गड़बड़ियों की शिक्षा
कई मामलों में अमेरिका हमारा आदर्श बन गया है। शिक्षा में भी इसीलिए हम यूरोप को छोड़कर अमेरिकी पद्धति क ...और पढ़ें

कई मामलों में अमेरिका हमारा आदर्श बन गया है। शिक्षा में भी इसीलिए हम यूरोप को छोड़कर अमेरिकी पद्धति की ओर चले गए हैं। यह अनुकरण कितना लाभकारी या हानिकर है, इसे स्वयं अमेरिकी चिंतकों के अनुभवों से जान सकते हैं। मगर यहां शायद ही किसी को इसके लिए अवकाश है। अमेरिकी अनुभव ही रेखांकित करते हैं कि शिक्षा को रोजगार मात्र से जोड़ना भारी भूल है। भरपूर रोजगार, आर्थिक-तकनीकी-व्यापारिक उन्नति के बावजूद व्यक्ति और समाज दिग्भ्रमित, क्षुब्ध, समस्याग्रस्त, निरुपाय से होते जाएंगे। यह हानि गलत शिक्षा यानी अशिक्षा का ही परिणाम होती है। इसलिए, समय रहते हमें अपनी शिक्षा-चिंताओं में सुधार करना चाहिए। इसकेलिए एक कामचलाऊ रास्ता ज्ञान और विज्ञान के बीच संतुलन रखना हो सकता है। युवाओं को रोजगार की जरूरत है, किंतु उससे पहले उन्हें मनुष्य बनना जरूरी है। स्वास्थ्य, जीवन, परिवार, समाज, मानवीय मूल्य, प्रकृति और विश्व की समझ ही ज्ञान है। तकनीकी विज्ञान और रोजगार का प्रशिक्षण बाद की वस्तु है। इसके प्रति नासमझी ही सारी शिक्षा को विकृत कर उसे पूर्ण अशिक्षा में बदल रही है। जैसे भी हो, धनार्जन के मंत्र ने शिक्षा को ही पदच्युत कर दिया है। फलत: स्वयं रोजगारी प्रशिक्षण भी विचित्र रूप से संकीर्ण है।
उदाहरणार्थ सारे बच्चे तो इंजीनियर, व्यवसायी, बैंकर नहीं बनेंगे। तब शेष की शिक्षा का क्या हो रहा है? आम पाठ्यक्त्रम में विषय ऐसे संयोजित हैं जो केवल इंजीनियर, डॉक्टर, व्यापारी आदि बनने की तैयारी के संकेत हैं। तो क्या हमें किसान, लिपिक, सैनिक, ड्राइवर, रसोइये, लेखक-चिंतक आदि नहीं चाहिए। यदि चाहिए तो उनकी रोजगार-तैयारी शिक्षा क्या वही है जो इंजीनियर बनने की ओर बढ़ने वाले की है? फिर सेंट्रल बोर्ड ऑफ स्कूल एक्जामिनेशन से जुड़ने की शर्त में अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा अनिवार्य है। अत: देश भर के स्कूल दिनों-दिन सीबीएसई से जुड़ने की इच्छा से मातृभाषा में पढ़ाई को नष्ट-प्राय कर रहे हैं। इससे नई पीढ़ी का भाषा-ज्ञान बुरी तरह प्रभावित हुआ है। अपने देश के साहित्य-संस्कृति से उनका परिचय तक टूटता जा रहा है। यह भयावह स्थिति पूर्ण अशिक्षा ही है। इसका दूसरा प्रमाण यह भी है कि किसी को नहीं दिख रहा कि किसी केंद्रीय सरकारी संस्था का मात्र अंग्रेजी में चलना भाषा-नीति का उल्लंघन ही नहीं, इसका खुला संकेत है कि मुख्य भाषा विदेशी है। यह असंवैधानिक और समाज-घाती कार्रवाई कैसे चल रही है? शिक्षा के अर्थ को एक बार विकृत कर लेने के बाद फिर अंतहीन गड़बड़ियों की कोई सीमा नहीं रह जाती।
हमारी परीक्षा-प्रणाली पढ़ने-जानने-सोचने के बजाए नंबर लाने की तरकीब खोजने को प्रेरित करती है। परीक्षा में ढर्रा होना ही उसे विफल कर देता है। इसका खुला प्रमाण यह भी है कि कथित पाठ्य-पुस्तकों को एक बार भी देखे बिना परीक्षार्थी मजे से परीक्षाएं पास कर सकते हैं। विविध गाइड, हेल्प-बुक, आदि के सहारे यह होता है। फिर टिक लगाने जैसी परीक्षाओं के चलते छात्रों की अभिव्यक्ति, भाषाई क्षमता के साथ जो विध्वंस हुआ है वह अलग करुण कथा है। पाठ्य-सामग्री के चयन में अपने भाषा-साहित्य की सर्वश्रेष्ठ पुस्तकों को प्रमुख स्थान देना चाहिए। उन्हें तैयार करने में सर्वोत्तम शिक्षकों की भूमिका मुख्य हो। हमारे राज्यों में पाठ्य-पुस्तकें नहीं, बल्कि पाठ्यक्रम एक रहे। तदनुरूप विभिन्न उत्कृष्ट पाठ्य-पुस्तकें तैयार करने को प्रोत्साहन मिले। इस प्रतियोगी भावना में उनकी गुणवत्ता में सुधार हो सकता है। यदि परीक्षा-प्रणाली यांत्रिकता से मुक्त हो तब एक पाठ्यक्रम की विभिन्न पुस्तकें शिक्षा और मूल्यांकन में कठिनाई पैदा नहीं करेंगी। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि शिक्षकों के चयन, नियुक्तियों के भी सही मानदंड बनें। शिक्षक कम भी हों, मगर अच्छे, निष्ठावान ही हों। शिक्षा का स्तर संभालने में यह बुनियादी बिंदु है। शिक्षा में छोटी बड़ी सभी नियुक्तियों तक वही गंभीरता रहे, जैसे राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी विषयों में रहती है। दोनों का एक जैसा बुनियादी महत्व है। उसी से जुड़ी बात है कि निजी स्कूल खोलने में व्यापार-उद्योग चलाने सी प्रवृत्ति पर रोक लगनी चाहिए। शिक्षा (और चिकित्सा भी) ऐसा क्षेत्र है जिसे केवल मुनाफे का व्यवसाय समझना गलत है। इस पर समाज व सरकार को कड़ी नजर रखनी चाहिए। मात्र पैसा बनाने की चाह रखने वालों को इस क्षेत्र में आने से हतोत्साहित करें। अभी जो स्थिति है उसमें लोग असहाय नजर आते हैं। निजी स्कूलों के प्रबंधन की मनमानियां लोग झेलते रहते हैं। न्यायालयों को हस्तक्षेप करना पड़ता है। यह सब इसीलिए हो रहा है, क्योंकि सरकार ने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई। सरकारी शिक्षा दस्तावेजों में खोखली लफ्फाजियों का भंडार दिखेगा, जबकि ऐसी वास्तविक समस्याओं पर विराट मौन, जैसे ये सब अस्तित्वहीन हों।
शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमों, पाठ्यचर्या में सुधार भी जरूरी बिंदु है। शिक्षक बनने के लिए उत्साही तथा सेवा-भाव के रुझान के युवाओं का ही चयन हो। तब उन्हें उपयुक्त प्रशिक्षण मिले, जो यांत्रिक नहीं, बल्कि रचनात्मक हो। एक समस्या यह भी है कि विश्वविद्यालयों की भूमिका नष्ट हो गई है। वे नौकरी तैयारी केंद्र बन चुके हैं। इसीलिए केवल विज्ञान-तकनीक विषयों की उन्नति पर ध्यान है। भाषा, समाज, चिंतन को पूरी तरह भुला दिया गया है। यह अपंगता लगभग स्थापित हो गई है। अच्छी भाषा लिखना-बोलना, उत्कृष्ट साहित्य पढ़ा होना तथा पढ़ने में रुचि रखना-यह सब दुर्लभ हो गए हैं। विश्वविद्यालय नियुक्तियों की प्रक्रिया तथा भाषा, साहित्य, समाज विज्ञान, मानविकी विषयों में विभागों की भी कड़ी समीक्षा हो। कई जगह तो शुद्ध राजनीतिक गतिविधियां ही मुख्य कार्य हो गई हैं। विश्वविद्यालयों में नक्सली गतिविधियों में लिप्त प्राध्यापक पकड़े गए हैं। मगर दूसरे धंधों में लगे प्रोफेसरों की संख्या भी कम नहीं है। वे शिक्षा की हानि ही नहीं, बल्कि समाज के लिए भी हानिकारक या निरर्थक कामों में लगे रहते हैं। इसके लिए विश्वविद्यालयों की कुर्सियां उपलब्ध रहना बंद होना चाहिए।
[लेखक एस. शंकर, वरिष्ठ स्तंभकार हैं]

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