मोदी-मुस्लिम समीकरण
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुस्लिम समुदाय के रिश्तों में पिछले एक-डेढ़ वर्षो में गर्मजोशी बढ़ी है। स्वयं मुस्लिम नेता भी मानने लगे हैं कि मुस्लिम समुदाय मोदी की ओर आकृष्ट हुआ है। बिहार में अररिया से राजद के सांसद और कद्दावर मुस्लिम नेता तस्लीमुद्दीन ने अभी हाल में स्वीकार किया
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुस्लिम समुदाय के रिश्तों में पिछले एक-डेढ़ वर्षो में गर्मजोशी बढ़ी है। स्वयं मुस्लिम नेता भी मानने लगे हैं कि मुस्लिम समुदाय मोदी की ओर आकृष्ट हुआ है। बिहार में अररिया से राजद के सांसद और कद्दावर मुस्लिम नेता तस्लीमुद्दीन ने अभी हाल में स्वीकार किया कि 24 विधानसभाओं वाले उनके क्षेत्र सीमांचल, अररिया, पूर्णिया, कटिहार और किशनगंज में मुस्लिम मतदाता भाजपा को भी वोट देगा। ऐसा क्यों? क्या मोदी के बारे में मुस्लिम समुदाय का नजरिया बदल रहा है? क्या मोदी की एंटी-मुस्लिम छवि टूट रही है?
पिछले 12-13 वर्षो से मोदी एंटी-मुस्लिम प्रतीक से हो गए थे। गुजरात के दंगों ने उन पर एंटी-मुस्लिम होने की मुहर लगा दी थी। दिसंबर 1992 में अयोध्या में विवादित ढांचा ढहाए जाने से देश में भाजपा विरोध का अभियान चल पड़ा और भाजपा, उसके नेताओं व कार्यकर्ताओं को सांप्रदायिक और मुस्लिम विरोधी मान लिया गया। फिर नृशंस गोधरा कांड हुआ, जिसकी आज कोई याद या बात नहीं करना चाहता और फिर गुजरात के दंगे। मोदी का दुर्भाग्य था कि वह गोधरा और गुजरात कांड के चार माह पूर्व ही मुख्यमंत्री बने थे। ब्रिटिश लेखक एंडी मरीनो ने अपनी पुस्तक नरेंद्र मोदी-ए पोलिटिकल बायोग्राफी में लिखा है कि गुजरात सरकार ने बड़ी तत्परता से दंगों को नियंत्रित किया, जिसके लिए स्वयं न्यायालय ने गुजरात सरकार की सराहना की। लेकिन भाजपा पर मुस्लिम विरोधी होने की मुहर होने और मोदी भाजपा के मुख्यमंत्री होने के कारण सेक्युलरिज्म के स्वयंभू अलंबरदारों ने मोदी को मुस्लिम विरोध का पर्याय साबित करने में कोई कोर-कसर छोड़ी नहीं। जिस प्रकार आडवाणी ने नब्बे के दशक में रथयात्र के माध्यम से सेक्युलर-पॉलिटिक्स को हवा दी, उसी प्रकार गुजरात दंगों ने भी 21वीं सदी में सेक्युलर-पॉलिटिक्स को एक संजीवनी दे दी। गुजरात में मोदी ने न केवल सांप्रदायिक मुस्लिम संगठनों से मोर्चा लिया, बल्कि उन्होंने दक्षिणपंथी कट्टर हिंदूवादियों जैसे अशोक सिंघल और प्रवीण तोगड़िया आदि का भी वर्चस्व खत्म कर दिया और शायद इसीलिए गुजरात में मोदी मुस्लिम और हिंदू, दोनों ही कट्टरवादियों के निशाने पर आ गए लेकिन उन्होंने दोनों ही पक्षों की जनता का खूब स्नेह और आशीर्वाद बटोरा। परिणामस्वरूप वह लगभग 13 वर्षो तक गुजरात में निर्विघ्न शासन करते रहे। क्या मोदी की एंटी-मुस्लिम छवि एक मिथक थी जो अब धीरे-धीरे टूट रही है? मोदी को प्रधानमंत्री बने डेढ़-साल होने को आए और यदि वह वास्तव में एंटी-मुस्लिम होते तो अब तक उनके किसी न किसी भाषण, निर्णय या व्यवहार में उनका वह चरित्र उजागर हो ही गया होता। प्रधानमंत्री बनने के पूर्व उन्होंने आठ-नौ महीने धुआंधार चुनाव-प्रचार किया और उसमें भी कहीं एंटी-मुस्लिम भाव दिखा नहीं। उसी का परिणाम था कि पिछले लोकसभा चुनावों में भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर 8 फीसद और हिंदी-बेल्ट में 11 फीसद मुस्लिम वोट मिले, जो 2009 लोकसभा चुनावों के मुकाबले दो गुने थे।1इधर प्रधानमंत्री मोदी ने मुस्लिमों में अपनी पैठ बनाने के लिए कुछ प्रो-एक्टिव पहल भी की है। विगत जून में उन्होंने इमाम उमर अहमद इलयासी के नेतृत्व में 30 मुस्लिम नेताओं से मुलाकात की और विश्वास दिलाया कि वह प्रत्येक भारतीय के प्रधानमंत्री हैं और किसी को भी न तो हिंदू न मुस्लिम कार्ड खेलने देंगे, वरन वह स्वयं इंडिया-कार्ड खेलेंगे। अभी पिछले महीने उन्होंने 40 बरेलवी सूफी विद्वानों से मुलाकात की और उनसे भी अनुरोध किया कि वे विभिन्न सोशल मीडिया माध्यमों से उग्रवादी ताकतों के विरुद्ध अभियान छेड़ें। सूफी विद्वानों ने भी मोदी को राय दी कि वह मध्यस्थों को छोड़कर मुस्लिमों से सीधे बात करें, क्योंकि बहुत से लोग नहीं चाहते कि मुस्लिमों के रिश्ते मोदी और भाजपा से बेहतर हों। विद्वानों के अनुसार इस्लामिक जिहाद के नाम पर आतंकवाद फैलाना सच्चा इस्लाम नहीं हो सकता। कांग्रेस और संप्रग के घटक प्राय: उन मुस्लिमों से संपर्क में रहते जो धार्मिक या राजनीतिक क्षेत्र में अग्रणी हैं चाहे उनका कोई जनाधार हो या नहीं। मोदी ने इससे हटकर एक अलग रास्ता अपनाया है। वह मुस्लिमों की शिक्षा और उनके स्किल-डेवलपमेंट पर विशेष ध्यान दे रहे हैं। उन्होंने हमेशा 125 करोड़ भारतवासियों की बात की है, न कि हिंदू या मुसलमान की। मोदी ने देश में सच्ची समावेशी राजनीति की शुरुआत की है। इन प्रयोगों से मुस्लिम समुदाय में मोदी के बारे में भ्रांतियां दूर हुई हैं।
इसके अतिरिक्त मोदी ने कुछ प्रभावशाली मुस्लिमों जैसे जफर सरेशवाला और आसिफा खान को मुस्लिम-भाजपा संबंधों को ठीक करने के लिए लगाया है, जो दोनों की भावनाओं और विचारों को एक-दूसरे तक पहुंचाने का काम करते हैं। बहुत से मुस्लिम उन पर शक भी करते हैं, लेकिन कुछ मुस्लिमों को वे मोदी के पक्ष में लाने में जरूर सफल हो रहे हैं। इसी तरह भाजपा के मुस्लिम प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन और मुख्तार अब्बास नकवी भी बहुत बेहतर ढंग से भाजपा से संबंधित मुस्लिम प्रश्नों को हल करते हैं, लेकिन इसके साथ-साथ मोदी सरकार मुस्लिमों के लिए वर्तमान योजनाओं को न केवल तेजी से लागू कर रही है, बल्कि कुछ नई योजनाएं भी ला रही है। जम्मू-कश्मीर में मुस्लिम समर्थित पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बनाने व चलाने से ऐसा पहली बार हुआ कि एक मुस्लिम बहुल राज्य के शासन और प्रशासन में भाजपा की पैठ हुई है। इस परिप्रेक्ष्य में बिहार में मुस्लिम-मोदी समीकरण पर तस्लीमुद्दीन की टिप्पणी महत्वपूर्ण है। बिहार में मुस्लिम मत, जिस पर सेक्युलर राजनीति करने वाले इतराते थे, बंटने की पूरी संभावना है। मुस्लिम मतों के पांच-पांच दावेदार हैं। इनमें कांग्रेस-राजद-जदयू महागठबंधन, मुलायम सिंह यादव की सपा, लेफ्ट फ्रंट, ओवैसी की मजलिस इत्तिहादे मुसलमीन और भाजपा शामिल है। इससे न केवल भाजपा को हराने के लिए मुस्लिम मतों को इकट्ठा करने की संभावना खत्म होगी, बल्कि कुछ फीसद मुस्लिम मतों के भाजपा के पाले में जाने से उसको और मजबूती भी मिलेगी।
मुस्लिमों के संबंध में सेक्युलर राजनीति का दावा करने वाले राजनीतिक दल क्यों अचानक एक-दूसरे पर शक करने लगे, यह कौतूहल का विषय है। मुलायम ने सीधे नीतीश पर आरोप लगा दिया कि भाजपा के साथ मिलकर सरकार चलाने वाले कब से सेक्युलर हो गए? तो मुलायम पर आरोप लगा कि कल्याण सिंह के साथ मिलकर 2009 का लोकसभा चुनाव लड़ना क्या सेक्युलर-पॉलिटिक्स का उनका मॉडल था? अब मुस्लिम मतदाता भ्रमित हैं। लालू न्यायालय द्वारा प्रमाणित अपराधी हैं और नीतीश व मुलायम की सेक्युलरिच्म संदिग्ध हो गई है। तो फिर भाजपा से क्या परहेज? मोदी कम से कम सबका साथ, सबका विकास की बात तो कर रहे हैं और कहीं से एंटी-मुस्लिम नजर भी नहीं आ रहे हैं। मुस्लिमों का गरीब तबका भी अपने विकास की कल्पना से उत्साहित है। अन्यथा सेक्युलर पार्टियां तो उसे हमेशा भाजपा का भय ही दिखाती रहती थीं। इससे न केवल मोदी और भाजपा से मुस्लिमों की दूरियां घटी हैं, बल्कि उनके रिश्तों में कुछ गर्माहट भी आ गई है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)
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