रास्ते से भटकता एक नेक मकसद
जब से 'आइबी' नामक खुफिया एजेंसी की एक रिपोर्ट के हवाले से यह बात पता चली है कि विदेशी पैसे की मदद से काम करने वाले कई गैर सरकारी संगठन भारत के विकास को मंद करने और सामाजिक शांति को नष्ट करने में जुटे हैं, हड़कंप सा मच गया है। इस विषय में नई सरकार पर यह आरोप लगाना संभव नहीं कि वह अपने विपक्षियों को कठघरे
जब से 'आइबी' नामक खुफिया एजेंसी की एक रिपोर्ट के हवाले से यह बात पता चली है कि विदेशी पैसे की मदद से काम करने वाले कई गैर सरकारी संगठन भारत के विकास को मंद करने और सामाजिक शांति को नष्ट करने में जुटे हैं, हड़कंप सा मच गया है। इस विषय में नई सरकार पर यह आरोप लगाना संभव नहीं कि वह अपने विपक्षियों को कठघरे में खड़ा करने के लिए कोई साजिश रच रही है क्योंकि जिस जांच पड़ताल के आधार पर यह रिपोर्ट तैयार की गयी है वह कांग्रेस-संप्रग सरकार के कार्यकाल में ही निबटाई गयी है। इसी कारण इस वक्त दिग्विजय सिंह एवं राशिद अल्वी जैसे अति चतुर-मुखर अधिकृत प्रवक्ता भी बगलें झांकते नजर आ रहे हैं और मामले की नजाकत और गंभीरता को कुबूल कर रहे हैं।
हकीकत यह है कि पिछले दशकों में 'एनजीओ' का कारोबार बहुत तेजी से बढ़ा है। जनता के सबलीकरण और सत्ता के विकेन्द्रीकरण-हस्तांतरण के नाम पर सरकार ने खुद इनको बढ़ावा दिया है। इसे अपने आप में गलत नहीं कहा जा सकता। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की तरह अपनी इच्छानुसार किसी संगठन की सदस्यता हमारे बुनियादी अधिकारों की सूची में शामिल है। अपनी रुचि के अनुसार किसी भी स्वैच्छिक-गैर सरकारी संगठन से जुड़ना या उसके कामकाज में भाग लेना देशद्रोह या कोई दूसरा जुर्म नहीं समझा जा सकता। कई ऐसे गैर सरकारी संगठन हैं जिन्होंने समाज कल्याण एवं राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इन सभी के नाम गिनाने की जरूरत नहीं विवेकानंद द्वारा गठित रामकृष्ण मिशन और आजादी की लड़ाई के युग में स्थापित सर्वेट्स ऑफ इंडिया सोसायटी' से लेकर जाने कितने गैर सरकारी संगठन अपनी अलग पहचान बना चुके हैं। इस घड़ी चिंता इनके 'क्षय' या अवमूल्यन को लेकर नहीं।
जिन संगठनों का जिक्र हो रहा है उनमें 'ग्रीन पीस', 'ऑक्सफैम' तथा 'पीयूसीएल' प्रमुख हैं। आइबी की इस रिपोर्ट के पहले भी इनके बारे में आशंकाएं व्यक्त होती रही हैं। 'ग्रीन पीस' बहुराष्ट्रीय कंपनी की तरह काम करने वाली अपार साधनों से संपन्न संस्था है जिसकी गतिविधियां मुख्यत: पर्यावरण के संरक्षण पर केंद्रित हैं। समस्या यह है कि इसके तेवर शांतिपूर्ण संवाद वाले नहीं लड़ाकू मुठभेड़ वाले रहते हैं जो अक्सर हिंसक झड़पों का रूप लेते हैं। यह शक कई बार सार्वजनिक हुआ है कि ऊर्जा उद्योग से जुडे़ न्यस्त स्वार्थ आपसी प्रतिद्वंद्विताजनित संघर्ष की रणनीति के तहत इसका इस्तेमाल करते हैं। यह बात भी छिपी नहीं कि पर्यावरण के मुद्दे का इस्तेमाल विश्व व्यापार संगठन पर कब्जावर ताकतें विकासशील देशों के खिलाफ शुल्केतर बाधा के रूप में कुशलता से करती हैं। निश्चय ही बात सीधी और सरल नहीं। अनेक स्वदेशी पर्यावरण आंदोलनों के नेताओं को जिस मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया वह शीतयुद्ध के महारथी साम्यवाद विरोधी फिलीपींस के पूर्व राष्ट्रपति की स्मृति में स्थापित है जिनका खास नाता सामाजिक न्याय अथवा जनतंत्र से नहीं था। यह 'सम्मान' पत्रकारिता, जनसेवा आदि के क्षेत्र में भी दिया जाता है। यह मात्र संयोग नहीं समझा जा सकता कि 'विजेता' ज्यादातर वही प्रकट हुए हैं जो सरकार की नीतियों के मुखर विरोधी हों। हमारा मकसद इस एक पुरस्कार की आलोचना नहीं- हमारा रोना तो उस मानसिक गुलामी को ले कर है जिसके चलते हम 'अंतरराष्ट्रीय' सनद की नुमाइश करने वालों को सिर पर बैठा इसके नकदीकरण की खुली छूट दे देते हैं। जब ऐसा कोई व्यक्ति एनजीओ बनाता है तो वह सर्वव्याप्त अनौपचारिक वर्ण व्यवस्था के अनुसार सर्वश्रेष्ठ माना जाने लगता है। कहां से उसकी निधि आ रही है, खाते की पड़ताल होती है या नहीं, कहीं करों की छूट का दुरुपयोग तो नहीं हो रहा जैसे सवाल उठाने वाला मूर्ख समझा जाता है।
आपातकाल की समाप्ति के बाद से मानवाधिकारों की हिफाजत का दावा करने वाले एनजीओ की फसल तेजी से लहलहाई है। 'एमनेस्टी इंटरनेशनल' और 'एशिया वॉच' का अनुसरण करते 'पीयूसीएल' तथा 'पीयूडीआर' की सक्रियता बढ़ी है। इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि इनके हस्तक्षेप से एकाधिक बार उत्पीड़ितों को राहत मिली है और देर से ही सही न्यायिक प्रक्रिया हरकत में आई है परंतु यह भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि खूंखार आतंकवादियों ने बखूबी इनका इस्तेमाल रक्षा कवच के रूप में किया है। जिस तरह इन्होंने अपने निशाने चुने हैं उनको लेकर भी मन में तरह तरह के शक पैदा होते हैं। इन संगठनों का स्वरूप पेशेवर आंदोलन कारियों के जमावड़े लगने लगा है।
अंत मे इस बात की याद दिलाने की जरूरत बची रहती है कि इस चुनौती को इतना विस्फोटक बनाने में संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने बड़ा रोल अदा किया। इसमें शामिल सलाहकारों में अति वामपंथी विचारधारा के साथ सहानुभूति रखने वाले पूर्व नौकरशाह भी थे और सक्रिय नक्सली समर्थक भी। इस मंडली की महत्वाकांक्षा समानांतर सरकार चलाने की या नीतियों का विकल्प प्रस्तुत करना नहीं वरन गैर जिम्मेदार तरीके से असंतोष तथा अराजकता की मानसिकता को पनपाना ही कहा जा सकता है।
श्रीमती इंदिरा गांधी की जब भी आलोचना होती या उनकी कोई असफलता सामने आती थी तो वह इसके लिए विदेशी हाथ को जिम्मेदार ठहराती थी। इसके लिए उनकी खिल्ली भी उड़ाई गयी। पर यह यह ना भूलें कि तानाशाही वंशवादी संस्कार के साथ साथ उनका देशप्रेम असंदिग्ध था। उनकी शंका बेबुनियाद नहीं थी। इस दुखद सच से कतराया नहीं जा सकता कि अमेरिका और उसके पिछलग्गू पश्चिमी देशों के सामरिक हितों के अनुसार सक्रिय विदेशी गैर सरकारी संगठन भारत के राजनीतिक तथा आर्थिक जीवन में नाजायज हस्तक्षेप के लिए देशी एनजीओ बेहिचक इस्तेमाल करते हैं। इनके तमाम प्रतिरोध स्वत: स्फूर्त नहीं आयातित लगते हैं। एनजीओ की दुनिया में आमदनी और खर्च की पड़ताल टाली नहीं जानी चाहिए। एहतियात यह जरूरी है कि निर्दोष ईमानदार एनजीओ दलगत पक्षधरता के चलते गेहूं के साथ घुन की तरह ना पिस जाएं!
-प्रो पुष्पेश पंत [स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज, जेएनयू]
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