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सौ दिन का सफर

By Edited By: Published: Sun, 31 Aug 2014 04:49 AM (IST)Updated: Sun, 31 Aug 2014 04:42 AM (IST)
सौ दिन का सफर

भारत में राजनीति का संचालन करने वाले कई पारंपरिक, लेकिन अर्थहीन संस्कार हैं। एक नई सरकार के पहले सौ दिनों के कामकाज का विश्लेषण ऐसी ही परंपरा है। यह कवायद पूरी तरह अर्थहीन है, क्योंकि सौ दिन की तरह ही दो सौ अथवा तीन सौ दिन पूरे होने पर कोई विश्लेषण नहीं किया जाता। हां, सरकारों के वार्षिक आकलन अवश्य किए जाते हैं, लेकिन ये भी मीडिया में प्रचार-प्रसार में भारी-भरकम खर्च के साये में वास्तविक रूप में दब जाते हैं। एक आकलन जो वाकई महत्व रखता है, हर तरह के विश्लेषणों पर छा जाता है। यह आकलन है जनता का फैसला जो किसी सरकार का कार्यकाल पूरा होने के बाद सामने आता है। अगले सप्ताह देश नरेंद्र मोदी सरकार के पहले सौ दिन पूरे होने का गवाह बनेगा। एक प्रधानमंत्री जिसने साठ महीनों में भारत में बदलाव लाने के वायदे पर जबरदस्त जनादेश हासिल कर सत्ता संभाली है, के लिए पहले सौ दिनों का एक प्रतीकात्मक महत्व ही है। अधिकतम इससे एक हल्का-फुल्का यह संदेश हासिल किया जा सकता है कि सरकार किस दिशा में आगे बढ़ने का इरादा रखती है। 1989 के बाद पहली बार किसी एक दल के बहुमत वाले शासन को एक अलग प्रिज्म से देखा जा रहा है। यह नजरिया राजीव गांधी के बाद प्रधानमंत्री बने अन्य लोगों से एकदम अलग है। हालांकि सरकार के पास अभी भी राच्यसभा में बहुमत नहीं है, फिर भी दिन-प्रतिदिन की घटनाओं में गठबंधन धर्म की मजबूरियों जैसे जुमलों का इस्तेमाल अब नहीं सुना जाता। वीपी सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी को जनता का अच्छा-खासा समर्थन मिला था, लेकिन मोदी सरकार की पहचान भिन्न है। यह एक देश में विशेष बात है जहां संसदीय व्यवस्था से राष्ट्रपति प्रणाली की शैली में काम करने की अपेक्षा की जाती है। सरल शब्दों में कहें तो सारी बातें मोदी पर आकर ठहरती हैं।

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जब नरेंद्र मोदी को 26 मई की शाम को शपथ दिलाई गई थी तो वह बिना आजमाए हुए व्यक्ति नहीं थे, जैसा कि कुछ विदेशी प्रेक्षकों ने सोचा था। 12 वर्ष तक गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में मोदी हमेशा से देश के राजनीतिक फलक पर चर्चा का विषय रहे। उन्हें या तो सराहा गया अथवा हद से अधिक नापसंद किया गया। अपने आठ महीने के वृहद चुनाव प्रचार अभियान में वह देश के लगभग सभी हिस्सों में गए। उनकी आक्त्रामक प्रचार शैली ने मोदी विरोधियों की मुश्किलें और बढ़ा दीं। परिणामस्वरूप जब मोदी प्रधानमंत्री बने तो उनके इर्द-गिर्द कोई वास्तविक निष्पक्षता मौजूद नहीं थी। वह भले ही उस हनीमून पीरियड से वंचित न रहे हों जो रेस कोर्स रोड में ठिकाना बनाने वाले सभी व्यक्तियों को आम तौर पर मिलता है, लेकिन यह किसी वैचारिक खुलेपन की देन नहीं था, बल्कि एक अस्थाई युद्धविराम का प्रतिफल था। मोदी ने लाल किले से बिल्कुल सही कहा कि असल समस्या उनके बाहरी होने को लेकर है। वाकई उन्होंने खेल के सर्वथा अलग नियम निर्धारित किए और उन्हीं के आधार पर अपने विरोधियों को खेलने की चुनौती दी। एकाकी जीवनशैली, सादगी भरे जीवन के बावजूद स्टाइलिश कपड़ों के शौक के अलावा भी बहुत सारी चीजें हैं जो मोदी को एक खास व्यक्तित्व बनाती हैं। कामकाज के उनके सख्त शेड्यूल ने भी लोगों का ध्यान खींचा।

जब से मोदी ने कार्यभार संभाला है, उनका जोर दो चीजों पर रहा है। एक, शासन की समग्रता से खुद को परिचित करना और दूसरे, बुनियादी मुद्दों पर लगातार सवाल उठाना। निश्चित ही एक हिस्सा ऐसी सरकारी योजनाओं का रहा है जहां प्रधानमंत्री ने आगे बढ़कर नेतृत्व संभाला और पड़ोस की ओर केंद्रित कूटनीति को नई ऊर्जा के साथ आगे बढ़ाया, बावजूद इसके पिछले लगभग सौ दिनों में सरकार का मुख्य जोर सिस्टम में पहले से मौजूद खामियों को दूर करने पर रहा है। कुछ फैसले केवल इसलिए अर्थहीन नहीं हैं, क्योंकि उन्हें बढ़-चढ़कर प्रचारित नहीं किया गया। अर्थव्यवस्था से संबंधित मंत्रालयों ने अपना ध्यान एक बड़े काम की ओर लगाया है। यह काम है भारत में व्यापार करने के लिए स्थितियों को आसान बनाना। एक्साइज और कर के जिन नियमों ने भारत में उद्यमियों के लिए हालात मुश्किल बना दिए थे उन्हें सरल बनाया गया और पर्यावरण मंत्रालय की अड़चनों को दूर कर परियोजनाओं में तेजी लाने की पहल की गई। इसके साथ ही सरकार ने भारत में व्यावसायिक विश्वास बहाल करने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए। मोदी ने मेक इन इंडिया को प्राथमिकता बनाया है। इसका मतलब है कि आने वाले समय में भूमि अधिग्रहण कानूनों में बदलाव होगा, ऊर्जा क्षेत्र में सुधार होंगे और बैंकिंग व्यवस्था में बुनियादी सुधार होगा। स्पष्ट है कि पिछले लगभग सौ दिन अर्थव्यवस्था की बुनियाद को मजबूत करने में खपाए गए। उम्मीद यही है कि सरकार की ओर से उठाए गए ये छोटे कदम व्यावसायिक विश्वास पर निर्णायक असर डालेंगे और बड़े पैमाने पर निवेश का मार्ग प्रशस्त करेंगे।

जो लोग चुनाव के समय मोदी के साथ खड़े थे उनकी धारणा यह भी थी कि मोदी बहुत जल्दी बड़े-बड़े बदलावों को जन्म देंगे। इस धारणा की एक बड़ी वजह संप्रग सरकार की आर्थिक नीतियों से उत्पन्न निराशा भी थी। अभी तक इस तरह का केवल एक निर्णय ही लिया गया है और वह है योजना आयोग को समाप्त कर उसकी जगह नई संस्था बनाने की घोषणा। उनकी इस पहल का विरोध भी किया जा रहा है-खासकर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का उदाहरण देकर जो पूरे देश के ढांचे के लिहाज से अपेक्षित नतीजे नहीं दे सका है। कुछ उपचुनावों में लगे झटके के बावजूद मोदी सरकार के प्रति लोगों का रुझान कम नहीं हुआ है, बल्कि एक ओपिनियन पोल के मुताबिक बढ़ा ही है। सौ दिनों तक सत्ता संभालने और इससे अच्छी तरह अवगत हो जाने के बाद मोदी के लिए अच्छा यही होगा कि वह अपने आलोचकों के भय को अपने लिए प्रेरणा में तब्दील करें। वह यह नहीं भूल सकते कि उन्हें जो शानदार जनादेश मिला है वह बदलाव और बेहतरी के लिए है। बदलाव के विश्वास को अगले नौ महीनों में किस तरह कार्य-व्यवहार में तब्दील किया जाता है, इससे ही अगले चार वर्ष की दिशा तय होगी।

[लेखक स्वप्न दासगुप्ता, वरिष्ठ स्तंभकार हैं]


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