संसद के मानसून सत्र के बारे में जो शंकाएं थी वे सच हो रहीं हैं। पहले वसुंधरा राजे और शिवराज सिंह चौहान और फिर सुषमा स्वराज के इस्तीफे की मांग को लेकर संसद के दोनों सदनों में मोदी सरकार और विपक्ष के बीच गतिरोध खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम के निधन के बाद भी संसद के दोनों सदनों का परिदृश्य कोई बहुत उम्मीद नहीं जगाता। गत दिवस राज्यसभा में हुए हंगामे से यही लगता है कि राजनीतिक दल सबक सीखने को तैयार नहीं। विगत कुछ वर्षों से प्राय: ऐसे ही गतिरोध देखने में आ रहे हैं, बस मुद्दे भिन्न होते हैं और गतिरोध पैदा करने वाले बदल जाते हैं। इससे संसद का समय और जनता का पैसा, दोनों बर्बाद होते हैं और सरकार किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाती है। एक अनुमान के तहत संसदीय गतिरोध से साढ़े छह करोड़ रुपये प्रति सप्ताह व्यर्थ चले जाते हैं। भारत में संसदीय गतिरोध एक नई ऊंचाई तक पहुंच गया है। बीते दिनों कांग्रेस और विपक्षी दल इतना हंगामा करते रहे कि स्पीकर सुमित्रा महाजन के लिए सदन चलाना मुश्किल हो गया। कांग्रेस के सदस्यों ने सदन में काली-पट्टी बांध कर और तख्तियां लेकर हंगामा किया। फिर हम न्याय चाहते हैं... के नारे लगाए गए। वे भूल गए कि जनता सदन में बहस चाहती है। वह जानना चाहती है कि व्यापम और ललित मोदी प्रकरण पर तथ्य और तर्क क्या हैं? क्या वे इतने गंभीर हैं कि संबंधित नेताओं को त्यागपत्र देना चाहिए और क्या त्यागपत्र समस्या का कोई समाधान है भी? अब लाल बहादुर शास्त्री वाला जमाना तो रहा नहीं कि एक छोटी-सी रेल दुर्घटना पर रेल मंत्री त्यागपत्र दे दे। सदन में गतिरोध की परिपाटी ठीक नहीं। संसद राष्ट्रीय वाद-विवाद का सर्वोच्च मंच है। वहां कही बात को पूरा देश और विश्व का एक बड़ा भाग ध्यान से देखता-सुनता है और जन-प्रतिनिधियों की योग्यता का मूल्यांकन भी करता है। यदि विपक्षी दल सदन में बहस नहीं होने देंगे तो ऐसी शंकाएं गहराएंगी कि कहीं ऐसा तो नहीं कि विपक्षी अपने मुद्दों पर तर्क दे पाने की स्थिति में नहीं हैं? कहीं उनके तर्क लचर तो नहीं? कहीं यह डर तो नहीं कि भाजपा को घेरने के प्रयास में उन्हीं पर भ्रष्टाचार और घोटालों संबंधी कोई प्रति-आक्रमण न हो जाए?

राज्यसभा में पहले से ही सरकार और विपक्ष के बीच गतिरोध चल रहा है। वहां भाजपा अल्पमत में है। यदि लोकसभा और राज्यसभा में गतिरोध चल रहा है तो उसे दूर करने के लिए संवैधानिक प्रावधान भी हैं। संविधान के अनुच्छेद 108 के अनुसार राष्ट्रपति संसद का संयुक्त अधिवेशन बुला सकते हैं जो अंतत: किसी कानून को स्वीकृत या अस्वीकृत करने के लिए अंतिम संवैधानिक व्यवस्था है। 1950 में संविधान लागू होने से लेकर आज तक केवल तीन अवसरों पर संसद का संयुक्त अधिवेशन हुआ है। 9 मई 1961 को दहेज निरोधक अधिनियम पर, 16 मई 1978 को बैंकिंग सेवा आयोग निरस्तीकरण अधिनियम पर और 26 मार्च 2002 को 'पोटाÓ पर। मोदी सरकार इसे एक अंतिम विकल्प के रूप में तो देख सकती है, लेकिन संयुक्त अधिवेशन कोई बहुत अच्छा नहीं। उसमें कुल 788 सांसद होंगे जिसमें राजग के 395 और संप्रग सहित संपूर्ण विपक्ष के 393 सांसद। संयुक्त अधिवेशन की स्थिति में रोजमर्रा की संसदीय कार्यवाही का क्या होगा? ऐसा लग रहा है कि हमारे संसदीय इतिहास में शायद पहली बार भूमि-अधिग्रहण विधेयक को चौथी बार अध्यादेश द्वारा लागू किया जाएगा।

अब यह सवाल भी उभरने लगा है कि क्या जनता द्वारा पूर्ण बहुमत प्राप्त करने के बाद भी मोदी सरकार काम नहीं कर पाएगी? क्या विपक्ष राज्यसभा के माध्यम से जनता की चुनी सरकार को काम करने से रोकेगा? इसका अंजाम क्या होगा? इंग्लैंड में 1910 में ऐसी ही एक स्थिति आई थी जब प्रधानमंत्री एचएच एसक्विथ द्वारा प्रस्तुत बजट का लार्ड सभा ने विरोध किया। प्रधानमंत्री को त्यागपत्र देकर दोबारा इस बात पर जनादेश लेना पड़ा कि लार्ड सभा की वित्तीय शक्तियां खत्म कर दी जाएं। जनता ने एसक्विथ को पुन: चुना और 1911 के संसदीय अधिनियम के द्वारा लार्ड सभा की शक्तियां हमेशा के लिए खत्म कर दी गईं। कहीं ऐसा न हो कि राज्यसभा द्वारा लोकसभा के प्रति संघर्षपूर्ण रवैया अपनाने पर भारत में भी ऐसे किसी विकल्प पर विचार करना पड़े। यद्यपि भारत में उसके लिए संविधान संशोधन करना पड़ेगा, लेकिन मौजूदा माहौल से यह खतरा तो है ही कि कहीं जनता के मन में राज्यसभा के प्रति दुर्भाव न आ जाए। लोकसभा न चलने देना तो सीधे-सीधे जनता की अवमानना है। विरोध और वाद-विवाद लोकतंत्र की आधारशिला है और संसद उसका सर्वोच्च मंच। चाहे कांग्रेस हो, भाजपा हो या कोई और दल, किसने उन्हें यह अधिकार दिया कि वे सड़क छाप राजनीति से संसदीय कार्यवाही को अवरुद्ध कर दें?

आखिर राजनीतिक दलों को संसद में धरना-प्रदर्शन, शोर-शराबा, नारेबाजी और मारपीट को गंभीर बहस का विकल्प बनाने का अधिकार कहां से मिला? संविधान के अनुच्छेद 105 के तहत सांसदों को विशेषाधिकार अपने संवैधानिक दायित्वों के निर्वहन के लिए दिए गए हैं, धरना-प्रदर्शन और नारेबाजी के लिए नहीं। राजनीतिक दलों को यह समझने की जरूरत है कि उनकी समस्त गतिविधियां इसीलिए हैं, क्योंकि जनता की लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं में आस्था है। यदि उनके संसदीय आचरण में गंभीर गिरावट आ गई तो क्या जनता की लोकतंत्र में आस्था बनी रहेगी? यदि जनता की लोकतंत्र में आस्था ही खत्म हो गई तो उसका विकल्प अधिनायकवाद है जो भयानक है। वह दलों का अस्तित्व ही खत्म कर देगा। क्या यह माना जाए कि हमारे राजनीतिक दल प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से संसदात्मक व्यवस्था और लोकतंत्र को ही चुनौती दे रहे हैं? जिस डाल पर बैठे हैं उसी को काट रहे हैं? आखिर हमारी आगे आने वाली पीढ़ी किस मनोबल से राजनीति में आने का साहस करेगी? संसदीय गतिरोध यदा-कदा क्षम्य है, लेकिन मौजूदा प्रवृत्तियों को रोकना बहुत जरूरी है और इसे किसी कानूनी तरीके से नहीं, बल्कि राजनीतिक ढंग से ही रोका जा सकता है। विरोध दर्ज कराने का सबसे सशक्त उपाय संसदीय मंच का सदुपयोग है, न कि सदन में गतिरोध। यही लोकतंत्र की दरकार है। ऐसी ही स्वस्थ लोकतांत्रिक संस्कृति का इंतजार है।

[लेखक डॉ. एके वर्मा, जाने-माने राजनीतिक विश्लेषक हैं]