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पाकिस्तान और आतंकवाद पर अब भी जारी है अमेरिका का दोहरा रवैया

अमेरिका के रुख से स्पष्ट है कि वह अभी भी दक्षिण एशिया में भारत और पाकिस्तान को एक ही तराजू पर तौल रहा है।

By Kamal VermaEdited By: Published: Sat, 17 Feb 2018 09:18 AM (IST)Updated: Sat, 17 Feb 2018 04:34 PM (IST)
पाकिस्तान और आतंकवाद पर अब भी जारी है अमेरिका का दोहरा रवैया
पाकिस्तान और आतंकवाद पर अब भी जारी है अमेरिका का दोहरा रवैया

नई दिल्‍ली [अरविंद जयतिलक]। याद होगा गत महीने अमेरिका ने पाकिस्तान को दो अरब डॉलर की सहायता यह कहकर रोकी थी कि पाकिस्तान अपनी जमीन पर आतंकी ठिकानों को खत्म करने में रुचि नहीं दिखा रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने तब पाकिस्तान को दो टूक चेतावनी देते हुए कहा था कि अगर वह नहीं सुधरा तो उसे बहुत कुछ खोने के लिए तैयार रहना होगा, लेकिन आश्चर्य है कि इस दरम्यान ऐसा क्या हुआ कि अमेरिका को पाकिस्तान के आचरण में बदलाव दिखने लगा और वह उसे करोड़ों डॉलर की मदद को तैयार हो गया। आतंकवाद के अड्डे के रूप में तब्दील हो चुके पाकिस्तान पर टंप प्रशासन की इस कृपा से एक बार फिर स्पष्ट हो गया है कि पाकिस्तान को लेकर अमेरिका की साढ़े छह दशक पुरानी नीति जस की तस बरकरार है। बेशक अमेरिका को अधिकार है कि वह भारत और पाकिस्तान से भिन्न-भिन्न आयामों से अपने रिश्ते परिभाषित करे, लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि वह उस पाकिस्तान को आर्थिक मदद पहुंचाए, जिसकी पहचान पूरी दुनिया में आतंकवाद के प्रश्रयदाता के रूप में है।

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आर्थिक मदद की पेशकश के लिए बेचैन 
समझना कठिन है कि जो अमेरिका बार-बार पाकिस्तान को आतंकवाद का अड्डा बताते नहीं थकता है वह उसे आर्थिक मदद की पेशकश के लिए इतना बेचैन क्यों है? जबकि वह अच्छी तरह जानता है कि पाकिस्तान अमेरिका एवं वैश्विक संस्थाओं से मिल रही आर्थिक मदद का इस्तेमाल अपने विकास कार्यो पर खर्च करने के बजाय भारत के खिलाफ कर रहा है। अमेरिका को यह भी पता है कि अफगानिस्तान स्थित आतंकी संगठन हक्कानी नेटवर्क आइएसआइ का सबसे बड़ा मोहरा है, जिसके जरिये वह अफगानिस्तान में अराजकता फैलाए हुए है। हक्कानी नेटवर्क आइएसआइ के इशारे पर अफगानिस्तान के कई बड़े नेताओं की हत्या भी कर चुका है। अफगानी राष्ट्रपति बुरहानुद्दीन रब्बानी की हत्या इसी संगठन ने की थी। गौरतलब है कि रब्बानी शांति परिषद के अध्यक्ष थे और वह अफगान सरकार और तालिबान उदारवादी तत्वों के बीच शांति बहाली के लिए प्रयासरत थे। अमेरिका को यह याद रखना होगा कि पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में अमेरिकी नेतृत्व वाले नाटो सेना को हक्कानी समूह के जरिये ही लोहे के चने चबवा दिए हैं। बावजूद इसके अमेरिका को लग रहा है कि अफगानिस्तान में उसके हितों की सुरक्षा के लिए पाकिस्तान को आर्थिक और सैन्य मदद करना आवश्यक है तो वह भ्रम में है। इसलिए कि उसकी अफ-पाक नीति की विफलता उजागर हो चुकी है।

आतंकियों के विरुद्ध दिखावे का अभियान 
दरअसल अमेरिका चाहता है कि पाकिस्तान को साथ लेकर दक्षिणी अफगानिस्तान से लगे पाकिस्तानी सीमावर्ती क्षेत्रों में तालिबानी समूहों पर नियंत्रण स्थापित कर ले, लेकिन पाकिस्तान की दगाबाजी ने उसके इस मकसद को पूरा नहीं होने दिया है। सच तो यह है कि पाकिस्तान की सेना इस क्षेत्र में आतंकियों के विरुद्ध दिखावे का अभियान चला रही है और इसके लिए अमेरिका उसे हर वर्ष अरबों डॉलर दे रहा है। एक आंकड़े के मुताबिक अमेरिका 2009 से अब तक पाकिस्तान को 3.5 अरब अमेरिकी डॉलर यानी 250 अरब रुपये की मदद दे चुका है, लेकिन वहां इसका कोई सार्थक परिणाम देखने को नहीं मिला है। अमेरिका ने 1954 में पाकिस्तान के साथ सैनिक समझौता करके उसे बहुत अधिक मात्र में सैन्य सामग्री दी तब भी पाकिस्तान ने भरोसा दिया था कि उसके द्वारा इन हथियारों का इस्तेमाल साम्यवाद के प्रसार को रोकने के लिए किया जाएगा, लेकिन दुनिया को पता है कि 1965 और 1971 के भारत-पाक युद्ध में पाकिस्तान ने अमेरिका द्वारा प्रदत्त इन हथियारों का जमकर इस्तेमाल किया। बजाय इसके अगर अमेरिका पाकिस्तान को आर्थिक मदद देने के लिए कृतसंकल्प है तो यह एक किस्म से उसका भारत विरोधी रुख ही कहा जाएगा। इसलिए कि पाकिस्तान आए दिन भारत को परमाणु बम की धमकी देता रहता है। ध्यान दें तो अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को आर्थिक मदद न केवल भारत के लिए, बल्कि संपूर्ण दुनिया के लिए खतरनाक होगा।

भारत-पाकिस्तान को एक तराजू पर तौल रहा अमेरिका 
बहरहाल अमेरिका के रुख से एक बात पूर्णत: स्पष्ट हो जाती है कि वह अभी भी दक्षिण एशिया में भारत व पाकिस्तान को एक तराजू पर तौल रहा है और भारत की चिंताओं को लेकर तनिक भी गंभीर नहीं है, बल्कि उसका ध्यान अपने व्यावसायिक हितों पर केंद्रीत है। सच्चाई है कि अमेरिका द्वारा पाकिस्तान के संदर्भ में विरोधाभासपूर्ण नीतियों को अपनाने के कारण ही पूर्व में भारत-अमेरिका के बीच दूरियां बढ़ीं और आपसी विश्वास कायम नहीं हो सका। अतीत में जाएं तो कश्मीर, नि:शस्त्रीकरण, जापान, कोरिया, हिंद-चीन इत्यादि मसलों पर भी अमेरिका का रवैया भारत के दृष्टिकोण के विपरीत रहा। प्रारंभ में कश्मीर के मसले पर उसका रुख पाकिस्तानपरस्त रहा। वह एक ओर भारत पर बार-बार एक विशेष संदर्भ में स्वीकृत जनमत संग्रह कराने की मांग पर बल देता रहा वहीं पाकिस्तान द्वारा कश्मीर पर किए गए हमले के बाद भी उसने पाकिस्तान को आक्रमणकारी कहना गंवारा नहीं समझा।

भारत की धैर्य की सराहना
आमतौर पर तो अमेरिका भारत की धैर्य की सराहना करता है और पाकिस्तान की आलोचना, लेकिन जब प्रतिबंधों की बात आती है तो वह पाकिस्तान के साथ-साथ भारत को भी किसी प्रकार की अमेरिकी सहायता प्रदान करने पर रोक लगा देता है। इस प्रकार का फैसला दर्शाता है कि भारत को लेकर अमेरिका की नीति अभी साठ दशक वाली ही है। अन्यथा आतंकवाद के मसले पर उसका रवैया दोहरा देखने को नहीं मिलता। जब लीबिया जैसे देशों का मसला होता है तो अमेरिका उन्हें आतंकी राष्ट्र घोषित करने में तनिक भी देर नहीं लगाता, लेकिन जब पाकिस्तान की हरकतों की बात आती है तो वह उसकी अनदेखी कर जाता है। पाकिस्तान को आतंकवाद निरोधी अभियान के तहत अरबों डॉलर की मदद की पेशकश कर उसने एक बार फिर साबित कर दिया है कि वह आतंकवाद से निपटने की आड़ में सिर्फ अपने हितों का ख्याल रख रहा है। ऐसे में आवश्यक है कि भारत पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद से निपटने के लिए अमेरिका पर निर्भर रहने के बजाय खुद कमर कसे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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