सीसैट के विवाद के संदर्भ में यह समझना जरूरी है कि यहां वास्तविक मुद्दा अंग्रेजी विरोध न होकर भारतीय भाषाओं के अधिकारों और उनके सम्मान के साथ-साथ राष्ट्रीय स्वाभिमान का है। इसके अतिरिक्त मुद्दा संवैधानिक और समाजशास्त्रीय भी है।

अंग्रेजी बोधगम्यता का घटक एक तो हमारे संविधान की मूल भावना, जो इसके प्रस्तावना में उल्लिखित है, के ही विपरीत है जिसमें समस्त नागरिकों को प्रतिष्ठा और अवसर की समानता के साथ-साथ सामाजिक न्याय दिलाने का उल्लेख है। देश के 80 फीसद से ज्यादा विद्यार्थी हिंदी और अन्य भारतीय भाषाई माध्यमों से सरकारी स्कूलों में शिक्षा पाते हैं और उनका अंग्रेजी ज्ञान वैसा नहीं होगा जो कि उच्चवर्गीय अंग्रेजी माध्यम स्कूलों के विद्यार्थियों का होता है। इसके अतिरिक्त वर्तमान स्थिति संविधान द्वारा प्रदत्त दो महत्वपूर्ण मूलभूत अधिकारों का भी उल्लंघन है। एक तो यह अनुच्छेद 14 में उल्लिखित समानता के अधिकार का ही हनन करता है। सुप्रीम कोर्ट ने 'मेनका गांधी बनाम भारत सरकार' और 'सेंट स्टीफेंस कॉलेज बनाम यूनिवर्सिटी ऑफ दिल्ली' जैसे कई केसों में इसको व्याख्यायित करते हुए स्पष्ट किया है कि एक समान परिस्थितियों वाले व्यक्तियों के अधिकारों और दायित्वों के संबंध में ही एक समान व्यवहार किया जाएगा। लेकिन जो समान नहीं हैं, उनके साथ समानता के व्यवहार का कोई अर्थ नहीं है। आवश्यक यह है कि उन लोगों के साथ उनकी असमानता की स्थिति को ध्यान में रख कर आचरण किया जाए और नीतियां बनाई जाए। भारतीय भाषाई माध्यमों में पढ़े और अंग्रेजी में शिक्षित विद्यार्थियों के असमान अंग्रेजी ज्ञान की स्थितियों के मद्देनजर अंग्रेजी का घटक सुप्रीम कोर्ट के उपरोक्त निर्देशों का खुला उल्लंघन है। इसी तरह वर्तमान प्रारूप अनुछेद 16 के द्वारा प्रदत्त मूलभूत अधिकार कि सभी नागरिकों को राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित विषयों में अवसर के समानता की गारंटी होगी, का भी उल्लंघन है। समाजशास्त्रीय दृष्टि से विचार करें तो किसी नए उद्योग के लिए आर्थिक पूंजी के अभाव अथवा मैनेजमेंट जैसे कोर्सो के लिए ऊंची फीस चुकाने की असमर्थता के हालात में सिविल सेवा निम्न मध्यम वर्गीय छात्रों के लिए ऊ‌र्ध्वगामी सामाजिक गतिशीलता का एक प्रमुख द्वार है। अंग्रेजी भाषा का अनुचित अवरोध का षड्यंत्र एक तनाव और संघर्ष को ही जन्म देगा। हालांकि सीसैट को सिरे से नकारना भी उचित नहीं है। तार्किक कौशल और विश्लेषण क्षमता जैसी योग्यताएं किसी भी लोक प्रशासक में होना जरूरी हैं। मानविकी के होशियार विद्यार्थी अन्य विषयों की तरह इसमें भी महारत हासिल कर सकते हैं, क्योंकि इसका संबंध भाषाई ज्ञान अथवा इंजीनियरिंग एवं विज्ञान की पढ़ाई से न होकर बुद्धिमता और प्रतिभा से है।

-डॉ निरंजन कुमार [सामाजिक-राजनीतिक विचारक]

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