परिवार हटाओ-पार्टी बचाओ
जब हर तरफ मोदी लहर-प्रभाव-जादू का जोर हो तो फिर इस पर कम ही ध्यान जाता है कि जो पराजित-पस्त होने के
जब हर तरफ मोदी लहर-प्रभाव-जादू का जोर हो तो फिर इस पर कम ही ध्यान जाता है कि जो पराजित-पस्त होने के साथ प्रतिकूल परिस्थितियों से दो-चार हैं उनका क्या होगा? हरियाणा-महाराष्ट्र के चुनाव परिणाम वाले दिन कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी आंध्र प्रदेश में हुदहुद तूफान से हुई तबाही का जायजा ले रहे थे। संभव है कि वह शीघ्र ही हालिया चुनावी तूफान से तबाह हुई अपनी पार्टी का भी जायजा लें। यह वही बता सकते हैं कि वह पहले लोकसभा चुनाव और फिर हरियाणा-महाराष्ट्र चुनाव के समय आई मोदी लहर-अमित शाह के शब्दों में सुनामी-से डगमगाई कांग्रेस की नैया किस तरह खेएंगे? हो सकता है कि उनके पास कोई बेहतर रणनीति हो, लेकिन इसमें दोराय नहीं हो सकती कि जब कांग्रेस रूपी नौका में छिद्र होते जा रहे हैं तब उनके हाथ में पतवार भी नहीं दिखाई दे रही है। हरियाणा-महाराष्ट्र के बाद झारखंड और जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव होने हैं। इन दोनों राज्यों में कांग्रेस कुछ बेहतर कर पाएगी, इसमें संदेह है। जम्मू-कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस की राहें अलग हो चुकी हैं। झारखंड में कांग्र्रेस झारखंड मुक्ति मोर्चा सरकार में कनिष्ठ सहयोगी है। अपना दिल बहलाने और अपने समर्थकों में जोश भरने के लिए कांग्रेस यह कह सकती है कि वह जम्मू-कश्मीर और झारखंड समेत 11 राच्यों में सत्ता में है, लेकिन कर्नाटक और केरल को छोड़ दें तो शेष सात अन्य राच्य राजनीतिक तौर पर कोई खास अहमियत नहीं रखते। उत्ताराखंड, हिमाचल, असम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और मेघालय में कांग्रेस का सत्ता में होना यह भी बताता है कि वह कमजोर होने के साथ सिमटती भी जा रही है। इसकी पुष्टि इससे भी होती है कि उपरोक्त 11 राच्यों में लोकसभा की कुल सीटें 110 से भी कम हैं। स्पष्ट है कि आज के दिन कांग्रेस का भविष्य स्याह नजर आता है और कोई चमत्कार ही उसे अगले आम चुनाव में 44 से आगे 100 के पार ले जा सकता है।
अगर कांग्रेस की ओर से यह तर्क दिया जाता है कि एक समय भाजपा ने भी लोकसभा में दो ही सीटें पाई थीं तो मौजूदा हालात में वह बहुत मजबूत नहीं कहा आएगा, क्योंकि भाजपा ने समय के साथ न केवल खुद को बदला, बल्कि उसका नेतृत्व भी बदलता गया। हो सकता है कि कांग्रेस भी खुद को बदलने की कोशिश करे, लेकिन इसके आसार दूर-दूर तक नहीं कि उसका नेतृत्व भी बदलेगा। कांग्रेसियों के लिए राहुल गांधी अभी भी पार्टी के सबसे बड़े नेता हैं। कांग्रेसजन यह देखने से इन्कार कर रहे हैं कि जिन्हें वह अपना खेवनहार-तारणहार कह रहे हैं उनके हाथ में पतवार ही नहीं दिखती। वह शायद पतवार चलाना भी नहीं जानते। चूंकि राहुल गांधी युवा हैं इसलिए उनकी तुलना अन्य युवा नेताओं से होना स्वाभाविक है, लेकिन यह देखना दयनीय है कि उनकी तुलना पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के उन बचकाने बिलावल भुट्टो से भी हो रही है जो अपनी राजनीतिक नासमझी के कारण इन दिनों हंसी का पात्र बने हुए हैं। राहुल न केवल च्वलंत मसलों पर मौन रहते हैं, बल्कि देश और खुद अपनी पार्टी के गाढ़े वक्त में अदृश्य भी दिखते हैं। जब कभी वह बोलते भी हैं तो या तो विवाद खड़ा हो जाता है या उनका कहा हुआ मजाक का विषय बन जाता है। वह यदा-कदा राजनीतिक रूप से परिपक्व होने के संकेत देते हैं, लेकिन जल्द ही ऐसा कुछ कह या कर गुजरते हैं कि सारी उम्मीदें ध्वस्त हो जाती हैं और फिर एक से गिनती गिनने की नौबत आ जाती है। नि:संदेह उनके पास राजनीति, समाज और शासन में सुधार के लिए कुछ विचार दिखते हैं, लेकिन शायद वे व्यावहारिक नहीं हैं या फिर कांग्रेस में उन्हें लागू ही नहीं किया जा सकता। पता नहीं क्यों उनके रुख-रवैये से यही लगता है कि राजनीति उनके वश की नहीं।
कांग्रेस की समस्या यह है उसे एकजुट रखने के लिए गांधी परिवार चाहिए, लेकिन इस तथ्य का दूसरा पहलू यह है कि गांधी परिवार अब आम जनता को प्रेरित-आकर्षित करने की क्षमता खो चुका है। आज के भारत में वह पीढ़ी मुश्किल से नजर आती है जो कांग्रेस को सिर्फ इसलिए वोट देना पसंद करे, क्योंकि उसका नेतृत्व सोनिया-राहुल कर रहे हैं। कुछ प्रचार प्रिय कांग्रेसी जब-तब प्रियंका लाओ पार्टी बचाओ का नारा लगाते रहते हैं। ऐसे कांगेसजन जितनी जल्दी यह समझ लें तो बेहतर है कि प्रियंका गांधी राहुल के मुकाबले बस थोड़ी च्यादा भीड़ बटोरने और मीडिया में कुछ अतिरिक्त स्थान पाने में ही समर्थ हो सकती हैं। उनके साथ एक समस्या यह भी है कि वह गांधी के साथ वाड्रा भी हैं और वाड्रा के बारे में कुछ न कहना-लिखना ही बेहतर है। कुछ कांग्रेसजन ऐसे भी हैं जो यह जताते रहते हैं कि अगर सोनिया गांधी पूरी तौर पर सक्रिय होतीं और राहुल के बजाय खुद सारे फैसले ले रही होतीं तो आज हालात दूसरे होते। यह भी एक बड़ा मुगालता है। कांग्रेस का तो बेड़ा ही इसलिए गर्क हुआ, क्योंकि सोनिया गांधी निष्कि्त्रय और निष्प्रभावी मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद पर बैठाए रहीं। यदि सोनिया गांधी मनमोहन सिंह के नाकाम नेतृत्व को लेकर मूकदर्शक नहीं बनी रहतीं तो जनता कांग्रेस से इतनी आजिज नहीं आई हुई होती।
बेहतर हो कि कांग्रेसजन परिवार से परे भी कुछ सोचें। और भी बेहतर होगा कि कांग्रेस में भी भाजपा की तरह कोई मार्गदर्शक मंडल बने। सोनिया-राहुल-प्रियंका भाजपा सरीखे कांग्रेसी मार्गदर्शक मंडल के लिए सबसे मुफीद हैं। कांग्रेस में जनाधार वाले काबिल नेताओं की कमी नहीं, लेकिन अभी उनकी आधी से च्यादा ऊर्जा राहुल गांधी के प्रति निष्ठा जताने और उनके बेढब बयानों को भी सही करार देने में खप जाती है। इससे परिवार का तो हित सध सकता है, पार्टी का नहीं। नरेंद्र मोदी के गुजरात से निकलकर राष्ट्रीय पटल पर छा जाने के बाद कांग्र्रेस को दीवार पर लिखी यह इबारत अच्छे से पढ़नी चाहिए कि अब देश की जनता उसके साथ खड़ी होगी जो कुछ करके दिखाने में समर्थ होगा और अपने कामों से भरोसा पैदा करेगा।
[लेखक राजीव सचान, दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं]
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