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    उत्‍तराखंड है शिव की भूमि, कैलास में वास और कनखल में है ससुराल

    उत्तराखंड को शिव की भूमि कहा गया है। इसलिए महाशिवरात्रि पर्व का यहां अलग ही उल्लास देखने को मिलता है और फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को पूरा उत्तराखंड शिवमय हो जाता है।

    By Sunil NegiEdited By: Updated: Mon, 04 Mar 2019 08:23 PM (IST)
    उत्‍तराखंड है शिव की भूमि, कैलास में वास और कनखल में है ससुराल

    देहरादून, दिनेश कुकरेती। उत्तराखंड को शिव की भूमि कहा गया है। यहीं कैलास में शिव का वास है और गंगाद्वार हरिद्वार के कनखल में ससुराल। माता सती का जन्म कनखल में ही दक्ष प्रजापति और प्रसूति के घर हुआ था। पिता के यज्ञ में प्राणों की आहुति देने के बाद माता सती ने हिमवान (हिमवंत) व मैनावती के घर पार्वती के रूप में जन्म लिया। हिमवान वास्तव में हिमालय ही हैं। यहीं शिव बारह ज्योतिर्लिगों में सर्वोच्च केदारेश्वर (केदारनाथ) ज्योतिर्लिग के रूप में विराजमान में हैं।

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    पौड़ी जिले में नीलकंठ महादेव व ताड़केश्वर धाम हों या जौनसार-बावर में पांच भाई महासू, अल्मोड़ा में जागेश्वर धाम हो या बागेश्वर में बैजनाथ धाम, देहरादून में टपकेश्वर महादेव हों या उच्च हिमालय में स्थित द्वितीय केदार मध्यमेश्वर, तृतीय केदार तुंगनाथ, चतुर्थ केदार रुद्रनाथ व पंचम केदार कल्पेश्वर और टिहरी जिले में स्थित बूढ़ा केदार-सभी शिव के रूप ही हैं। 

    यहां नाथ संप्रदाय का भी काफी प्रभाव रहा है। इस समुदाय से जुड़े लोग भी शिव के ही उपासक हैं। इसलिए महाशिवरात्रि पर्व का यहां अलग ही उल्लास देखने को मिलता है और फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को पूरा उत्तराखंड शिवमय हो जाता है।

    अनंत प्रकृति की साक्षात मूर्ति

    अनंत ब्रह्मांड का अक्स ही लिंग है। इसीलिए उसका आदि और अंत मनुष्य तो छोड़िए, देवताओं के लिए भी अज्ञात है। सौरमंडल के ग्रहों के घूमने की कक्षा ही शिव तन पर लिपटे सर्प हैं। ‘मुंडकोपनिषद’ कहता है कि सूर्य, चंद्र और अग्नि आपके तीन नेत्र हैं। बादलों के झुरमुट जटाएं, आकाश जल जटाओं में विराजमान गंगा और संपूर्ण ब्रह्मांड आपका शरीर है। शिव कभी गर्मी के आसमान (शून्य) की तरह कपरूर गौर या चांदी की तरह दमकते, तो कभी सर्दी के आसमान की तरह मटमैले होने से राख-भभूत लिपटे तन वाले हैं। कहने का तात्पर्य शिव सीधे-सीधे ब्रह्मांड यानी अनंत प्रकृति की ही साक्षात मूर्ति हैं।

    मानवीकरण में वायु प्राण, दस दिशाएं पंचमुख महादेव के दस कान, हृदय संपूर्ण विश्व, सूर्य नाभि या केंद्र और अमृत जलयुक्त कमंडल माना गया है। लिंग शब्द का अर्थ चिह्न, निशान या प्रतीक है। शून्य, आकाश, अनंत ब्रह्मांड और निराकार परम पुरुष का प्रतीक होने से इसे लिंग कहा गया है। स्कंद पुराण में उल्लेख है कि आकाश स्वयं लिंग है। धरती उसका पीठ या आधार है और सब अनंत शून्य से पैदा हो उसी में लय होने के कारण इसे लिंग कहा गया है।

    जीवन रूपी चंद्रमा व शिवरूपी सूर्य का मिलन

    यूं तो हर माह पड़ने वाली कृष्ण चतुर्दशी शिवरात्रि कही जाती है, लेकिन फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी इनमें सबसे महत्वपूर्ण है और महाशिवरात्रि कहलाती है। ज्‍योतिष शास्त्र के अनुसार फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को चंद्रमा सूर्य के समीप होता है। इसी समय जीवन रूपी चंद्रमा का शिवरूपी सूर्य के साथ योग मिलन होता है। यही शिवरात्रि का महत्व है। महाशिवरात्रि का पर्व शिव के दिव्य अवतरण का मंगल सूचक है। शिव के निराकार से साकार रूप में अवतरण की रात्रि ही महाशिवरात्रि है। जो जीव को काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर आदि विकारों से मुक्त करके परमसुख, शांति एवं ऐश्वर्य की राह पर ले जाती है।

    शिव तत्व में कल्याण का दर्शन

    शिव तत्व को समझे बिना मानव जीवन का जगत के अन्य पक्षों से संबंध को नहीं समझा जा सकता। शिव तत्व अत्यंत सुंदर तरीके से भगवान के विरोधाभासी गुणों को उजागर करता है। शिव संहारक भी हैं और जीवन देने वाले भी। वे एक ही समय में अज्ञानी भी हैं और ज्ञान के भंडार भी। चतुर भी हैं और दानी भी। उनके संगी-साथी भूत, प्रेत, सर्प इत्यादि हैं, लेकिन वे ऋषि-मुनियों, संतों व देवताओं के भी आराध्य पुरुष हैं। शिव तत्व कल्याण का दर्शन है। इसी तत्व के मर्म को समझकर हम समाज में सहचर्य, एकात्मकता और सदगुणों का प्रचार कर सकते हैं।

    महाशिवरात्रि के शुभ मुहूर्त

    • निशीथकाल पूजा : 24.07 से 24.57 बजे तक
    • पारण का समय : 06.46 से 15.26 बजे तक (5 मार्च)
    • चतुर्दशी तिथि आरंभ : 4 मार्च 16.28 बजे से
    • चतुर्दशी तिथि समाप्त : 5 मार्च 19.07 बजे
    • चतुर्दशी पहले ही दिन निशीथव्यापिनी हो, तो उसी दिन महाशिवरात्रि मनाते हैं। रात का आठवां मुहूर्त निशीथ काल कहलाता है। जब चतुर्दशी तिथि शुरू हो और रात का आठवां मुहूर्त चतुर्दशी तिथि में ही पड़ रहा हो, तो उसी दिन शिवरात्रि मनानी चाहिए।
    • चतुर्दशी दूसरे दिन निशीथकाल के पहले हिस्से को छुए और पहले दिन पूरे निशीथ को व्याप्त करे, तो पहले दिन ही महाशिवरात्रि मनाई जाती है।
    • इन दो स्थितियों को छोड़कर बाकी हर स्थिति में व्रत अगले दिन ही किया जाता है।

    महादेव के अलंकरण

    • वृषभ: वृषभ (बैल) का अर्थ धर्म है। वेद ने धर्म को चौपाया प्राणी कहा है। ये चार पैर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हैं। शिव इस वृषभ (नंदी) की सवारी करते हैं यानी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष उनके अधीन हैं।
    • त्रिशूल: संसार में तीन तरह की प्रवृत्तियां सत, रज और तम हर व्यक्ति में कम या ज्यादा मात्रा में मौजूद हैं। त्रिशूल के तीन नुकीले सिरे इन तीनों प्रवृत्तियों के द्योतक हैं। शिव का संदेश यही है कि इन गुणों पर हमारा पूर्ण नियंत्रण हो।
    • हिमालय में वास: जीवन की कठिनाइयों से जूझकर शिव तत्व सफलता के सोपान को प्राप्त करता है। शिव भक्त संघर्षों से घबराता नहीं, बल्कि उन्हें उपयोगी बनाते हुए हिमालय के समान ऊंचाइयों को प्राप्त करता है।
    • गंगा: सिर से गंगा की जलधारा बहने से आशय ज्ञान गंगा से है। गंगा यहां ज्ञान की प्रचंड आध्यात्मिक शक्ति के रूप में अवतरित होती है। जिसे संभालने के लिए शिवत्व ही उपयुक्त है।
    • नीलकंठ: शिव ने हलाहल विष को अपने कंठ में धारण कर लिया, उसे न उगला और न पिया ही। तात्पर्य यही है कि विषाक्तता को न तो आत्मसात करें, न ही विक्षोभ उत्पन्न कर उसे उगलें ही। यही योग सिद्धि है।
    • व्याघ्र चर्म: शिव बाघ का चर्म धारण करते हैं। जीवन में बाघ जैसे ही साहस और पौरुष की आवश्यकता होती है, ताकि हम अनर्थों और अनिष्टों से जूझ सकें।
    • चंद्रमा: चंद्रमा मन की मुदितावस्था एवं पूर्ण ज्ञान का प्रतीक है। शिव भक्त का मन सदैव चंद्रमा की भांति प्रफुल्लित और उसी के समान खिला रहता है।
    • मुंडमाला: राजा व रंक समानता से इस शरीर को छोड़ते हैं। वे सभी एकसूत्र में पिरो दिए जाते हैं। यही समत्व योग है। जिस चेहरे को हम बीसियों बार शीशे में देख सजाते- संवारते हैं, वह हड्डियों का ढांचा मात्र है।
    • भस्म: मृत्यु को जो भी जीवन के साथ गुंथा हुआ देखता है, उस पर न आक्रोश के आतप का आक्रमण होता, न भीरुता के शीत का ही। वह निर्विकल्प-निर्भय बना रहता है।
    • तीसरा नेत्र: सृष्टा ने प्रत्येक मनुष्य को तीसरा नेत्र दिया है। सामान्य परिस्थितियों में वह विवेक के रूप में जाग्रत रहता है, पर वह स्वयं में इतना सशक्त और पूर्ण होता है कि वासना जैसे गहन प्रकोप भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते।
    • सर्प: शिव के गले में लिपटा नाग इस बात का संकेत है कि भले ही कोई जीव कितना भी जहरीला क्यों न हो, पर्यावरण संतुलन में उसका भी महत्वपूर्ण योगदान है।
    • डमरू: डमरू ज्ञान, कला, साहित्य और विजय का प्रतीक है। उसके हर शब्द में सत्यम, शिवम, सुंदरम की ध्वनि प्रस्फुटित होती है और मंत्रमुग्ध-सा कर देती है।
    • मरघट में वास: मरण भयावह नहीं है और न उसमें अशुचिता है। हर व्यक्ति को मरण के रूप में शिवसत्ता का ज्ञान बना रहे, इसलिए उन्होंने शिव ने अपना डेरा श्मशान में डाला है।
    • शिव गण: पिछडे, दिव्यांग व विक्षिप्तों को हमेशा साथ लेकर चलने से ही सेवा-सहयोग का प्रयोजन बनता है। अगर हम सबको साथ लेकर चल नहीं सकते तो हमें सोचने में मुश्किल पड़ेगी, समस्याओं का सामना करना पड़ेगा और फिर जिस आनंद एवं खुशहाली में शिव के भक्त रहते हैं, हम रह नहीं पाएंगे।
    • गृहस्थ योगी: शिव गृहस्थ होकर भी पूर्ण योगी हैं। वे अपनी सहधर्मिणी को भी मातृशक्ति के रूप में देखते हैं। ऋद्धि-सिद्धि उनके पास रहने में गर्व की अनुभूति करती हैं। सार यही है किगृहस्थ रहकर भी आत्मकल्याण की साधना असंभव नहीं।
    • शिव परिवार: शिव परिवार के सभी सदस्य अपने-अपने व्यक्तित्व के धनी एवं स्वतंत्र रूप से उपयोगी होने के बावजूद एक-दूसरे के पूरक हैं। समाज को जोड़ने का यही भाव हमें शिव तत्व की प्राप्ति कराता है।

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