वनों की नयी परिभाषा तय करने के मामले में केंद्र व राज्य सरकार को जवाब देने का एक और मौका
हाई कोर्ट ने दस हेक्टेयर से कम क्षेत्र में फैले या 60 प्रतिशत से कम घनत्व वाले जंगलों को वन की परिभाषा के दायरे से बाहर करने के आदेश के खिलाफ दायर याचिकाओं पर सुनवाई की।
नैैनीताल, जेएनएन : हाई कोर्ट ने दस हेक्टेयर से कम क्षेत्र में फैले या 60 प्रतिशत से कम घनत्व वाले जंगलों को वन की परिभाषा के दायरे से बाहर करने के आदेश के खिलाफ दायर याचिकाओं पर सुनवाई की। कोर्ट ने केंद्र व राज्य सरकार को एक और मौका देते हुए तीन सप्ताह में जवाब दाखिल करने को कहा है। अगली सुनवाई शीतकालीन अवकाश के बाद 11 फरवरी को होगी। हालांकि कोर्ट इस आदेश के क्रियान्वयन पर पूर्व में ही रोक लगा चुकी है। जबकि भारत सरकार का पर्यावरण एवं वन मंत्रालय इस आदेश को गलत ठहराते हुए राज्य व केंद्रशासित प्रदेशों को एडवाइजरी जारी कर चेतावनी भी दे चुका है।
इन पर्यावरणविदों ने दायर की है याचिका
गुरुवार को मुख्य न्यायधीश रमेश रंगनाथन व न्यायमूर्ति आलोक कुमार वर्मा की खंडपीठ में नैनीताल के प्रसिद्ध पर्यावरणविद प्रो. अजय रावत, देहरादून निवासी रेनू पाल व विनोद पांडे की अलग-अलग जनहित याचिकाओं पर सुनवाई हुई। इनमें कहा गया है कि 21 नवम्बर 2019 को उत्तराखंड के वन एवं पर्यावरण अनुभाग ने एक आदेश जारी कर कहा है कि उत्तराखंड में जहां दस हेक्टेयर से कम या 60 प्रतिशत से कम घनत्व वाले वन क्षेत्र हैं उनको वनों की श्रेणी से बाहर रख दिया है यानी उनको वन नहीं माना। इस आदेश में वन्यजीवों का उल्लेख भी नहीं किया गया है। जबकि इसके विपरीत कर्नाटक मैदानी क्षेत्र वाला प्रदेश है वहां पर भी दो हेक्टेयर में फैले जंगलों को वन क्षेत्र घोषित किया गया है।
वनों को परिभाषित करने वाले राज्य सरकार के नियम असंवैधानिक
याचिकाकर्ता का कहना है राज्य सरकार द्वारा वनों को परिभाषित करने के जो नियम बनाए गए है वे पूर्णत: असंवैधानिक है। आरोप लगाया कि अपनों को फायदा पहुंचाने के उद्देश्य से सरकार द्वारा यह आदेश जारी किया गया है। सुनवाई के दौरान सरकार की ओर से जवाब दाखिल नहीं किया गया है। इधर इसी मामले में हल्दूचौड़ के दिनेश पांडे की ओर से प्रार्थना पत्र दाखिल कर स्थगनादेश को हटाने का आग्रह किया गया है, जिसका फिलहाल कोर्ट द्वारा संज्ञान नहीं लिया गया है।
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