गुरबत में जिंदगी बसर कर रहीं बहादुर शाह जफर की पौत्रवधू
मुगल शासक बादशाह बहादुर शाह जफर की पौत्रवधू सुल्ताना बेगम कोलकाता की झुग्गी बस्ती के एक कमरे में अपने नवासे के साथ फाकाकशी में जिंदगी गुजारने को मजबूर ...और पढ़ें

देहरादून, [राकेश खत्री]: उनके पूर्वजों ने हिंदुस्तान के बड़े हिस्से पर चार सदी तक शासन किया। भव्य महलों में शान-औ-शौकत की जिंदगी बसर की, लेकिन अंतिम मुगल शासक बादशाह बहादुर शाह जफर की पौत्रवधू सुल्ताना बेगम के नसीब को ऐसी शान-औ-शौकत तो दूर, एक सुकून वाला घर भी नसीब नहीं हुआ। आज वह कोलकाता की झुग्गी बस्ती के एक कमरे में अपने नवासे के साथ फाकाकशी में जिंदगी गुजारने को मजबूर हैं। हालांकि, मुगल शासकों की ठसक उनकी जीवन शैली में अब भी बनी हुई है और हिंदुस्तान की सरजमीं के लिए अपार प्रेम एवं श्रद्धा का भाव उनकी आंखों में साफ झलकता है। बावजूद इसके हुकूमत के प्रति उनके मन में निराशा भी है।
इतिहास में खासी रुचि रखने वाले देहरादून के विकासनगर निवासी अपने करीबी अब्दुल वाहिद हुसैन मिर्जा के घर आईं सुल्ताना बेगम ने 'दैनिक जागरण' से अपना दर्द कुछ यूं बयां किया। बताया कि उनके शौहर मिर्जा मोहम्मद बेदार बख्त के जीवनकाल में सरकार ने उन्हें 400 रुपये पेंशन जीवन बसर करने के लिए दी थी। 1980 में शौहर की मौत के बाद पेंशन बंद हो गई तो उन्हें अपने एक पुत्र व पांच बेटियों की परवरिश के लिए कोलकाता के डॉलीगंज इलाके में चाय की दुकान खोलनी पड़ी। 1981 में पश्चिम बंगाल सरकार ने उन्हें दो कमरे का सरकारी मकान दिया, जिसे 1983 में वापस ले लिया गया।
तब से आज तक वे कोलकाता के हावड़ा में रहने वाले अपने सिख मुहंबोले भाई के घर एक कमरे में जीवन बसर कर रही हैं। हालांकि, वर्ष 2010 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के प्रयासों से केंद्र सरकार ने उन्हें छह हजार रुपये मासिक पेंशन देनी शुरू की है। मगर, इतनी रकम से आज के दौर में घर कहां चलता है।
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पूर्वजों के मकबरे पर जाने को देना पड़ रहा किराया
अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की पौत्रवधु सुल्ताना बेगम नम आंखों से बताती हैं कि वह हर वर्ष अपने पूर्वज हुमायूं के मकबरे पर फूल चढ़ाने जाती हैं। इसके लिए उन्हें टिकट खरीदना पड़ता है। इसी तरह मुगल शासन की शान रह चुके लालकिला में जाने पर भी उन्हें किराया चुकाना पड़ता है। कहती हैं, अपने ही घर को देखने के लिए किराया देने से बड़ा कष्ट और क्या हो सकता है।
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हिंदुस्तानियत ही हमारी पहचान
सुल्ताना बेगम ने बताया कि कुछ वर्ष पूर्व वे किसी के बुलावे पर पाकिस्तान गई थीं। वहां उनसे पूछा गया कि पाकिस्तान की जमीं पर आकर आपको कैसा लग रहा है। उनका जवाब था, वो उस सरजमीं पर खड़ी हैं, जो 1947 तक हिंदुस्तान था। आज भी दोनों मुल्कों की पहचान हिंदुस्तानियत ही है।
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विरासत में मिली मुल्क के प्रति वफादारी
हालांकि हुकूमतों ने उनको नजरंदाज कर दिया, मगर मुल्क के प्रति वफादारी उनमें कूट-कूटकर भरी हुई है। मुल्क के प्रति वफादारी के चलते ही सुल्ताना बेगम ने किसी के सामने हाथ फैलाकर खुद व मुल्क को शर्मिंदा करने के बजाए चाय बेचकर बच्चों की परवरिश करना मुनासिब समझा।
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रहने को घर मिले
सुल्ताना बेगम कहती हैं कि हिंदुस्तान की आजादी के बाद सभी रजवाड़ों को उनके महलों में रहने दिया गया, मगर मुगल शासकों की सभी संपत्तियां सरकार ने कब्जे में ले लीं। कहा कि उन्हें दिल्ली के मेहरौली स्थित जफर महल पर मालिकाना हक मिलना चाहिए।
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1857 के विद्रोह का नेतृत्व किया था जफर ने
अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की ही अगुआई में 1857 का विद्रोह हुआ। विद्रोह को कुचलने के बाद अंग्रेजों ने जफर को पत्नी जीनत महल व कुछ अन्य रिश्तेदारों के साथ रंगून भेज दिया। वहीं, 1862 में उनकी मौत हुई। विद्रोह के बाद जफर के कई बच्चों व पोतों ही हत्या कर दी गई। सुल्ताना बेगम के ससुर जमशेद बख्त नजरबंदी के दौरान रंगून में पैदा हुए। उनका निकाह नादिरजहां बेगम से हुआ। नादिरजहां बेगम की मौत के बाद जमशेद अपने पुत्र बेदार बख्त को लेकर हिंदुस्तान आ गए। जहां आजादी मिलने तक उन्होंने अपनी पहचान छिपाए रखी।

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