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    Corona epidemic के बीच जानें पवित्र नदी की आपबीती, 'मैं गंगा हूं' मैं उस दिन को भी कैसे भूल सकती हूं, जब..

    By Raksha PanthariEdited By:
    Updated: Sat, 18 Apr 2020 04:18 PM (IST)

    मैं गंगा हूं। मैंने अपने तट पर कई प्राचीन सभ्यताओं को बनते-बिगड़ते देखा है। धरती पर आने के बाद हरिद्वार से मेरी और मुझसे हरिद्वार की पहचान बनी।

    Corona epidemic के बीच जानें पवित्र नदी की आपबीती, 'मैं गंगा हूं' मैं उस दिन को भी कैसे भूल सकती हूं, जब..

    हरिद्वार, अनूप कुमार। मैं गंगा हूं। मैंने अपने तट पर कई प्राचीन सभ्यताओं को बनते-बिगड़ते देखा है। धरती पर आने के बाद हरिद्वार से मेरी और मुझसे हरिद्वार की पहचान बनी। मुझे याद है, जब मैं भगवान राम के पूर्वज राजा भगीरथ के पीछे-पीछे उनके पुरखों का उद्धार करने चली और पहली बार प्रजापति दक्ष की नगरी कनखल के पास ब्रह्मकुंड में पवित्र भूमि हरिद्वार का स्पर्श किया।

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    मैं उस दिन को भी कैसे भूल सकती हूं, जब पितामह ब्रह्मा की अगुआई में देवताओं ने मेरी आगवानी कर मेरा मान बढ़ाया था। यह उस दिन का ही प्रताप है कि आज भी 'हरि के द्वार' हरिद्वार में सुबह-शाम मेरी आरती होती है। यह परंपरा मेरे तट पर तप करने वाले ऋषि-मुनियों से शिक्षा ग्रहण करने वाले तीर्थ पुरोहितों और विद्वान ब्रह्मणों ने हजारों वर्ष पूर्व शुरू की थी।

    उन्होंने अपने-अपने समय में अपने-अपने हिसाब से हरिद्वार का नामकरण किया। कालांतर में हरकी पैड़ी की वजह से इसका नाम हरिद्वार हो गया। मैं उस दौर की भी साक्षी बनी, जब मेरा हर तट हर वक्त लाखों-करोड़ों श्रद्धालुओं से गुंजायमान रहता था। लेकिन, आज विश्वव्यापी कोरोना महामारी के चलते मेरे सभी तट सूने पड़े हैं। पर, मुङो यकीन है कि यह संकट भी पूर्व के अनेकानेक संकटों की तरह जल्द टल जाएगा और मेरे तट पहले ही तरह आबाद हो जाएंगे।

    मेरे अवतरण के वक्त हरिद्वार में ऋषि-मुनी, तपस्वी और साधकों का ही वास हुआ करता था। पास में राजा दक्ष की राजधानी कनखल हुआ करती थी। मेरे तट के पास की पहाड़ी पर राजा भगीरथ के भाई राजा भृतहरि ने साधना के लिए कुटी बनाई थी। पहाड़ी से नित्य प्रति गंगा स्नान को आने के लिए पैड़ी (सीढ़ी) का निर्माण कराया गया। इन्हें पहले राजा भृतहरि की पैड़ी और कालांतर में हरकी पैड़ी का नाम मिला। यह वही जगह है, जहां समुद्र मंथन से निकले अमृत की कुछ बूंदें छलक गई थीं। यहीं मैं भगवान दत्तात्रेय के कोप का भाजन बनने से बच गई। अगर ऐसा न होता तो धरती पर आने का मेरा प्रयोजन ही नष्ट हो जाता। 

    मैं अहंकारवश अपने वेग के साथ तपस्यारत भगवान दत्तात्रेय का दंड-कमंडल बहा ले गई। मेरी धृष्टता से कुपित भगवान दत्तात्रेय ने अपनी जटाओं में मुङो उलझा दिया। जिससे मेरा सारा वेग जाता रहा। गलती का पता चलने पर मैंने क्षमायाचना की, तो उन्होंने मुझे क्षमा दान के साथ आगे का रास्ता दिया। मैं अपने तट पर विकसित होते हरिद्वार की हर छोटी-बड़ी घटना की साक्षी रही हूं। मैंने यहां पर कुंभ के आयोजन की शुरुआत देखी तो पांडवों के स्वर्गारोहण अभियान की साक्षी भी बनी। मैंने यहीं पर भगवान शिव को तांडव करते भी देखा और उनकी क्रोधाग्नि शांत करने आए श्रीहरि को भी। मां सती को यज्ञ कुंड की अग्नि में कूदते भी देखा और राजा दक्ष के वध व उनके सिरविहीन शरीर पर बकरे का सिर लगा भी। आद्य शंकराचार्य ने केदारनाथ जाने से पहले मेरे तट पर कुछ देर विश्रम कर मेरे शीतल जल से अपनी प्यास बुझाई थी।

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    कलयुग में मैंने एक अंग्रेज को देश के ऐसे भू-भाग पर मेरा पानी ले जाने का साहस करते भी देखा। यहीं मैंने गांधी को महात्मा बनते देखा। मेरे ही तट पर स्वामी श्रद्धानंद ने उन्हें महात्मा की उपाधि से अलंकृत किया। अयोध्या में राम मंदिर निर्माण आंदोलन की नींव भी हरिद्वार में मेरे ही तट पर पड़ी। मेरा हरिद्वार आज कोरोना के कहर में उसी शिद्दत से दीन-दुखियों की सेवा में जुटा हुआ है। न कोई भेदभाव और न छल-कपट ही।

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