चुनावों की चुनौती
बिहार विधानसभा चुनाव की सरगर्मियां जोरों पर हैं। किसी भी चुनाव की तारीख घोषित होने के साथ लगी आचार संहिता के बाद देश और जनहित के कल्याण के लिए जरूरी तमाम नीतियों और योजनाओं को लंबे अर्से के लिए ठंडे बस्ते में जाना पड़ता है। हर साल देश में औसतन
बिहार विधानसभा चुनाव की सरगर्मियां जोरों पर हैं। किसी भी चुनाव की तारीख घोषित होने के साथ लगी आचार संहिता के बाद देश और जनहित के कल्याण के लिए जरूरी तमाम नीतियों और योजनाओं को लंबे अर्से के लिए ठंडे बस्ते में जाना पड़ता है। हर साल देश में औसतन तीन-चार राज्यों के चुनाव होते हैं। ऐसा बहुत कम समय साल में निकल पाता है जब देश के किसी हिस्से में आचार संहिता न लगी हो। आचार संहिता लगने के चलते केवल रुटीन का ही काम हो पाता है। सरकार कोई नीतिगत फैसला नहीं ले पाती है। हमारे राजनीतिक दल भी हमेशा चुनाव की तैयारी में लगे रहते हैं। चुनाव से हटकर कोई विकास संबंधी सृजनात्मक सोच इनके एजेंडे में स्थान ही नहीं बना पाती है। मंत्री से लेकर संतरी तक सब चुनाव प्रचार में व्यस्त रहते हैं।
चुनाव बहुत खर्चीले और श्रम साध्य हो चुके हैं। सारे सरकारी कर्मचारियों और सुरक्षा एजेंसियों को चुनाव के बंदोबस्त में लगाना पड़ता है। लोकसभा चुनाव की बात अगर छो़ड़ दें तो 28 राज्यों के चुनाव ही काफी मशक्कत भरे होते हैं। शायद चुनाव के मद में सबसे ज्यादा खर्चने वाले हम दुनिया के शीर्ष देश होंगे। आज का मतदाता जागरूक है। वह अपने अच्छे-बुरे का निर्णय लेने में सक्षम है। लिहाजा जिस दल को वह लोकसभा के लिए चुनेगा निश्चित तौर पर उसी को वह राज्य में भी प्राथमिकता देगा। वह स्थानीय सरकार की अहमियत के साथ यह भी जानता है कि बिल पारित होने के लिए जितनी अहम लोकसभा है उतनी ही राज्यसभा। मतदाताओं की यह मानसिकता एक तरह से क्षेत्रवाद और उगाही की राजनीति पर भी अंकुश लगाने का काम करेगी।
देश के चहुंमुखी विकास में कोई रुकावट न आए, इसके लिए जरूरी है कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराए जाएं। ऐसा नहीं हैं कि यह अनोखा प्रयोग है। तमाम देशों में ऐसा सफलतापूर्वक किया जा रहा है और भारत में ही 1967 तक ऐसा होता आया है। कुछ समय पहले मुख्य चुनाव आयुक्त ने भी इस आशय का सुझाव दिया जिसपर सरकार गंभीरता से सोच भी रही है। इस क्रम में विधि एवं न्याय संबंधी राज्यसभा की स्थायी समिति द्वारा लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ कराने की संभावना पर विचार करने की प्रक्रिया जारी है। जो राज्य और राजनीतिक दल आमजन और राष्ट्रहित को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हैंं, निश्चित रूप से इस पर न केवल सकारात्मक रुख दिखाएंगे बल्कि इसे व्यवस्था में लागू कराने की कोशिश भी कराएंगे। ऐसे में विकासशील देश भारत के विकसित देश बनने के सपने को पूरा करने के लिए लोकसभा के साथ विधानसभाओं के चुनाव कराए जाने का विधान अपनाया जाना आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।
जनमत
क्या लोकतांत्रिक व्यवस्था में स्थिरता के लिए लोकसभा और विधानसभाओं के चळ्नाव एक साथ कराए जाने चाहिए?
हां 60%
नहीं 40%
क्या लोकतांत्रिक व्यवस्था में स्थिरता के लिए लोकसभा और राज्यसभा में दलीय संख्याबल के बीच सळ्संगति होनी चाहिए?
हां 70%
नहीं 30%
आपकी आवाज
उचित तो होता, यह संभव कैसे हो सकता है। सभी राज्यों की विधानसभाओं का कार्यकाल अलग-अलग समय पर पूरा होता है। -जवाहर लाल सिंह
हमें नहीं लगता कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होने चाहिए। क्योंकि अगर सरकार गिर गई तो फिर समस्या आ जाएगी। हां अगर कार्यकाल को न देखा जाए और चुनाव कराए जाएं तो ठीक है। - कौशल कुमार
क्या नहीं हो सकता। पुराना घिसा-पिटा कानून बदलने की जरूरत है। इस समय देश में सख्त कानून बनाने की आवश्यकता है। एक साथ चुनाव होंगे तो फर्जी वोट भी नहीं पड़ेंगे। - संजय गुप्ता
हां देश में विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एकसाथ कराए जाने चाहिए। - रामजी यादव
जी हां, लोकतांत्रिक व्यवस्था में स्थिरता के लिए लोकसभा और राज्यसभा में दलीय संख्याबल के बीच सुसंगति होनी चाहिए।-कौशल कुमार
जी, सुसंगति जरूर होनी चाहिए। - मोहिनी तिवारी
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