देश में प्रबल बहुमत वाली सरकार है, लेकिन इसे लेकर संशय कायम है कि संसद के मौजूदा सत्र में जीएसटी समेत अन्य महत्वपूर्ण विधेयक पारित होंगे या नहीं? राज्यसभा में अपने बहुमत के चलते कई विपक्षी दल ऐसा व्यवहार कर रहे हैं जैसे जनता ने शासन चलाने के अधिकार मोदी सरकार से छीनकर उन्हें सौंप दिए हैं।

मोदी सरकार को अहंकारी बताने वाले कई विपक्षी दल यह प्रकट करते भी दिख रहे हैं कि मई 2014 में नासमझ जनता ने गलती कर दी थी और उसे ठीक करने की महती जिम्मेदारी उनके सिर पर आ गई है और वे उसी पूरी करके ही रहेंगे। यदि अहंकार नापने का कोई पैमाना मिल सके तो इस समय विपक्षी दलों और खासकर कांग्रेस का अहंकार स्तर खतरे के निशान को पार करते दिखेगा। इस सत्र में अभी तक की राज्यसभा की कार्यवाही देखें-सुनें या पढ़ें तो यही आभास होगा कि बड़ों के इस सदन में नकारात्मकता का वास हो गया है।

चुन-चुन कर ऐसे मसले उठाए जा रहे हैं जिससे हंगामा करने में आसानी हो। संविधान पर बहस के समय कांग्रेसी सांसद सैलजा को फरवरी 2013 में अपने साथ एक मंदिर में भेदभाव का प्रसंग याद आ जाता है और उसे बयान करते हुए वह आंसू छलका देती हैं। क्या यह अजीब नहीं कि सैलजा करीब 33 महीने अपने कथित अपमान के आंसू थामे रहीं? इन आंसुओं के चलते राज्यसभा के कई घंटे बर्बाद हुए। इसके बाद मंत्री वीके सिंह को सदन में बैठा देखकर बसपा सांसद सतीश चंद्र मिश्र को यह याद आ जाता है कि उन्होंने तो दलितों के बारे में एक बेजा टिप्पणी की थी। वकील होते हुए भी बसपा सांसद इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि उन्हें राज्यसभा में दाखिल होने का अधिकार ही नहीं। वह उन्हें सदन से बाहर निकालने की जिद पकड़ लेते हैं और कई अन्य सांसद उनका साथ देते हैं।

बेशक फरीदाबाद की घटना को लेकर प्रतिक्रिया व्यक्त करते समय वीके सिंह ने असावधानी बरती थी, लेकिन यह कहना शरारत के अलावा और कुछ नहीं कि वह दलितों का अपमान करने पर आमादा थे। राज्यसभा में ऐसा ही साबित करने की कोशिश की गई। बाद में यही काम लोकसभा में भी किया गया। माना कि राजनीतिक दल दूसरों की गलतियों का लाभ उठाते हैं और अपने राजनीतिक हितों के हिसाब से काम करते हैं, लेकिन इससे बड़ा मजाक और कुछ नहीं कि संविधान के प्रति समर्पण का जाप करने के बाद संसद के जरिये लोगों को गुमराह करने का काम किया जाए। राज्यसभा में कांग्रेसी सांसद प्रमोद तिवारी का यह सवाल देखिए-‘डॉलर के मुकाबले रुपया 67 पर पहुंच गया है।

क्या मोदी जी की सरकार यह इंतजार कर रही है कि इसको आडवाणी जी की आयु तक ले जाएंगे या जोशी जी की आयु तक? मैं इसका जवाब चाहता हूं।’ नि:संदेह बड़ों को भी व्यंग्य-विनोद करने का अधिकार है, लेकिन ऐसे सवाल को भद्दे मजाक के अलावा और कुछ कहना कठिन है। इसके बावजूद कहना कठिन है कि आम चुनाव के समय राजनीतिक रैलियों में नरेंद्र मोदी भी डॉलर के मुकाबले कमजोर होते रुपये को लेकर ऐसे कटाक्ष करते थे, लेकिन आखिर राज्यसभा और रैली में कोई अंतर रहेगा या नहीं? चूंकि राज्यसभा में कांग्रेस समेत कई विपक्षी दलों का नकारात्मक रवैया साफ नजर आने लगा है इसलिए इस सदन की भूमिका पर सवाल भी उठने लगे हैं। ऐसा ही सवाल बीजद के लोकसभा सदस्य बैजयंत जय पांडा ने एक लेख के जरिये उठाया तो राज्यसभा के कई सांसदों ने विशेषाधिकार हनन की नोटिस दे दी। यह नोटिस देने वालों ने अपनी असहिष्णुता भी बयान की और नकारात्मकता भी।

यह अच्छी बात है कि असहिष्णुता के गुब्बारे की हवा निकल गई है, लेकिन हद पार करती नकारात्मकता का कोई उपचार नहीं दिख रहा है। संसद के दोनों सदनों में संविधान और असहिष्णुता पर बहस के दौरान कुछ नेताओं को छोड़ दें तो दोनों पक्षों की ओर से नकारात्मकता ही प्रदर्शित की गई। मोहम्मद सलीम, मल्लिकाजरुन खड़गे और राहुल गांधी तो नकारात्मकता में आकंठ डूबे नजर आए। नकारात्मकता की जैसी बयार संविधान की सबसे बड़ी संस्था-संसद में देखने को मिल रही है वैसी ही मीडिया के एक बड़े हिस्से में भी दिखती है। अगर कोई संसद के हंगामे से अनभिज्ञ रहना पसंद करे, टीवी चैनलों से खुद को दूर कर ले, सनसनीप्रेमी अखबारों को पलटने से इंकार कर दे और सोशल मीडिया से भी नाता तोड़ ले तो शायद वह कहीं अधिक अमन-चैन और मानसिक शांति का अहसास करेगा। यही वे ठिकाने हैं जहां से नकारात्मकता का जबरदस्त संचार हो रहा है। अगर संसद में कई दल किसी भी मसले पर सहमति तक न पहुंचने के लिए सहमत दिखते हैं तो मीडिया का एक बड़ा हिस्सा नकारात्मकता की तलाश में व्यग्र दिखता है और सोशल मीडिया में तो देश कई हिस्सों में बंट गया लगता है। अलग-अलग दलों के समर्थक कभी किसी मसले पर सहमत नहीं होते। सोशल मीडिया पर राजनीतिक दलों के समर्थकों में तमाम ऐसे हैं जो विरोधी दलों के नेताओं को देश को लूटने-बर्बाद करने वाला मानते भी हैं और अपनी-अपनी तरह से साबित भी करते हैं।

यह सही है कि अच्छे दिनों की आस अभी तक पूरी नहीं हुई और मोदी सरकार के कुछ फैसलों ने आलोचकों को यह कहने का मौका दिया कि वह विपक्ष को कोई अहमियत नहीं दे रही, लेकिन ऐसा कहते-कहते अब कई विपक्षी दल भी सत्तापक्ष को अहमियत देने को तैयार नहीं दिखते। कांग्रेस का रुख-रवैया तो ऐसा है मानो सत्तापक्ष की संवैधानिक जिम्मेदारी यह है कि वह हर काम उससे पूछकर करे नहीं तो हाथ पर हाथ रखकर बैठी रहे। हाल के दिनों में राहुल गांधी ने पहले बेंगलुरु के माउंट कारमेल कालेज, फिर लोकसभा और अभी हाल में इंटक सम्मेलन में जो कुछ जिस अंदाज में कहा उससे ऐसा लगा कि भारतीय राजनीति को नकारात्मकता से भरे एक एंग्री यंगमैन की तलाश है और वह उसे पूरा करने को तत्पर हैं। हद से ज्यादा नकारात्मकता केवल कलह-कटुता ही पैदा नहीं करती, वह सकारात्मक चीजों को ओझल करने का भी काम करती है।

राजीव सचान ( लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)