भाजपा की खेमेबाजी
बिहार से पराजय का परिणाम आते ही भाजपा के बुजुर्ग नेताओं का मोदी पर सीधा और सार्वजनिक हमला करना अमर्यादित, अधीरता और अनुशासनहीनता का परिचायक है। ऐसा लगता है कि ये नेता अपनी ही पार्टी की पराजय की केवल प्रतीक्षा ही नहीं कर रहे थे, बल्कि उसकी प्रार्थना भी कर
बिहार से पराजय का परिणाम आते ही भाजपा के बुजुर्ग नेताओं का मोदी पर सीधा और सार्वजनिक हमला करना अमर्यादित, अधीरता और अनुशासनहीनता का परिचायक है। ऐसा लगता है कि ये नेता अपनी ही पार्टी की पराजय की केवल प्रतीक्षा ही नहीं कर रहे थे, बल्कि उसकी प्रार्थना भी कर रहे थे। उन्होंने इतना संयम भी नहीं रखा कि देश के प्रधानमंत्री विदेश जा रहे हैं, जहां पहले से ही भारत विरोधी संगठनों ने मोदी के विरुद्ध लामबंदी कर रखा है। मोदी की चुनावी रणनीति की आलोचना करने वालों में तीन अन्य सांसद भी शामिल हैं। स्थानीय होने के नाते इन सांसदों की शिकायतों को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। वे चुनाव के समय भी इसी तरह की शिकायतें कर रहे थे, जबकि भाजपा के बुजुर्ग नेताओं ने पूरे चुनाव में चुप्पी साध रखी थी। इससे साफ है कि वे परिणाम की प्रतीक्षा कर रहे थे। मोदी-शाह के कमजोर होने पर ही इन नेताओं को ऐसा अवसर मिला है। बुजुर्ग नेताओं के हमलों से भाजपा के भीतर की खतरनाक खेमेबाजी फिर से जगजाहिर हो गई है। लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के चलते यह सत्ता संघर्ष कुछ समय के लिए स्थगित अवश्य हुआ था, पर समाप्त नहीं।
एक साल के अंदर मिली इस दूसरी पराजय ने मोदी-मैजिक पर धब्बा जरूर लगाया है, लेकिन यह राष्ट्रीय राजनीति में मोदी की यात्र का अभी आरंभ ही है। उम्र और स्वास्थ्य मोदी के पक्ष में है। जनता से जुड़ने के लिए अभी उनके पास बहुत मौका है। भाजपा सिर्फ केंद्र में ही नहीं, राज्यों में भी सशक्त स्थिति में है। फिर ऐसा क्या हुआ जिस कारण इन बुजुर्ग नेताओं ने खुलेआम बगावत का बिगुल बजा दिया। इन नेताओं के पास सुझाव और शिकायत के लिए पार्टी का मंच था। वहां समाधान न होने पर वे लक्ष्मण रेखा पार कर सकते थे। इन नेताओं ने मोदी पर हमला करके गोवा कानक्लेव के पुराने घाव को फिर से हरा कर दिया है। उस समय एक तरह से भाजपा के पूरे राष्ट्रीय नेतृत्व ने मोदी को प्रचार समिति की कमान देने का विरोध किया था। इन नेताओं ने मोदी को इतने सामान्य पद के लायक भी नहीं समझा, जबकि उस समय तक मोदी को लेकर भाजपा के कार्यकर्ताओं और पूरे देश के मतदाताओं में जबर्दस्त उत्साह था। आज ये बुजुर्ग नेता एक प्रदेश के चुनाव में पराजय की समीक्षा की मांग कर रहे हैं। हालांकि इन बुजुर्ग नेताओं के नाम से 2004 और 2009 का लोकसभा चुनाव लड़ा गया तो पहली बार 44 सीटें कम हुईं और दूसरी बार 66 सीटें। मार्गदर्शक मंडल वाले इसी बुजुर्ग नेतृत्व ने उत्तर प्रदेश में भाजपा को 221 सीटों से गिराते-गिराते मार्च, 2012 में 40 विधानसभा सीटों पर पहुंचा दिया। इस स्थिति से निराश पार्टी कार्यकर्ताओं ने अंतत: मोदी को अपना नेता चुना। भाजपा को इसी विवशता में ‘अबकी बार भाजपा सरकार’ के नारे को बदलकर ‘अबकी बार मोदी सरकार’ करना पड़ा और मोदी ने इस सपने को साकार कर दिखाया।
बुजुर्ग नेताओं की अड़ंगेबाजी कोई अचरज बात नहीं है। भाजपा में व्यक्तिवादी विद्रोह की अटूट और असाधारण परंपरा रही है। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि इस पार्टी के कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, दिल्ली और झारखंड के मुख्यमंत्रियों ने न केवल विद्रोह किया, बल्कि इन सबने अपना अलग दल भी बनाया। गुजरात में तीन मुख्यमंत्रियों ने विद्रोह किया और उत्तर प्रदेश में एक मुख्यमंत्री ने दो बार विद्रोह किया। इनमें से अधिकांश बागी मुख्यमंत्री अपने अलग दलों की भारी पराजय के बाद भाजपा में वापस आए और फिर से बड़े पदों पर काबिज हो गए। गोवा कानक्लेव के समय आडवाणी ने अपने पत्र के माध्यम से पार्टी की किरकिरी कराई थी। एक समय आडवाणी ने बलराज मधोक को पार्टी से बाहर निकाला था, लेकिन अपने मामले में अनुशासन के आदर्श को कोई अहमियत नहीं दी। बुजुर्ग नेताओं की इसी अनुशासनहीनता के कारण ‘पार्टी विद डिफरेंस’ ‘पार्टी विद डिफरेंसेज’ बन गई है। मोदी के विरुद्ध विद्रोह शुरू होने का एक कारण यह है कि विद्रोहियों को मोदी की लोकप्रियता के तेजी से गिरने का संज्ञान हो चुका है। नि:संदेह मोदी अपने जनाधार से दूर हो रहे हैं। वंचित वर्ग राष्ट्रीय चुनावों में कांग्रेस का स्वाभाविक मतदाता रहता था, लेकिन मोदी की चाय बेचने वाले और पिछड़ी जाति की छवि से आकर्षित होकर यह वर्ग पहली बार भाजपा की ओर आया। इसी वजह से जिस भाजपा को जन्मभूमि आंदोलन के शिखर पर भी उत्तर प्रदेश में 1996 और 1998 में 52 और 57 सीटें मिली थीं उसे गत चुनाव में 71 सीटें मिलीं तथा सहयोगी दलों को दो और सीटें मिलीं। मोदी की रैलियों में आने वाले लाखों नौजवानों को आशा थी कि इस सरकार में रोजगार के नए रास्ते खुलेंगे। अभी तक इस सरकार ने इस मामले में कोई गंभीर पहल नहीं की है। इसी तरह मनरेगा और खाद्य सुरक्षा जैसे कार्यक्रमों को ‘गरीबी उन्मूलन उद्योग’ कहकर उपहास का पात्र बनाया गया, लेकिन उनके विकल्प के तौर पर कोई ठोस योजना पेश नहीं की गई। दुर्घटना और जीवन बीमा, पेंशन, जनधन खाता जैसी योजनाओं का स्तर भी बहुत छोटा है।
कुल मिलाकर मोदी के शुभचिंतकों को भी लगने लगा है कि यह सरकार सिर्फ डेढ़ साल में ही इंडिया शाइनिंग और फीलगुड वाले स्वप्नलोक में चली गई है। बिहार में भाजपा का पूरा प्रचार दिल्ली केंद्रित, हवाई और अभिजात्य अहंकार से ग्रस्त दिखा। बिहार को केंद्र से सहायता देने की घोषणा के तरीके में दंभी भाव दिख रहा था। मोदी को अब यह सबक सीखना होगा कि वह वंचित वर्ग और निम्न मध्यम वर्ग में अपनी साख फिर से वापस लौटाएं और मध्य वर्ग के पुराने आधार को भी मजबूत करें। दिल्ली और बिहार की पराजय का अर्थ यह है कि अब आने वाले चुनावों में मोदी को हारने के बाद मिलने वाली लाइफलाइन नहीं मिलेगी। मोदी ने राज्यसभा में ममता और मुलायम का समर्थन पाने के लिए बंगाल और उत्तर प्रदेश में भाजपा को निष्क्रिय कर दिया है। इन दोनों प्रदेशों में अचानक चुनाव के समय भाजपा को सक्रिय कर पाना संभव नहीं है। फिर इन दोनों प्रदेशों में भाजपा को क्षेत्रीय दलों से लड़ना है, कांग्रेस से नहीं। उत्तर प्रदेश में तो दो क्षेत्रीय दल हैं। मोदी-अमित शाह अपनी पूरी कार्यशैली का कायाकल्प करकेही इन चुनावों में कुछ अच्छा कर सकते हैं।
(लेखक लखनऊ विवि में राजनीति शास्त्र विभाग के अध्यक्ष हैं)






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