नीतीश कुमार और जीतन राम मांझी के बीच चल रहे टकराव से बिहार में संवैधानिक संकट खड़ा होते देख
रहे हैं ए.के. वर्मा
नीतीश कुमार की महत्वाकांक्षाओं और आगामी विधानसभा चुनावों के मद्देनजर चले गए चुनावी दांव-पेचों ने बिहार को एक अनावश्यक संवैधानिक संकट में धकेल दिया है। यह इसलिए और भी चिंता का विषय है, क्योंकि आगामी 20 फरवरी को बिहार विधानसभा का बजट सत्र शुरू होने जा रहा है और उस दिन बिहार के राज्यपाल केसरीनाथ त्रिपाठी विधानसभा और विधानपरिषद के संयुक्त अधिवेशन को संबोधित करेंगे। उनके अभिभाषण के ठीक बाद मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी को सदन में विश्वासमत हासिल करने का निर्देश राज्यपाल ने दिया है।

अतीत के अनुभवों से हम अनुमान लगा सकते हैं कि उस दिन सदन के अंदर कैसा हंगामा होने वाला है। एक संवैधानिक संकट तो मांझी सरकार द्वारा विश्वास मत पर मतदान के तरीके को लेकर है। क्या मुख्यमंत्री मांझी की मांग के अनुसार गुप्त मतदान होगा? दूसरा संकट वित्तीय वर्ष के लिए तैयार बजट और राज्यपाल के अभिभाषण को लेकर है। मांझी सरकार गिरने की स्थिति में राज्यपाल के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव का क्या होगा? क्या नई सरकार उसमें संशोधन करेगी या पुन: एक संयुक्त अधिवेशन बुला कर दोबारा अभिभाषण होगा?
संसद के दोनों सदनों और राज्यों की विधानसभाओं में प्रक्रियाओं को लेकर लगभग एक समान व्यवस्था है। ‘लोकसभा के प्रक्रिया तथा कार्य संचालन नियम 2014’ के द्वारा ही संसद के दोनों सदनों में मत-विभाजन की व्यवस्था है।

उसके अंतर्गत मत-विभाजन की जितनी भी विधियां बताई गई हैं उनमें कोई भी गुप्त मतदान की श्रेणी में नहीं आती, लेकिन नियम 367 (अअ) के अंतर्गत पर्ची से या नियम 367 ब के अंतर्गत लॉबी-विभाजन से सदस्यों को लगभग गुप्त मतदान जैसा ही माहौल मिल जाता है, क्योंकि दोनों स्थितियों में वे अन्य उपस्थित विधायकों को बिना दिखाए ही अपना मत दे सकते हैं। यद्यपि पर्चियों पर उनको हस्ताक्षर करने पड़ते हैं और अपना नंबर अंकित करना पड़ता है, जिसे सदन का अध्यक्ष सार्वजनिक नहीं करता। उसी तर्ज पर ‘बिहार विधानसभा की प्रक्रिया तथा नियमावली 2012’ में भी व्यवस्थाएं हैं। तो नियमत: मांझी की गुप्त मतदान की मांग तो मानना संभव नहीं।

इसके अलावा 1985 में पारित संविधान के 52वें संशोधन अर्थात दलबदल निरोधक कानून में यह व्यवस्था है कि सदन में प्रत्येक विधायक अपने ‘दलीय-सचेतक’ के निर्देश के अनुसार ही वोट करेगा। ऐसा न करने पर उसकी सदन की सदस्यता समाप्त हो जाएगी। अब यदि गुप्त मतदान होगा तो पता कैसे चलेगा कि सदस्यों ने अपने-अपने दलीय सचेतकों के निर्देशों के अनुरूप मतदान किया है या नहीं? अत: संविधान और संसदीय प्रक्रिया नियमों दोनों के अनुसार सदन के अंदर गुप्त मतदान हो ही नहीं सकता। संविधान बनाने वालों ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि संसद और विधानसभाओं में कभी ऐसी विषम परिस्थिति आएगी कि जनप्रतिनिधियों को उसमें स्वतंत्र मतदान देने में भय लगेगा। यह सब हमारी राजनीतिक संस्कृति में गिरावट का प्रतीक है।

दूसरी संवैधानिक समस्या राज्यपाल के अभिभाषण को लेकर होगी। राज्यपाल का अभिभाषण तो राज्य सरकार की नीतियों का एक स्वरूप प्रस्तुत करता है जिसे स्वयं सरकार ही तैयार करती है। यदि मांझी को विश्वास मत नहीं मिल पाता, जिसकी संभावना ज्यादा है, तो उस अभिभाषण का क्या होगा? नई नीतीश सरकार तो उसे लागू करने से रही। तो क्या राज्यपाल के अभिभाषण को संशोधित कर उस पर धन्यवाद प्रस्ताव पारित किया जाएगा? क्या इससे हम बिहार विधानसभा के हंगामेदार बजट सत्र का पूर्वानुमान नहीं लगा सकते? विगत अनेक वर्षों से कई राज्यों में राज्यपाल के अभिभाषण के अवसरों पर विधानसभाओं और राज्यपालों के पद की गरिमा तार-तार हुई हैं। नीतीश ने अपने स्वार्थ हेतु इस संभावना को बिहार में पुन: हवा दी है।

2005 में लालू यादव की त्रासदी से बिहार को मुक्त कर नीतीश ने बिहार में विकास और सुशासन की राजनीति शुरू की, लेकिन अचानक उन्होंने बिहार को भंवर में फंसा दिया। उन्होंने एक के बाद एक कई गलतियां कीं। लोकसभा 2014 के चुनावों के ठीक पहले उन्होंने भाजपा से रिश्ते तोड़कर बिहार में एक अच्छी सरकार को अचानक संकट में डाल सभी को हतप्रभ कर दिया, फिर लोकसभा चुनावों में करारी हार के बाद अप्रत्याशित रूप से मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देकर एक बिलकुल अनजाने चेहरे जीतन राम मांझी को अपने ‘रबर-स्टैम्प’ की तरह बिहार की जनता पर थोप दिया और अब उसी ‘रबर-स्टैम्प’ को अधिनायक की तर्ज पर हटा कर फिर स्वयं मुख्यमंत्री बनने की कोशिश की है।

नीतीश की बदहवासी कुछ समझ में नहीं आती। वह कौन सी राजनीति कर रहे हैं और क्यों? यह ठीक है कि मुख्यमंत्री मांझी अल्पमत में हैं, लेकिन संविधान अल्पमत या बहुमत के मुख्यमंत्री में कोई अंतर नहीं करता। और रही बात सदन में शक्ति-परिक्षण के लिए राज्यपाल द्वारा मांझी को कुछ समय देने की तो राज्यपाल एक संवैधानिक पद है जिसे राष्ट्रपति भी आदेशित नहीं कर सकते। जितनी शंका मांझी द्वारा दलबदल कराने की है, उतनी ही शंका इसकी भी हो सकती है कि नीतीश ने अपने प्रभाव और पैसे का प्रयोग कर 130 विधायकों को अपने पास बंधक बना रखा हो।

नीतीश ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को ठीक से परिभाषित नहीं किया। वह तो 2005 से ही बिहार के मुख्यमंत्री बने हुए थे। 2014 में शायद उनकी अभिलाषा प्रधानमंत्री बनने की हुई। यहीं से समस्या शुरू हो गई। इसके लिए उन्होंने अपनी मेहनत से कमाई छवि को खो दिया तथा उस लालू यादव का साथ ले लिया जिसे न्यायालय और लोग आज एक अपराधी के रूप में जानते हैं। इतना ही नहीं, बिहार में नीतीश ने सोशल इंजीनियरिंग के साथ-साथ एक पोलिटिकल इंजीनियरिंग भी की थी।

भाजपा के साथ मिलकर अगड़ी-पिछड़ी और दलित जातियों के अलावा मुस्लिम समुदाय को एकजुट करने का उनका सराहनीय प्रयास था जो भाजपा-जद (यू) को उस इंद्रधनुषीय सामाजिक गठबंधन की ओर ले जा रहा था जो उनके राजनीतिक गठबंधन को मजबूत बना सकता था, लेकिन भाजपा से रिश्ते तोड़ने की अपनी एक गलती से उन्होंने न केवल अगड़ी जातियों का समर्थन खो दिया, वरन मांझी प्रकरण से दलितों और महादलितों का भी समर्थन खो सकते हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने महादलितों को प्लेट में रख कर भाजपा को परोस दिया है। वर्तमान परिस्थितियों में इसका लाभ लेने से भाजपा को कोई रोक नहीं सकता। कुछ महीने बाद बिहार में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं।

ऐसे में नीतीश जैसे परिपक्व राजनीतिज्ञ को किसी विवाद और संकट से बचना चाहिए था। हो सकता है आगामी 20 तारीख को शक्ति परीक्षण में जीतकर नीतीश पुन: मुख्यमंत्री बन जाएं, पर क्या वह जनता के दिलों को भी जीत सकेंगे? क्या वह दलितों और महादलितों के दिलों में फिर वैसी ही पैठ बना सकेंगे? और क्या इसके लिए वह लालू यादव पर भरोसा कर सकते हैं? वही लालू जिनकी सत्ता छीन कर वह लगभग दस वर्षों तक मुख्यमंत्री रहे?
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)