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    नतीजों की विचित्र व्याख्या

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    Updated: Fri, 19 Sep 2014 06:10 AM (IST)

    संसार कार्य कारण की श्रृंखला है। यहां हरेक घटना का कारण होता है। कारण भी अकारण नहीं होता। देश, काल, परिस्थिति के अनुसार ही कारण की व्याख्या की जानी चाहिए। देश में लोकसभा व विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुए। इसके भी कारण थे। इन उपचुनावों के मिले-जुले नतीजे आए। इसके भी ठोस कारण हैं। जनतंत्र में मतदाता सम्राट होते हैं। लोकसभा चुनावों में उनके सामने भारत एक अखंड इकाई होता है। वे देश का विचार करते हैं। दलों के कामकाज देखते हैं, तद्नुसार वोट देते हैं। विधानसभा उपचुनावों में केवल निर्वाचन क्षेत्र ही विचारणीय मुद्दा होता है। उपचुनाव के नतीजों से केंद्र या रय की सरकारों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। सो मतदाता स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार वोट देते हैं, लेकिन राजनीतिक विवेचकों और भाजपा विरोधी दलों ने चुनाव नतीजों को भाजपा प्रभाव का खात्मा बताया है। उन्होंने स्थानीयता के प्रभाव को जानबूझकर नजरंदाज किया है। उनकी मानें तो चुनाव परिणाम मोदी सरकार के खिलाफ हैं और केंद्र सरकार अल्पमत में हो गई है। ऐसी व्याख्याएं हद दर्जे तक दयनीय हैं।

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    मोदी ने अपनी सरकार के लगभग चार माह ही पूरे किए हैं। राष्ट्रीय हताशा विदा हुई है, आशावाद और उत्साह बढ़ा है। मुद्रास्फीति घटी है। रुपये की कीमत मजबूत हुई है। विदेश नीति की प्रशंसा हो रही है। जन-धन योजना को लेकर उत्साह है। सरकारी कार्य संस्कृति बदल गई है। उत्तार प्रदेश में सपा को बढ़त मिली है। भाजपा अपनी 7 विधानसभा सीटें हार गई है। भाजपा को झटका लगा है। सपा स्वाभाविक ही खुश है, लेकिन मूलभूत प्रश्न यह है कि यदि चुनाव परिणाम मोदी सरकार के विरुद्ध हैं और सपा सरकार के पक्ष में हैं तो क्या मतदाताओं ने राज्य की अराजकता, ध्वस्त विद्युत आपूर्ति, किसानों की बदहाली और प्रशासनिक तंत्र की विफलता के पक्ष में वोट दिया है और मोदी सरकार के कायरें व आशावादी माहौल के बावजूद सभी मोचरें पर असफल सपा सरकार को विजयी बनाया है। ऐसा निष्कर्ष मतदाताओं के विवेक का अपमान होगा। चुनाव नतीजों को मोदी सरकार के कामकाज से जोड़ना अन्याय है। भाजपा विरोधी दल और वरिष्ठ नेता भी ऐसी ही टिप्पणियां कर रहे हैं। भाजपा असम में बढ़ी है। पश्चिम बंगाल में भी उसने एक सीट जीती है। यह बड़ी उपलब्धि है। निराश हताश और पराजित कांग्रेस को भी आशावाद मिला है। गुजरात और राजस्थान में कांग्रेस को जीने लायक आशावाद मिला है।

    मतदाताओं ने किसी भी दल को पुरस्कृत या उपकृत नहीं किया और न ही किसी दल को तिरस्कृत। यहां समूचे दलतंत्र को संदेश है कि जनहित की सोचो। मतदाताओं का संदेश सुनो, गुनो, पुनर्विचार करो। भाजपा से अपेक्षाए ज्यादा हैं। भाजपा बाकी दलों से कई अर्थो में भिन्न भी है। इसकी छोटी चूक भी बर्दाश्त के बाहर होती है। भाजपा केंद्र की सत्ता में है। मोदी विशेष कार्यसंस्कृति वाले प्रधानमंत्री हैं। देश उनके प्रभाव में नई राजनीतिक संस्कृति की ओर बढ़ रहा है। भाजपा विचार आधारित कार्यकर्ता आधारित सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी है। प्रख्यात दार्शनिक नीत्से ने कहा था-'पर्वतारोहण में हम जितनी अधिक ऊंचाई पर जाते हैं, वायु उतनी ही विरल होती है। ऐसी ऊंचाई पर जाकर जिनका श्वास नहीं उखड़ता वे विरले हैं।' भाजपा राजनीतिक पर्वतारोहण में शिखर ऊंचाई पर है। अब अतिरिक्त सावधानी और समन्वय की आवश्यकता है। ऐसे झटकों से भाजपा को लाभ ही होने वाला है। राजनीतिक पंडितों को निराशा ही हाथ लगेगी। भाजपा असाधारण राजनीतिक दल है। विश्व राजनीति के शोधार्थियों का आकर्षण। इसकी बढ़त विश्व राजनीति का आश्चर्य है। यूरोप, अमेरिका या एशियाई चीन के विद्वान भाजपा से 2014 जैसी चुनावी जीत की अपेक्षा नहीं रखते थे। प्रतिबद्ध राजनीतिक विवेचकों ने मोदी का भयावह व्यक्तित्व गढ़ा था। अमेरिका ने उन्हें वीजा नहीं दिया, लेकिन वे आगे बढ़ते गए। भाजपा का विचार बढ़ा, विचार का प्रचार बढ़ा, प्रचार प्रसार का भौगोलिक क्षेत्र भी बढ़ा। डेनमार्क विश्वविद्यालय के प्रोफेसर थामस ब्लूम हांसेन ने 14 बरस पहले ही भाजपा की ताकत का अनुमान लगाया था। उन्होंने सैफ्रन वेव में लिखा था-'भाजपा-हिंदू राष्ट्रवादी आंदोलन ने भारतीय मध्यवर्ग की इच्छा और बेचैनी को रूपांतरित करने में सफलता पाई है। इसके साथ ही आम आदमी में भी सांस्कृतिक गौरव और राष्ट्रशक्ति का बोध जगाया है।' उपचुनाव के परिणाम भाजपा के ऐसे काम को झुठला नहीं सकते। दिक्कत प्रतिबद्ध विवेचकों की व्याख्या में है। एक अंग्रेजी चैनल में एक जानकार ने मोदी सरकार को हराकर ही दम लिया। हालांकि उन्हें यूपी के चरखारी विधानसभा क्षेत्र का नाम भी ठीक से पता नहीं था।

    राष्ट्र निर्माण दीर्घकालिक कर्म साधना है और राजनीति अल्पकालिक सेवा। राजनीति में दीर्घकाल नहीं होता। हरेक पांच साल बाद इसकी परीक्षा है। सभी चुनाव एक ही मानसिक धरातल पर नहीं होते। लोकसभा के चुनाव में राष्ट्रीय प्रश्न और अंतरराष्ट्रीय चुनौतियां भी मुद्दा होती हैं। विधानसभा चुनाव में राज्य स्तरीय विकास और सुशासन के मुद्दे उठते हैं। मतदाता ऐसे चुनावों में केंद्र या राज्य का विचार करते हैं, लेकिन उपचुनाव में उनके सामने ऐसी कोई प्रतिबद्धता नहीं होती। वे शुद्ध स्थानीय होते हैं, स्थानीयता में प्रबंधन का लाभ मिलता है, कुप्रबंधन से हानि होती है। प्रबंधन में जाति, पंथ, मजहब और प्रशासनिक तंत्र की प्रतिबद्धता को भी जोड़ा घटाया जा सकता है। इसलिए नतीजों को मोदी सरकार से मोहभंग की संज्ञा नहीं दी जा सकती। परिणाम सपा सरकार की अराजकता के पक्ष में भी नहीं हैं। वे गुजरात या राजस्थान की सरकार के पक्ष या विपक्ष में कोई रायशुमारी भी नहीं हैं। वे शुद्ध स्थानीय लोकमत हैं। दलतंत्र शोक मनाए या खुशी, उसका अपना आंतरिक मामला है। उपचुनाव के नतीजों में खुशफहमी का कोई आधार नहीं। ऐसी खुशफहमी गलतफहमी है। कांग्रेस जरूरत से ज्यादा खुश है। सपा की खुशी मैनपुरी से लोकसभा पहुंच गई है। अब एक और युवा परिजन लोकसभा में हैं।

    कुछ राजनीतिक पंडित उपचुनावों के नतीजों का पानी हरियाणा और महाराष्ट्र के आगामी चुनाव तक उलीच रहे हैं। भाजपा के नुकसान वाले आंकड़े और ग्राफिक्स तैयार हैं। विचार स्वातं‌र्त्य का यही रसरंजन जनता का मनोरंजन है, लेकिन तथ्य दूसरे हैं। महाराष्ट्र और हरियाणा की कांग्रेसी सरकारें हद दर्जे तक अलोकप्रिय हैं। यहां भाजपा ही विकल्प है। कुछेक टिप्पणीकार उपचुनाव नतीजों को उत्तार प्रदेश में भी 2017 तक प्रभावी मान रहे हैं। प्रश्न है कि यूपी की अराजकता, सांप्रदायिक हिंसा, राज्य तंत्र की विफलता, ध्वस्त विद्युत आपूर्ति से त्राहि-त्राहि करती जनता क्या उपचुनाव परिणामों की प्रेरणा से ही सपा के साथ खड़ी होगी? या उपचुनाव से भाग खड़ी बसपा के साथ? या हर मोर्चे पर संघर्ष करती भाजपा के साथ? जनसंदेश ने भाजपा को सावधान किया है और बाकी दलों को सक्रिय रहने का संदेश दिया। भारतीय मतदाता हरेक जनादेश में दलतंत्र को आत्म विश्लेषण का ही संदेश देते हैं। सुनिए। गुनिए। तद्नुसार काम कीजिए।

    [लेखक हृदयनारायण दीक्षित, उप्र विधान परिषद के सदस्य हैं]