वियतनाम से नजदीकी
वियतनाम के प्रधानमंत्री नुएन तन जुंग की हालिया यात्रा और नरेंद्र मोदी के साथ शिखर वार्ता 1990 के दशक
वियतनाम के प्रधानमंत्री नुएन तन जुंग की हालिया यात्रा और नरेंद्र मोदी के साथ शिखर वार्ता 1990 के दशक के शुरू में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव द्वारा शुरू की गई लुक ईस्ट नीति के सामरिक महत्व पर ध्यान आकर्षित करती हैं। भारत के साथ वियतनाम के तब से विशेष संबंध हैं जब यह देश दो भागों में बंटा हुआ था और उत्तार वियतनाम की राजधानी हनोई को भारतीय सरकार व समाज की ओर से सहानुभूति और सम्मान मिलता था। यह शीत युद्ध का दौर था, जब अमेरिका पूरे जोर-शोर से कम्युनिस्ट विरोधी प्रचार में जुटा हुआ था और एशिया में इसकी गूंज थी। उत्तारी वियतनाम के गुरिल्ला नेता हो ची-मिन्ह और उनके साथियों ने वियतनाम युद्ध के समय अमेरिकी सैन्य हमले का डटकर सामना किया। यह युद्ध 1954 से 1975 तक चला। बाद के वषरें में 1979 में चीनी सेना की चुनौतियों का भी वियतनाम ने डटकर सामना किया। यदि हम इसे सामरिक संदर्भ में देखें तो यह दावे से कहा जा सकता है कि वियतनाम दुनिया का एकमात्र देश है जिसने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में वीटो पावर रखने वाले पांच स्थायी सदस्य देशों में से तीन देशों को सैन्य हमलों में मात देने के साथ ही सफलतापूर्वक उनका राजनीतिक प्रतिकार भी किया। यह तीन देश क्रमश: पूर्व औपनिवेशिक शक्ति रखने वाला फ्रांस, अमेरिका और चीन हैं। यह वियतनाम की अपनी एक अलग विशेषता है, जो उसकी राष्ट्रीयता का एक महत्वपूर्ण तत्व है। इससे हमें वियतनाम की सामरिक संस्कृति का भी पता चलता है। उत्तारी और दक्षिणी वियतनाम जुलाई 1976 और जुलाई 1995 में औपचारिक तौर पर फिर से एकजुट हुए। इस प्रकार वियतनाम को आसियान समूह में सातवें सदस्य के तौर पर शामिल हुआ। पूर्व में हनोई ने अमेरिकी साम्राज्य की दासता स्वीकार करने से इन्कार कर दिया था।
शीतयुद्ध के बाद भारत ने लुक ईस्ट नीति पर अमल शुरू किया, लेकिन अन्य तमाम वजहों से वियतनाम वह महत्व नहीं हासिल कर सका जैसा कि अब दिख रहा है। पिछले दशक में वियतनाम के साथ भारत के द्विपक्षीय रिश्तों में धीमी गति से मजबूती आनी शुरू हुई, लेकिन यह सदैव ही कुछ हिचक और झिझक के साथ एक दायरे तक सीमित रही। चीन के मद्देनजर भारतीय हितों के लिहाज से आज दोनों देशों के बीच संबंधों का विस्तार हुआ है। दक्षिण चीन सागर विवाद के चलते दक्षिण पूर्व एशियाई क्षेत्र इस समय काफी संवेदनशील हो गया है। दक्षिण चीन सागर में तीन क्षेत्रीय देशों वियतनाम, फिलीपींस और इंडोनेशिया के भूभागों को लेकर बीजिंग द्वारा दावा किया जा रहा है। इस मुद्दे पर चीन के लगातार मुखर और आक्रामक होते रुख को देखते हुए वैश्रि्वक समुदाय भी खुद को असहज पा रहा है, लेकिन चीनी नौसेना की शक्ति को देखते हुए कोई भी उसका ताकत के साथ विरोध कर पाने की स्थिति में नहीं है। इस क्षेत्र में अमेरिका एक प्रमुख राजनीतिक और सैन्य शक्ति है, लेकिन इस मामले में सीधे-सीधे शामिल होने से वह भी कतरा रहा है। अमेरिका सभी पक्षों से अंतरराष्ट्रीय कानून का आदर करने को कह रहा है। भारत भी इस मसले के शांतिपूर्ण समाधान के पक्ष में है।
भारत वियतनाम के साथ इस क्षेत्र में हाइड्रोकार्बन खोज गतिविधियों में शामिल है। वियतनाम के साथ धीरे-धीरे भारत के बढ़ते सहयोगी रिश्तों पर बीजिंग को आपत्तिहै और इसके लिए वह गुस्सा भी दिखा रहा है। संप्रग के शासनकाल में दिल्ली ने सावधानी बरतते हुए इस मामले में संतुलन बनाए रखा। पिछले कुछ महीनों में स्थिति में बदलाव आया है और राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के साथ-साथ विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का वियतनाम में स्वागत किया गया। इस तरह अब यह साफ हो चुका है कि दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय रिश्ते राजनीतिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण हो गए हैं। मोदी सरकार ने अब इसके संकेत दे दिए हैं कि दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय रिश्ते समुद्री सुरक्षा के लिहाज से अधिक मजबूत हैं। वियतनामी प्रधानमंत्री की यात्रा के बाद संयुक्त घोषणा में कहा गया कि रक्षा सहयोग के मामले में प्रगति संतोषजनक रही है। इसके साथ ही यह उम्मीद भी जताई गई है कि भारत और वियतनाम के बीच रक्षा और सुरक्षा सहयोग को भविष्य में और अधिक मजबूत बनाया जाएगा। मोदी ने भी कहा कि वियतनाम के साथ हमारा रक्षा सहयोग हमारे लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। भारत वियतनाम के रक्षा और सुरक्षा बलों के आधुनिकीकरण के लिए प्रतिबद्ध है। इसके तहत प्रशिक्षण कार्यक्त्रमों का विस्तार शामिल है। दोनों देशों के बीच संयुक्त युद्धाभ्यास के साथ-साथ रक्षा उपकरणों के आदान-प्रदान के मामले में भी सहयोग जारी रहेगा। इसके लिए शीघ्र ही 10 करोड़ डॉलर का कर्ज दिया जाएगा ताकि वियतनाम भारत से नए नौसैनिक जहाज खरीद सके। इसके अतिरिक्त सुरक्षा सहयोग का विस्तार किया जाएगा, जिसमें आतंकवाद का प्रतिरोध भी शामिल है। इसी तरह सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण अंतरिक्ष मामलों में भी दोनों देशों के बीच सहयोग स्थापित करने पर जोर दिया गया, जिसमें वियतनाम के लिए उपग्रह के प्रक्षेपण के साथ-साथ शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए नागरिक परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में भी सहयोग किया जाएगा।
चीनी विदेश मंत्रालय ने भारत को चेताते हुए उसे वियतनाम के साथ विवाद के मामले से दूर रहने को कहा है। चीन ने दक्षिण चीन सागर में तेल के खोज कार्य के लिए भारत को आमंत्रित किए जाने के लिए हनोई के फैसले का विरोध किया है। जापान की यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने कुछ देशों की विस्तारवादी नीतियों का उल्लेख किया था। उनका इशारा चीन की तरफ था, लेकिन उन्होंने सीधे-सीधे उसका नाम नहीं लिया था। वियतनाम को ब्रह्मोस क्रूज मिसाइल देने के निर्णय से भारत-चीन संबंधों पर प्रभाव पड़ेगा। इसी माह प्रधानमंत्री मोदी 10 दिवसीय विदेशी दौर पर जा रहे हैं जिसमें वह म्यांमार, ऑस्ट्रेलिया और फिजी जाएंगे। म्यांमार में उनका कार्यक्रम ईस्ट एशिया समिट में भाग लेना है। स्पष्ट है कि भारत के लिए पूरब महत्वपूर्ण बना रहेगा। जी-20 के नेता ब्रिस्बेन में शिखर बैठक में शिरकत करेंगे, जिसमें भारत-वियतनाम संबंधों पर सबकी निगाहें होंगी, जबकि चीन के अपने पड़ोसी देशों के साथ टकराव पर सभी को चिंता है।
[लेखक सी. उदयभास्कर, सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं]
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