संभव नहीं सपा-बसपा का साथ
बिहार में दस विधानसभा सीटों के लिए उपचुनाव हो गया। इन सीटों के नतीजे लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के राजनीतिक भविष्य का निर्धारण करेंगे। धुर विरोधी दो दलों राजद और जदयू के लोकसभा चुनावों में करारी हार के बाद एक साथ आने से बिहार में एक नए सामाजिक समीकरण ने जन्म लिया है। जदयू-भाजपा गठजोड़ टूटने और उसके बाद लोकसभा चुनावों में भाजपा की शानदार सफलता से बिहार की राजनीति में एक नए युग का सूत्र-पात हो गया। इससे उबरने के लिए न केवल नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया, बल्कि घबराकर लालू प्रसाद से हाथ मिला लिया। लालू प्रसाद ने सोशल इंजीनियरिंग के नए मॉडल को उत्तार प्रदेश में भी लागू कराने की सलाह दी। लालू ने मुलायम सिंह यादव और मायावती को एक साथ आने की नसीहत दे डाली। मुलायम सिंह ने तो इस प्रस्ताव पर हल्की-फुल्की सहमति भी जताई, लेकिन मायावती ने ऐसे किसी विचार को खारिज करने में देर नहीं लगाई। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि नीतीश कुमार जैसे समझदार नेता से एक के बाद एक भूल होती चली जा रही है और यह भी कम ताज्जुब नहीं कि लालू जैसे मंझे खिलाड़ी उत्तार प्रदेश और बिहार की राजनीति के फर्क को समझ नहीं सके। जदयू और भाजपा की गठबंधन सरकार 2005 से अच्छे से चल रही थी और उसे अचानक तोड़ने का निर्णय बिलकुल गलत था। बावजूद इसके लोग नीतीश को आने वाले विधानसभा चुनावों में वोट दे सकते थे अगर वह शासन और विकास पर ध्यान देते। यह भी आश्चर्य की बात है कि नीतीश और लालू प्रसाद, दोनों ही उत्तार प्रदेश के चुनावी नतीजों को ठीक से पढ़ न सके और यह न समझ सके कि मतदाता का हृदय जीतने के लिए जातीय जोड़-तोड़ की जगह ठोस विकास को तरजीह देना होगा।
उत्तार प्रदेश की राजनीति में मायावती और मुलायम दो भिन्न-भिन्न जातीय समूहों का प्रतिनिधित्व करते हैं। मुलायम अपने को अन्य पिछड़ा वर्ग और मायावती दलितों का स्वाभाविक नेता मानती हैं। इसमें कुछ अन्य सामाजिक समूहों जैसे मुसलमानों, ब्राह्मणों आदि के साथ कुछ तालमेल बैठा कर वे सत्ता तक पहुंचना चाहते हैं। लेकिन सत्ता में आने पर वे संपूर्ण समाज के लिए काम करते दिखाई नहीं देते। महत्वपूर्ण बात यह है कि इन दो जातीय समूहों-अन्य पिछड़ा वर्ग और दलितों में न केवल सामाजिक स्तर पर कटुता है, बल्कि उनके आर्थिक हित भी परस्पर टकराते हैं। अन्य पिछड़े वर्ग के लोग ग्रामीण क्षेत्र में च्यादातर भूस्वामी और बड़े काश्तकार हैं, जो दलितों को अपनी जमीन पर मजदूर के रूप में काम करने को विवश करते हैं और प्राय: उनका आर्थिक शोषण भी करते हैं। मायावती ब्राह्मणों से दलितों का इसलिए गठजोड़ कर सकीं, क्योंकि उन दोनों में सामाजिक स्तर पर इतनी दूरी रही है कि उनके आर्थिक हितों में किसी टकराव की कोई संभावना ही नहीं। इसीलिए जैसे ही ब्राह्मणों ने दलितों के घर जाकर सामाजिक दूरी कम करने का प्रयास किया वैसे ही दोनों जातियों के बीच गिले-शिकवे दूर हो गए। लेकिन जहां आर्थिक हित टकराते हों वहां पास आना आसान नहीं। बिहार में लालू और नीतीश दोनों अन्य पिछड़े वर्ग से आते हैं इसलिए उनके साथ आने और मायावती व मुलायम के साथ आने में फर्क है।
इसके अलावा लालू-नीतीश उत्तार प्रदेश में मायावती का राजनीतिक 'गेमप्लान' ही न समझ सके। अभी तक बहुत सारे लोग यही समझ कर मायावती से सहानुभूति जताने की कोशिश कर रहे हैं कि वह बुरी तरह चुनाव हारी हैं। मायावती चुनाव भले ही हारीं हों, लेकिन वह अपने मकसद में पूरी तरह कामयाब हुईं। उनका मकसद इस चुनाव में मुलायम का राजनीतिक जीवन खत्म करना था, वह न तो उनको सत्तार सीटें जीतकर प्रधानमंत्री बनने का स्वप्न पूरा करने का अवसर देना चाहती थीं, न ही यह चाहती थीं कि कांग्रेस के नेतृत्व में किसी संभावित संप्रग-3 में उनका कोई स्थान हो। उत्तार प्रदेश में मुलायम को पांच सीटों पर समेटने में मायावती का योगदान कुछ कम नहीं। यह भी कयास लगाए जा रहे है कि अनेक क्षेत्रों में दलितों के वोटों को भाजपा को हस्तांतरित कराने में भी उनकी भूमिका हो सकती है, क्योंकि जिन दलितों ने बसपा को वोट नहीं दिया उन्होंने भाजपा को वोट दिया। एक अध्ययन के अनुसार 2009 के मुकाबले 2014 के चुनावों में बसपा को 16 फीसद दलितों और 35 फीसद अति-दलितों के कम वोट मिले, वहीं 2009 के मुकाबले भाजपा को दलितों के 13 फीसद और अति-दलितों के 37 फीसद च्यादा वोट मिले। और तब यदि स्वयं मायावती ही उत्तार प्रदेश में अपनी संपूर्ण पराजय की कीमत पर भी मुलायम की हार के लिए जिम्मेदार हों तो फिर वह क्यों उनसे गठजोड़ की सोचें भी?
एक तीसरी वजह भी है जो मायावती और मुलायम को साथ न आने देगी। वह है 1993 में सपा-बसपा का साथ आना और 1995 में लखनऊ गेस्ट हाउस कांड, जिसमें मायावती ने आरोप लगाया कि सपा के लोगों ने उनको जान से मारने की कोशिश की। वह जमाना था जब कांसीराम मायावती को उत्तार प्रदेश की राजनीति में स्थापित करना चाहते थे। उस समय कांसीराम उत्तार प्रदेश की राजनीति में पिछड़े वर्ग की परिकल्पना किया करते थे, जिसमें दलित, अन्य पिछड़ा वर्ग और मुसलमान सम्मिलित थे। लेकिन अपने प्रयास में वह सफल न हो सके, क्योंकि उस वक्त मुलायम अपने चरम पर थे और वह कांसीराम की राजनीतिक दूरदर्शिता को न भांप सके। वह काम लालू ने बिहार में कर डाला और दलित-पिछड़ों का गठजोड़ बनाकर 15 वषरें तक लालू-राबड़ी शासन चलाया। यदि उन्होंने चारा घोटाला न किया होता और कानून एवं व्यवस्था को तिलांजलि न दिया होता तो बिहार का परिदृश्य कुछ और ही होता। अब कुछ देर हो गई है। न तो बिहार और न ही उत्तार प्रदेश का मतदाता उस पुरानी जातिवादी मानसिकता से वोट देगा, क्योंकि मोदी में उसे विकास के प्रति समर्पित न केवल एक नेता मिल गया है, बल्कि एक ऐसा नेता भी मिल गया है जिसने अन्य-पिछड़े-वर्ग के नेतृत्व के लिए एक सशक्त दावेदारी भी पेश कर दी है।
[लेखक डॉ. एके वर्मा, राजनीतिक विश्लेषक हैं]
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