'जजों को इतना जालिम भी नहीं होना चाहिए', कलकत्ता हाईकोर्ट ने मृत्युदंड पर सख्त टिप्पणी कर पलट दिया फैसला
कलकत्ता हाईकोर्ट ने एक मामले में आरोपी आफताब आलम की मृत्युदंड की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया। अदालत ने कहा कि दंडशास्त्र अब प्रतिशोधात्मक नहीं बल्कि सुधारात्मक दृष्टिकोण पर आधारित है। जस्टिस सब्यसाची भट्टाचार्य ने कहा कि आधुनिक न्यायशास्त्र में दंड का सुधारात्मक पहलू महत्वपूर्ण है। अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि मृत्युदंड अपरिवर्तनीय है।

पीटीआई, कोलकाता। कलकत्ता हाईकोर्ट की जलपाईगुड़ी सर्किट पीठ ने अपने मामा की हत्या के जुर्म में एक व्यक्ति की मृत्युदंड की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया है। अदालत ने मामले में टिप्पणी करते हुए कहा कि समाज का विकास दंडशास्त्र के प्रति सुधारात्मक दृष्टिकोण से हुआ है, न कि प्रतिशोधात्मक दृष्टिकोण के लिए।
यह टिप्पणी जस्टिस सब्यसाची भट्टाचार्य ने की। उन्होंने कहा, 'दंड के तीन प्रमुख स्तंभ हैं- प्रतिशोध, निवारण और सुधार। निवारण की मान्यता आज भी बरकरार है, वहीं आधुनिक आपराधिक न्यायशास्त्र में भारत और अन्य देशों में प्रतिशोध ने दंड के सुधारात्मक पहलू को जन्म दिया है।'
'जेल भी अब सुधार गृह कहलाने लगे'
दरअसल जलपाईगुड़ी सेशन कोर्ट ने आफताब आलम को धारा 396 के तहत अपराध का दोषी मानते हुए मृत्युदंड की सजा सुनाई थी। लेकिन हाईकोर्ट ने कहा कि यह अपराध रेयरेस्ट ऑफ द रेयर की श्रेणी में नहीं आता है। जस्टिस भट्टाचार्य ने कहा कि हाल के दिनों में जेलों को सुधार गृह कहा जाने लगा है, इसका एक कारण है।
उन्होंने कहा कि 'यह समाज की बदला लेने की रक्त-पिपासु प्रवृत्ति से अभियुक्तों को सुधारने की सभ्य नीति की ओर संक्रमण को दर्शाता है। इस सिद्धांत का आधार है कि अपराध से घृणा करनी चाहिए, अपराधी से नहीं। दुनिया में इस बात पर बहस चल रही है कि मृत्युदंड को सजा के रूप में बरकरार रखा जाए या नहीं।'
अदालत ने इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि यदि किसी व्यक्ति को मृत्युदंड के कारण फांसी दी जाती है, तो इससे होने वाली क्षति अपरिवर्तनीय होती है। बाद में जांच में कोई नया एंगल मिले या नए सबूत मिलें या फिर से जांच खोलने का औचित्य बने, तो ऐसी स्थिति में ली गई जान को वापस लाने की कोई संभावना नहीं होती, क्योंकि मृत्युदंड अपरिवर्तनीय है।
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