विकास आज सबसे अधिक चर्चित शब्द है। प्राय: सभी लोगों को इसके बाह्य आकर्षण के प्रति आंदोलित हुए देखा जा सकता है। बड़ा व सुविधायुक्त घर, गाड़ी, आभूषण व विलासिता की अन्य वस्तुओं का संग्रह विकास के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। जबकि विकास का व्यावहारिक पक्ष अत्यन्त सादगीपरक व जीवन की मूलभूल आवश्यकताओं के उपभोग तक सीमित होना चाहिए। विकास की सत्यता को सद्गुणों, सद्विचारों पर चलने वाला ही समझ पाता है। प्रतिदिन मानवीय जीवन में एक नवीन व कल्याणकारी विचार को स्थान दिया जाए तो विकास है।

विचारकों का दृष्टिकोण विकास के प्रति सदैव संतुलित रहता है

शिक्षा के गुणसूत्र विद्यार्थी जीवन में भलीभांति प्रतिष्ठित होते हैं तो समाज को श्रेष्ठ विचारक मिलेंगे। विचारकों का दृष्टिकोण विकास के प्रति सदैव संतुलित रहता है। वे विकास को बढ़ाने वाले ज्ञान-विज्ञान के पक्षधर होते हैं। जहां ज्ञान-विज्ञान का विस्तार अभिशापित होना प्रारंभ हुआ, वहां विकास के वास्तविक विचारकों का अभाव होता है। विकास किसका होना चाहिए? वस्तुओं या उनका उपभोग करने की व्यवस्थाओं का या फिर वस्तु निर्माताओं, प्रयोक्ताओं के व्यक्तित्व का? अपने अस्तित्व के प्रादुर्भाव से ही मनुष्य अपनी विकास आकांक्षा के प्रति अतिजिज्ञासु रहा है। समझना यही है कि सबसे उपयुक्त व्यक्ति विकास को किस रूप में स्वीकार करता है? क्या वह अपने चारों ओर स्थूल सामग्रियों का अंबार लगाना चाहता है? या युगचक्र की गति के साथ-साथ अपने विचारों को भी बढ़ाना चाहता है? वास्तव में सामग्रियों की अधिकांश उपलब्धता और उनके अनुचित प्रयोग की मानवीय प्रवृत्ति को विकास धारणा के अंतर्गत शुमार नहीं किया जा सकता।

विकास व्यक्ति के विचारों का विस्तार है
सच तो यह है कि विकास व्यक्ति के विचारों का विस्तार है। व्यक्ति अपने जीवन में इतनी विचारशक्ति अर्जित करे कि वह जीवन की सहजता को आत्मसात करने योग्य हो सके। वह छोटे बच्चों को जीवन की इस विधा का अनुकरण करने की शिक्षा दे। विकास की आध्यात्मिक व्यवस्था मनुष्य को जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य तक पहुंचने में सबसे बड़ा कारक हो सकती है। इस व्यवस्था का प्रतिदिन उन्नयन होना चाहिए और इसमें लोककल्याण का वस्तु-प्रधान मार्ग हमेशा नियंत्रित हो। विकास मानवता में वृद्धि करनेवाला हो, न कि वस्तुओं में।


[ विकेश कुमार बडोला ]