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लेह-बेरी चीन में अनमोल, हमारे यहां मिट्टी के मोल; पढ़िए पूरी खबर

लेह-लद्दाख में लेह-बेरी बहुतायत में पाई ही जाती है जबकि सीमांत उत्तरकाशी जिले में गंगनानी से लेकर गंगोत्री तक और गंगोत्री नेशनल पार्क क्षेत्र में भी लेह-बेरी की बहुतायत है।

By Sunil NegiEdited By: Published: Sat, 16 Nov 2019 10:53 AM (IST)Updated: Sat, 16 Nov 2019 08:20 PM (IST)
लेह-बेरी चीन में अनमोल, हमारे यहां मिट्टी के मोल; पढ़िए पूरी खबर
लेह-बेरी चीन में अनमोल, हमारे यहां मिट्टी के मोल; पढ़िए पूरी खबर

उत्‍तरकाशी, शैलेंद्र गोदियाल। नए लद्दाख के अस्तित्व में आने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लेह-बेरी का जिक्र किया था। कहा था कि इसकी खेती से स्थानीय लोगों को रोजी मिलेगी। लद्दाख से लेकर उत्तराखंड तक, अब सभी को इस बात का इंतजार है। उधर, चीन तो बहुत पहले ही इसका मोल जान चुका है और भरपूर कमाई भी कर रहा है। इसके फलों के चमत्कारिक गुणों के कारण यह संजीवनी बूटी के समान है और अंतरराष्ट्रीय बाजार में इसकी खासी मांग है।

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‘संजीवनी’ कही जाने वाली हिमालयन बेरी यानी लेह-बेरी का व्यावसायिक उपयोग बड़े भू-भाग में आर्थिक संजीवनी का काम कर सकता है। लेह-लद्दाख में तो यह बहुतायत में पाई ही जाती है, जबकि सीमांत उत्तरकाशी जिले में गंगनानी से लेकर गंगोत्री तक और गंगोत्री नेशनल पार्क क्षेत्र में भी लेह-बेरी की बहुतायत है। बिना किसी विशेष प्रयास के यह स्वत: उत्पन्न हो रही है।

वर्ष 2008 में लेह-बेरी पर शोध कर चुकी पीजी कॉलेज उत्तरकाशी में वनस्पति विज्ञान विभाग की असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. ऋचा बधाणी बताती हैं कि उत्तराखंड में सबसे अधिक लेह-बेरी गंगोत्री नेशनल पार्क और हर्षिल घाटी में होती है। इसके अलावा रुद्रप्रयाग, चमोली व पिथौरागढ़ में भी लेह-बेरी की उपलब्धता है। इस पौधे के फल, पत्ती, तना, जड़ हर भाग महत्वपूर्ण है, जिनमें पोषक एवं औषधीय तत्वों का भंडार समाया हुआ है। पर्यावरण की दृष्टि से भी यह पौधा बेहद ही महत्वपूर्ण है। लेह-बेरी की जड़ों में जीनस फ्रैंकिया जीवाणु के सहजीवी पाए जाते हैं। इसलिए जहां भी ये पौधे होते हैं, वहां नाइट्रोजन अच्छी होती है, जो मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने में सहायक है। लेह-बेरी की जड़ें मिट्टी को भी बांधे रखती हैं। इसकी पत्तियों से ग्रीन-टी जबकि तने और बीज से कई दवाइयां और उत्पाद तैयार होते हैं। लेकिन भारत में फिलहाल ऐसा नहीं हो पाया है। 

ऋचा बताती हैं कि लेह-बेरी का पौधा 2000 मीटर से लेकर 4000 मीटर तक की ऊंचाई पर उगता है। खास बात यह कि इसकी झाड़ियां खुद-द-खुद फैल जाती हंै। बावजूद इसके भारत में इसका सदुपयोग न हो पाना विडंबना ही माना जाएगा। जानकारी के अभाव में ग्रामीण भी इसके पौधों को खरपतवार समझ हटा देते हैं और इसकी टहनियों से खेतों में बाड़ लगा रहे हैं। लेह बेरी को स्थानीय भाषा में आमील कहते हैं।

गंगोत्री मंदिर समिति के अध्यक्ष मुखवा गांव निवासी सुरेश सेमवाल कहते हैं कि इसके औषधीय गुणों की लोगों को जानकारी ही नहीं है, जिससे इसका बेहतर इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है। ग्रामीणों से लेह-बेरी खरीदकर उसके उत्पाद तैयार किए जाएं। इसके लिए सरकार को प्रयास करना चाहिए। पीजी कॉलेज उत्तरकाशी में वनस्पति विज्ञान के विभागाध्यक्ष प्रो. महेंद्रपाल परमार कहते हैं कि लेह-बेरी कैंसर, मधुमेह और यकृत की बीमारियों में रामबाण औषधि है। एंटी ऑक्सीडेंट और तमाम विटामिनों से भरपूर यह फल बढ़ती उम्र के प्रभाव को रोककर खून की कमी को दूर करने में सहायक है। इसे गोल्ड माइन के नाम से भी जाना जाता है, जबकि हिमालयन क्षेत्र में होने के कारण इसे हिमालयन बेरी भी कहते हैं।

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चीन कर रहा वाणिज्यिक उत्पादन

चीन अपने यहां बेकार पड़ी जमीनों पर लेह-बेरी का वाणिच्यिक उत्पादन कर रहा है। उसने इससे तैयार जूस, चाय और पौष्टिक खाद्य पदार्थों की बिक्री से स्थानीय लोगों की आय बढ़ाने का मॉडल तैयार किया है। प्रो. महेंद्रपाल परमार बताते हैं कि इसके लिए चीन में अधिकारियों, वैज्ञानिकों, किसानों, खाद्य प्रसंस्करण कंपनियों और विवि का एक समूह बनाया गया है। उसने 30 लाख हेक्टेयर में इसकी पैदावार करने और इस पर आधारित 500 से अधिक उद्योग-धंधे लगाने का सफल प्रयोग किया है।

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जल्द फिरेंगे दिन..

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अनुच्छेद-370 को निष्क्रिय किए जाने के बाद राष्ट्र के नाम संबोधन में लेह-बेरी का खासतौर पर जिक्र किया था। कहा था कि लेह-बेरी की खेती से लेह-लद्दाख के लोगों के लिए रोजगार के अवसर बढ़ेंगे। अंतरराष्ट्रीय बाजार में इसकी खासी मांग है। उम्मीद की जा रही है कि सरकार जल्द ही इस पर ठोस पहल करेगी।

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