बदलाव की झलक
किसी भी सरकार के लिए उसके कार्यकाल के पहले सौ दिनों के विश्लेषण का एक सीमित महत्व ही है। एक सरकार के कामकाज और उसकी दिशा के आकलन के लिए कम से कम छह माह की अवधि आवश्यक है। मोदी सरकार भी इस समय की हकदार है, लेकिन उसके पहले सौ दिनों की चर्चा कई कारणों से हो रही है और इसमें एक बड़ा कारण चुनाव प्रचार के दौरान मोदी का बदलाव का नारा भी है और करीब 25 वर्ष बाद केंद्र में सरकार बनाने के लिए किसी एक दल का अकेले दम पर बहुमत हासिल करना भी।
नए शासन के पहले सौ दिन कुल मिलाकर प्रभावी रहे हैं। ऐसा लग रहा है कि एक ऐसी सरकार केंद्र की सत्ता में आ गई है जो कुछ करना चाहती है। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि लोग इस सरकार को और अधिक समय देने के लिए तैयार हैं। इस सरकार का सबसे बड़ा असर यह है कि विकास का जो माहौल पिछले शासन में बिगड़ गया था वह ठीक होता नजर आ रहा है। सुधार की दस्तक अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में सबसे पहले महसूस की जा रही है। दो-तीन दिन पहले वित्तामंत्री अरुण जेटली ने कहा भी कि फैसलों में देरी से सुस्त हुई अर्थव्यवस्था ने जनता और निवेशकों का जो भरोसा तोड़ा था अब वह फिर बहाल होने लगा है। विकास दर में वृद्धि से उनकी इस बात पर मुहर भी लगती है। विकास दर में तेजी से निवेशकों का मन भी बदला है और इसकी झलक सेंसेक्स में आई तेजी से भी मिलती है। नए शासन के कामकाज से जो आशावाद दिख रहा है उसके सार्थक नतीजे मिलने ही चाहिए। प्रधानमंत्री की जापान यात्रा इस माहौल को और मजबूत करेगी, क्योंकि यह लगभग तय है कि नई दिल्ली और टोक्यो की मित्रता से आर्थिक क्षेत्र में सहयोग के नए द्वार खुलेंगे। इस सकारात्मक तस्वीर के साथ मोदी सरकार के समक्ष कई चुनौतियां भी हैं और सबसे बड़ी चुनौती तो महंगाई की ही है। यह सही है कि महंगाई के लिए इस समय वैसा हाहाकार नहीं है जैसा संप्रग शासन के समय था, लेकिन यह एक सच्चाई है कि आम जनता बढ़ती कीमतों से त्रस्त है। यह देखना है कि मोदी सरकार महंगाई पर अंकुश लगाने के लिए आगे क्या-क्या कदम उठाती है। शासन के स्तर पर 'प्राइम मिनिस्टर वाचिंग' का जुमला प्रचलित हो रहा है वह इसीलिए, क्योंकि मोदी की नजर अपने मंत्रियों पर है। इसके चलते उनके मंत्रिमंडल में शामिल सभी मंत्री पूरी सतर्कता से काम करते नजर आ रहे हैं। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने भी कहा है कि वह मंत्रालय के आधार पर मोदी सरकार के कामकाज की आलोचना करेगी। इसका मतलब है कि केंद्र सरकार के लिए गलती करने की गुंजाइश नहीं है। लोकतंत्र के लिए यह स्थिति अच्छी ही कही जाएगी कि विपक्ष सत्तापक्ष के कामकाज की लगातार समीक्षा करता रहे।
सुधार और बदलाव के संकेत विदेश नीति के मामले में भी दिखाई दे रहे हैं। यह कहने में हर्ज नहीं कि नरेंद्र मोदी ने विदेश नीति, विशेषकर पड़ोसी देशों के साथ संपर्क के मामले में अलग तरह का चिंतन प्रदर्शित किया है। बेशक पाकिस्तान के साथ संबंधों के मामले में अड़चन आई है और यह अड़चन मोदी के लिए निराशा की बात है, लेकिन भूटान और नेपाल के साथ नजदीकी को लेकर जो रुझान प्रदर्शित किया गया उससे भारत के आसपास माहौल बदला है। मोदी एशिया ही नहीं, बल्कि पश्चिम एशिया के साथ संबंधों के मामले में एक ठोस नीति पर आगे बढ़ना चाहते हैं।
राजनीतिक रूप से मोदी के लिए एक अहम चुनौती उन तत्वों पर अंकुश लगाना है जो समाज में विभाजन पैदा करना चाहते हैं। हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण देश और समाज के लिए ठीक नहीं है। उत्तार प्रदेश और खासकर पश्चिमी उत्तार प्रदेश में यह ध्रुवीकरण कुछ ज्यादा ही गंभीर रूप लेता जा रहा है। लाल किले की प्राचीर से अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने देश हित में दस साल के लिए हर स्तर पर सांप्रदायिकता से दूर रहने की बात कही थी, लेकिन उन्हें अपना संदेश और सख्ती से देना चाहिए। देश में जिस तरह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण गहरा रहा है उस पर प्रधानमंत्री की चुप्पी ठीक नहीं। उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि ऐसे लोगों को कोई जगह न मिले जो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने की कोशिश कर रहे हैं। इस तरह की राजनीति वोट के लिए तो फायदेमंद हो सकती है, लेकिन देश को जो नुकसान होगा उसकी भरपाई नहीं की जा सकेगी। अगर सांप्रदायिकता बढ़ती है तो निवेशकों का भरोसा भी कमजोर होगा और अभी वे जो उत्साह दिखा रहे हैं वह जल्दी ही गायब हो जाएगा।
मोदी सरकार के संदर्भ में एक और बात पर लोगों का ध्यान गया है और वह यह कि सरकार के भीतर कुछ टकराव जैसे हालात उभरते नजर आ रहे हैं। हालांकि इस मामले में अभी किसी नतीजे पर पहुंचना बहुत जल्दबाजी होगी, लेकिन देश में यह संदेश नहीं जाना चाहिए कि हर चीज पर प्रधानमंत्री का दखल है। प्रधानमंत्री की निगरानी अच्छी बात है और अंतिम निर्णय भी उन्हीं का होना चाहिए, लेकिन सरकार का मतलब केवल पीएमओ नहीं होना चाहिए।
सौ दिनों में कोई सरकार सारी समस्याओं का न तो समाधान कर सकती है और न ही रातोंरात तस्वीर बदली जा सकती है। इसलिए जिन लोगों ने यह अपेक्षा की थी कि मोदी सरकार बनते ही सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा उन्हें कुछ निराशा हो सकती है, लेकिन उनको भी यह ध्यान रखने की जरूरत है कि बदलाव की योजनाओं को यथार्थ के धरातल पर उतारने में समय लगता है। यह अच्छी बात है कि प्रधानमंत्री ने लाल किले से कुछ बुनियादी बातों पर जोर दिया। साफ-सफाई और सभी स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय बनाने की घोषणा ने यह भरोसा पैदा किया है कि प्रधानमंत्री जमीनी समस्याओं से परिचित हैं। अगर अगले वर्ष 15 अगस्त तक यह काम पूरा हो जाता है तो इसे मोदी सरकार की बहुत बड़ी कामयाबी माना जाना चाहिए।
महिलाओं की गरिमा, शिक्षा, सुरक्षा और स्वास्थ्य से जुडे़ इस मामले के गंभीर सामाजिक आयाम हैं। इसी तरह एक और योजना मोदी सरकार के भावी पथ की दिशा तय कर सकती है और यह है कि क्योटो की तर्ज पर काशी यानी प्रधानमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र के विकास का संकल्प। अगर ऐसा हो सका तो गंगा के आसपास बसे इलाके भी इसी तर्ज पर अपने विकास का सपना संजो सकते हैं। मोदी ने 'वी कैन' यानी 'हम कर सकते हैं' को अपने शासन का सूत्रवाक्य बनाया है। मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति से वह अपनी इस घोषणा को वास्तविकता बना सकते हैं, लेकिन इसके लिए उन्हें सबको साथ लेकर चलना होगा। सुशासन, मजबूत नेतृत्व और भविष्य के लिए स्पष्ट दृष्टिकोण से भारत की तस्वीर बदली जा सकती है। पहले सौ दिनों ने उम्मीद को कायम रखा है।
[लेखिका नीरजा चौधरी, जानी-मानी राजनीतिक विश्लेषक हैं]
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।