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    प्रकृति आज भी निभा रही है फूलदेई की परंपरा

    By Sunil NegiEdited By:
    Updated: Fri, 10 Mar 2017 04:00 AM (IST)

    होली के फाग की खुमारी के साथ दूर पहाड़ों के घर-आंगन ऋतुरैंण और चैती गायन में डूबने लगे हैं। बच्चे जंगल से फ्योंली, बुरांश, मेलू के अलावा कचनार, आडू़ के फूल चुनकर लौट आए हैं।

    प्रकृति आज भी निभा रही है फूलदेई की परंपरा

    देहरादून, [दिनेश कुकरेती]: वसंत के आगमन के साथ ही कंदराएं बुरांश की लालिमा और गांव आडू़ व खुबानी के गुलाबी-सफेद फूलों से दमकने लगे हैं। यह बदलाव लोकगीतों के गायन में भी साफ नजर आ रहा है। होली के फाग की खुमारी के साथ दूर पहाड़ों के घर-आंगन ऋतुरैंण (ऋतु आधारित गीत) और चैती गायन में डूबने लगे हैं। मुंह अंधेरे छोटे-छोटे बच्चे जंगल से फ्योंली, बुरांश, मेलू व बासिंग के अलावा कचनार, आडू़, खुबानी व पुलम के फूल चुनकर लौट आए हैं। अब रिंगाल की टोकरी में सजे इन फूलों को वे हर घर की देई (देहरी) पर बिखेर रहे हैं और साथ में गा रहे हैं, 'फूलदेई थाली, फूलदेई, छम्मा देई, देणी द्वार, भर भकार, ये देली स बारंबार नमस्कार, फूले द्वार...फूल देई- छम्मा देई।'
    मुझे याद हो आए हैं बचपन के वो दिन, जब हम भी ऐसे ही फूलों की टोकरी सजाकर आसपास के घरों में घूमा करते थे। इस थाल में गेहूं-जौ की नन्हीं बाली भी होती थी। जिस घर की देहरी पर हम फूल डालते, उस घर से हमें पीतल का सिक्का, गुड़, चावल व सई खाने को मिलता और खिलखिला उठते हमारे चेहरे। शायद इसीलिए फूलदेई (फूल संक्रांति) को बच्चों का त्योहार भी कहा जाता है। 
    पहाड़ में बच्चों, खासकर अविवाहित लड़कियों के लिए वसंत के आगमन का विशेष महत्व होता है। गढ़वाल के कई गांवों में तो यह त्योहार पूरे महीने मनाया जाता है। गांव की बेटियां हर दिन भोर होते ही पड़ोसियों की दहलीज पर फूल रख आती हैं। इस दौरान वह गाती हैं, 'फूलदेई-फूलदेई फूल संगरांद, सुफल करो नयो साल तुमुक श्री भगवान, रंगीला-सजीला फूल ऐ गीं, डाला-बोटला हर्या ह्वेगीं, पौन-पंछी दौड़ी गैना, डाल्यूं फूल है सदा रैन।'
    कई जगह इस पर्व को बच्चों के अलावा पूरे परिवार के लोग मनाते हैं। वे अपने घरों में बोयी गई हर्याल (हरियाली) की टोकरियों को गांव के चौक पर इकट्ठा कर उसकी सामूहिक पूजा करते हैं। फिर हर्याल को अपनी देहरी पर सजाया जाता है। एक तरह से यह प्रकृति का अभिवादन करता है। चैत के महीने पहाड़ में विवाहित बेटियों (धियाण) को कलेवा देने की परंपरा भी है। कुमाऊं में इसे भिटोली (भेंट करना) कहा जाता है। 
    पुराने जमाने में मायके वालों के पास यह बेटी की कुशलक्षेम पूछने का बहाना भी हुआ करता था। इस परंपरा के अनुसार भाई अपनी बहन के पास कलेवा या भिटोली लेकर उसके मायके जाते हैं। बहन खुशी-खुशी अपने आस-पड़ोस में इस कलेवा को बांटती है। हालांकि, समय के साथ यह परंपरा भी अब रस्मी तौर पर रह गई है।
    अब फूलदेई के बहाने चैत के महीने पहाड़ से जुड़ी कुछ अन्य परंपराओं का भी जिक्र कर लिया जाए, जो अब किताबों में सिमट गई हैं। पहले गांव में दास (ढोल-दमाऊ वादक) हर घर जाकर शुभकामनाएं देते थे। इस दौरान वे चैती गायन करते थे, यथा-'तुमरा भंडार भरियान, अन्न-धनल बरकत ह्वेन, औंद रयां ऋतु मास, औंद रयां सबुक संगरांद। फूलदेई-फूलदेई फूल संगरांद।' (तुम्हारे भंडार भरे रहें, अन्न-धन की वृद्धि हो, ऋतु और महीने आते रहें, सबके लिए सक्रांति का पर्व खुशियां लेकर आता रहे)। इसी दिन के बाद वे गांव की हर विवाहिता (धियाण) के ससुराल जाकर वहां दान मांगने के लिए जाते थे।

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