीं है, मैंने हमेशा अधिकारिक सम्मान लेने से मना किया है। 1945 में जब युद्ध के बाद मुझे लेजियन ऑफ ऑनर देने की पेशकश हुई तो मैंने इंकार किया, हालांकि सरकार के प्रति मेरी सहानुभूति थी। यह प्रवृत्ति लेखकों की उद्यमशीलता की मेरी धारणा पर आधारित है। एक लेखक जो राजनीतिक, सामाजिक या साहित्यिक पक्ष लेता है, उसे केवल उन्हीं माध्यमों का सहारा लेना चाहिए जो उसके अपने हैं यानी लिखित शब्द। सभी सम्मान जो उसे मिलते हैं वे उसके पाठकों पर एक दबाव पैदा करते हैं जो मेरी समझ से वाछंनीय नहीं है। यदि मैं अपना हस्ताक्षर ज्यॉ पॉल सात्र्र के रूप में करूं तो यह बिल्कुल वैसा नहीं है जैसा यदि मैं लिखूं ज्यॉ पॉल सात्र्र नोबेल पुरस्कार विजेता।'
यह समझने की जरूरत है कि पुरस्कार से किसी लेखक का जो कद बढ़ता है, क्या उसे वापस करने से कद छोटा होगा। यह सर्वविदित है कि पुरस्कार के लिए कितनी पैरवी करवाते हैं। भारत में भी कुछ ने पुरस्कार लेने से इनकार किया है। अरुंधति राय ने साहित्य अकादमी पुरस्कार ठुकरा दिया और पत्रकार निखिल चक्रवर्ती ने पद्म भूषण। चक्रवर्ती ने लिखा कि सरकार से सम्मान प्राप्त कर वह स्वतंत्र नहीं रहेंगे। वैसे पुरस्कार शायद ही कोई ठुकराता है। नोबेल पुरस्कार भी अब तक इतिहास में केवल सात्र्र ने लेने से मना किया। 1925 में जब जॉर्ज बर्नार्ड शॉ को पुरस्कार देने की घोषणा की गई तो उन्होंने शुरू में अस्वीकार कर दिया, लेकिन बाद में उन्होंने स्टॉकहोम जाकर इसे ग्रहण किया। 1958 में रूसी उपन्यासकार बोरिस पास्तरनाक को पुरस्कार दिया गया, किंतु सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की नाराजगी को देखते हुए उन्हें इसे ठुकराना पड़ा। बाद में उनके वारिसों ने 1988 में इसे ग्रहण किया। इसके अलावा लेखकों एवं बुद्धिजीवियों की भूमिका बहुत गौरवशाली नहीं रही है। लोग नहीं भूले हैं कि आपातकाल के दरम्यान उन्होंने किस तरह सरकार के समक्ष घुटने टेके। नयनतारा सहगल ने आपातकाल का विरोध किया और साहित्य अकादमी से इस्तीफा दिया। हैरान करने वाली बात यह है कि 1984 के सिख-विरोधी दंगे के बावजूद 1986 में उन्होंने पुरस्कार स्वीकार कर लिया। कुछ लेखक ऐसे हैं जो नैतिकता के किसी नियम को मानते नहीं, किंतु इस पर भाषण जोरदार देते हैं।
अशोक वाजपेयी ने भी पुरस्कार वापस किया है। देश के साहित्यिक जगत में यह चर्चित है कि जब वह महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति बने तो पूरे कार्यकाल में ज्यादातर समय दिल्ली से ही काम करते रहे। यह कौन-सी नैतिकता है। एक व्यक्तिगत अनुभव का जिक्र करना प्रासंगिक होगा। कुछ वर्ष पूर्व उसी गांधी विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति विभूति नारायण राय की लेखिकाओं पर एक अवांछित टिप्पणी पर जब
तूफान खड़ा हो गया तो मैंने डीडी न्यूज में एक बहस का आयोजन किया और अशोक वाजपेयी को आमंत्रण दिया। उन्होंने आने के लिए हामी भरी। परंतु जब उन्हें पता चला कि इस बहस में चित्रा मुद्गल भी शामिल हो रही हैं तो फोन पर वह मेरे ऊपर चिल्लाने लगे, 'आपने चित्रा मुद्गल को क्यों बुलाया? वह विभूति नारायण राय का समर्थन करेंगी। मैं नहीं आऊंगा।' वह इस तरह चिल्ला रहे थे जैसे वह जमींदार हों और मैं उनका कर्मचारी। वह अंग्रेजी में मुझे डांट रहे थे, क्योंकि सत्ता की भाषा अंग्रेजी है। क्या विडंबना है कि नैतिकता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भाषण देने वाला दूसरों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को निर्ममता से कुचलता है और वर्धा का कुलपति दिल्ली में कार्यालय चलाता है। इतिहास में ऐसे कई साहित्यकार मिलेंगे जो राजसत्ता के हमेशा करीब रहे। इसलिए बुद्धिजीवियों, लेखकों, कलाकारों की भूमिका वैसी नहीं रही है जैसी कि उनसे अपेक्षा की गई।
[लेखक सुधांशु रंजन, डीडी न्यूज में वरिष्ठ पत्रकार हैं]






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