नई दिल्ली [ राजेंद्र प्रताप गुप्ता ] आम बजट की तैयारियां इन दिनों चरम पर हैं। पिछले दो बजट में ग्रामीण विकास, कृषि और बुनियादी ढांचे पर उचित रूप से ध्यान दिया गया, लेकिन नौकरशाहों का लालफीताशाही भरा रवैया अवरोध ही बना रहा। हमें अभी तरक्की का बहुत लंबा रास्ता तय करना है। इसके लिए हमें विकास का एक नया प्रारूप भी चुनना होगा जिसमें प्रगति का प्रतिफल सभी को हासिल हो सके। बीते कई दशकों से हम दोहरे अंकों वाली विकास दर के पीछे भागे जा रहे हैं, लेकिन मौजूदा दृष्टिकोण के साथ हम उस लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाएंगे। हिंदी में एक आम कहावत है कि-ज्यादा जोगी, मठ उजाड़। यह कहावत बजट पर भी लागू होती है जहां जरूरत से ज्यादा अर्थशास्त्रियों का जमावड़ा बजट की सूरत और सीरत बिगाड़ देता है। एक ख्यातिप्राप्त अर्थशास्त्री के हाथ में दस वर्षों तक देश की कमान रही तो रिजर्व बैंक से लेकर पूर्ववर्ती योजना आयोग में तमाम लब्ध प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने अपनी सेवाएं दीं, लेकिन देश इस दौरान लड़खड़ाता ही रहा।

वक्त है आर्थिक सोच में परिवर्तन करने का

वक्त आ गया है कि हम अपनी आर्थिक सोच में परिवर्तन करें। जमीनी हकीकत से कटे हुए अर्थशास्त्री देश की जटिलताओं को नहीं समझते और वे अर्थव्यवस्था का भला नहीं कर पाते। एक आम धारणा यह भी है देश के केवल तीन प्रतिशत लोग ही कर अदा करते हैं। यह सही है, लेकिन केवल प्रत्यक्ष करों के मामले में ही। वास्तव में कुछ भी खरीदारी करने वाला व्यक्ति भी अप्रत्यक्ष करों के जरिये कर अदा ही कर रहा है। जीएसटी के आने से तो यह दायरा और भी बढ़ा है। ऐसे में करदाताओं के कमजोर आधार की दलील उचित नहीं है। अब वक्त है कि हम ऐसे विकास प्रारूप की ओर बढ़ें जिसमें उसका प्रतिफल व्यापक रूप से सभी को हासिल हो सके। हम इसे कैसे संभव बना सकते हैं? इसी पर विचार करते हैं।

कृषि आधारित गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित किया जाए

भारत में करीब 25 करोड़ परिवार हैं जिनमें तकरीबन 25 प्रतिशत गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन वाले यानी बीपीएल हैं। ऐसे में उनकी आमदनी बढ़ाने के लिए निरंतर प्रयासों की जरूरत है। इसी तरह सिंचाई और कृषि संबंधित क्षेत्रों में निवेश के साथ ही इन इलाकों को बड़े शहरों और निर्यात केंद्रों से जोड़ना भी समय की जरूरत हो गई है। इसमें ‘कृषि अवसंरचना एवं सिंचाई मिशन’ जैसी विशेष योजना हमारी कृषि की तरक्की का इंजन बन सकती है। देश में संचालित लगभग 3.61 करोड़ एमएसएमई इकाइयों में लगभग आठ करोड़ लोगों को रोजगार मिला हुआ है। इनमें से भी दो करोड़ इकाइयां ग्रामीण क्षेत्र में हैं जिनमें 26 लाख महिला उद्यमी हैं। एमएसएमई के दायरे का विस्तार कर इसमें महिलाओं और युवाओं की सहभागिता और खाद्य प्रसंस्करण के साथ ही कृषि आधारित गतिविधियों और उच्च विनिर्माण कौशल वाले उद्योगों पर ध्यान केंद्रित किया जाए। एमएसएमई के जरिये ही बड़े पैमाने पर रोजगार और लोगों की आमदनी बढ़ाई जा सकती है। इससे मेक इन इंडिया मुहिम को भी मजबूती मिलेगी। यह अर्थव्यवस्था का दूसरा ऐसा क्षेत्र है जिसे धार दिए जाने की दरकार है।

विकास को रफ्तार देने के लिए निवेश बढ़ाना होगा

बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, झारखंड और छत्तीसगढ़ में भारत की 42 प्रतिशत आबादी रहती है। संयोग से इन सभी राज्यों में भाजपा या उसके सहयोगी दलों की सरकार हैं। इन राज्यों में विकास को रफ्तार देने के लिए हमें निवेश बढ़ाना होगा। इन राज्यों की कमजोर वृद्धि समूचे देश की तरक्की की गाड़ी को पटरी से उतार सकती है। चूंकि देश में 1.3 करोड़ से अधिक खुदरा विक्रेता सक्रिय हैं तो हमें ऑनलाइन और खुदरा में शत प्रतिशत एफडीआइ को लेकर कुछ एहतियात भी बरतनी होगी। यहां सौ फीसद ऐसा निवेश दूरदर्शी नहीं होगा और यदि भाजपा देश में लंबे समय तक शासन करना चाहती है तो इस मोर्चे पर उसे नीति निर्माताओं को सतर्क करना होगा।

देश में पर्यटन क्षेत्र में असीम संभावनाएं हैं

देश में पर्यटन क्षेत्र में भी असीम संभावनाएं हैं। देश में करीब एक करोड़ सैलानी आते हैं जिस आंकड़े को पांच गुना बढ़ाने की पूरी गुंजाइश है। इस आंकड़े की कल्पना के साथ ही होटल, सम्मेलन केंद्रों, कैब, गाइड इत्यादि के लिए अपार रोजगार के अवसर दिखते हैं। इसमें खास यही होगा कि यह सब सरकारी निवेश के बिना संभव होगा, क्योंकि इसमें कारोबारी संभावनाओं को देखते हुए निजी क्षेत्र निवेश के लिए आगे आएगा। रोजगार सृजन और विदेशी मुद्रा अर्जन के लिए सरकार को निश्चित रूप से पर्यटन क्षेत्र पर ध्यान देना चाहिए। इसमें वैश्विक और घरेलू सैलानियों के लिए भारत के पास तमाम सौगातें हैं।

स्वास्थ्य-शिक्षा पर जिनता खर्च बढ़ेगा, जीडीपी वृद्धि में भी तेजी आएगी

एक हालिया अध्ययन के अनुसार स्वास्थ्य पर खर्च के चलते देश के पांच करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे चले गए। यह भी एक तथ्य है कि जिस हिसाब से देश की अर्थव्यवस्था बढ़ रही है उसमें रोजगार के लिए तैयार अवसरों को भुनाने के लिए पर्याप्त कुशलता वाले लोगों की भी कमी है, क्योंकि लोग शिक्षित तो हैं, लेकिन उस काम के लिए कुशलता नहीं है। अगर काम करने वालों की सेहत दुरुस्त नहीं होगी और उनमें कौशल का अभाव होगा तो उत्पादकता कैसे बढे़गी, लिहाजा इस महत्वपूर्ण मोर्चे को भी समय रहते साधना होगा। हालांकि मैं पेशेवर अर्थशास्त्री नहीं हूं, लेकिन यह कह सकता हूं कि स्वास्थ्य-शिक्षा पर जिनता खर्च बढ़ेगा, जीडीपी वृद्धि में भी उसी अनुपात में तेजी आएगी। देश में इन दोनों सेवाओं की खस्ताहाल स्थिति को देखते हुए समय रहते सुधार की दरकार है।

अर्थशास्त्री हमें वित्तीय अनुशासन को लेकर चेताते रहते हैं

देश में मौजूद 134 करोड़ उपभोक्ता इसे विपुल संभावनाओं वाला बाजार बनाते हैं। हर साल इसमें 1.8 करोड़ का इजाफा हो जाता है। कृषि, एमएसएमई और पर्यटन में अवसर बढ़ाकर और शिक्षा-स्वास्थ्य की स्थिति सुधारकर हम 10 फीसदी की सतत वृद्धि के आंकड़े को छू सकते हैं। विदेशी खांचे में ढले अर्थशास्त्री अक्सर हमें वित्तीय अनुशासन को लेकर चेताते रहते हैं। हमें उन पर ज्यादा ध्यान नहीं देना चाहिए। यहां तक कि राजकोषीय घाटा अगर जीडीपी के पांच फीसदी तक भी पहुंच गया तब भी कई क्षेत्रों में किया गया निवेश फलीभूत होकर एक दशक के भीतर देश को दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने का माद्दा रखता है। अमेरिका इस मामले में मिसाल है जो इन पहलुओं की फिक्र नहीं करता।

लोगों की आमदनी बढ़ाने वाली योजनाएं तैयार करनी चाहिए

खाड़ी देशों के आर्थिक आंकड़े तो बेहद आकर्षक हैं, लेकिन वहां तेल संपदा पर कुछ राजपरिवार ही काबिज हैं तो वहां हुआ विकास समावेशी नहीं है। इसलिए वृद्धि दर ही बड़ी उपलब्धि नहीं। विकास के समान वितरण प्रारूप में ही समाधान निहित है। नीति निर्माताओं को लोगों की आमदनी बढ़ाने वाली योजनाएं तैयार करनी होंगी। इससे पहले कि भारत में विषमता की खाई और चौड़ी हो जाए, देश को विकास के इस प्रारूप की ओर कदम बढ़ाने चाहिए। अगले आम चुनाव में स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, बिजली और महंगाई जैसे मुद्दों पर ही मोदी सरकार का आकलन होगा। यहीं चुनावी जीत की कुंजी होगी। बढ़िया आर्थिक मोर्चा राजनीति में लंबे समय तक टिकाए रख सकता है।

[ लेखक लोक नीति विशेषज्ञ हैं ]