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उनके हाथों से कलम चली और कागज गीतों की खुशबू से महक उठे

कवि गीतकार गायक संगीकार रंगकर्मी नृत्य निर्देशक नाट्य निर्देशक संवाद जैसी तमाम उपमाएं उनके कद के सामने बौनी पड़ने लगीं। ऐसा ही विलक्षण व्यक्तित्व था जीत सिंह नेगी का।

By Sunil NegiEdited By: Published: Mon, 22 Jun 2020 09:07 AM (IST)Updated: Mon, 22 Jun 2020 09:07 AM (IST)
उनके हाथों से कलम चली और कागज गीतों की खुशबू से महक उठे

देहरादून, दिनेश कुकरेती। उनके हाथों से कलम चली और कागज गीतों की खुशबू से महक उठे। कंठ से सुर फूटे तो डांडी-कांठी झूम उठीं। कदमों की आहट पर पर खेत-खलिहान थिरकने लगे। वह आगे बढ़ते गए और माटी की महक से लोक खिलखिला उठा। कवि, गीतकार, गायक, संगीकार, रंगकर्मी, नृत्य निर्देशक, नाट्य निर्देशक, संवाद लेखक जैसी तमाम उपमाएं उनके कद के सामने बौनी पड़ने लगीं। ऐसा ही विलक्षण व्यक्तित्व था गढ़वाली के आद्यकवि जीत सिंह नेगी का।

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हम आपको उस दौर में लिए चलते हैं, जब ग्रामोफोन व रेडियो के सिवा मनोरंजन का कोई साधन नहीं था। लेकिन, तब यह साधन भी पैसे वालों के पास ही हुआ करते थे। रेडियो रखना समृद्धि का सूचक था तो ग्रामोफोन विलासिता का। वर्ष 1955 में आकाशवाणी दिल्ली से गढ़वाली गीतों का प्रसारण आरंभ हुआ। तब वह जीत सिंह नेगी ही थे, जिन्हें रेडियो पर प्रथम बैच का 'गीत गायक' होने का श्रेय मिला। तिबारियां लोक के सुरों में थिरकने लगीं और झूम उठे खेत-खलिहान। लोक को उसका मसीहा जो मिल गया था।  नेगीजी के कंठ से फूटे हृदयस्पर्शी स्वर 'तू होली ऊंची डांड्यूं मा बीरा घसियारी का भेष मा, खुद मा तेरी सड़क्यूं पर मी रोणु छौं परदेस मा' जब घसेरियों के कानों में पड़े तो उनकी आंखें छलछला उठीं।

लोकगीतों के इतिहास में यह ऐसी कालजयी रचना है, जिसने लोकप्रियता की सारी सीमाएं लांघ डालीं। हर उत्तराखंडी के हृदय में गीत के रूप में 'जीत' धड़कने लगा। लोक के समंदर में हलचल पैदा करने वाला यह अकेला गीत नहीं था। इससे बहुत पहले वर्ष 1949 में नेगीजी 'यंग इंडिया' ग्रामोफोन कंपनी मुंबई से छह गढ़वाली गीतों की रिकाडिंग करा चुके थे। उस जमाने में ग्रामोफोन की शोभा बने ये गीत बहुत ही प्रचलित हुए और सराहे भी गए। बाद के वर्षों में तो नेगीजी उत्तराखंड की आवाज बन गए।

उनके हर गीत में पहाड़ का प्रतिबिंब झलकता है।

अभावों से अभिशप्त प्रवासी पहाड़ी के विकल करुण जीवन के संयोग-वियोग के सैकड़ों गीत नेगीजी ने लिखे। इनमें निश्चल, सहज और नैसॢगक प्रेम की  अभिव्यंजना होती है। गीतों के अलावा नेगीजी ने कई कालजयी नाटकों की रचना भी की। 'मलेथा की कूल', 'भारी भूल', 'जीतू बगड्वाल' उनके प्रसिद्ध नाटक हैं, जिनका देश के कई शहरों में मंचन हो चुका है। आखिरी समय में भी उनकी बूढ़ी आंखें सपना देखती रहीं, एक समृद्ध संस्कृति का, एक खुशहाल उत्तराखंड का। हालांकि, वृद्धावस्था के चलते उनके कदम डगमगाने लगे थे, लेकिन न उनका संकल्प डिगा, न कलम ही थमी।

व्यापक था नेगी का फलक

गढ़वाल के सांस्कृतिक कार्यकलापों में लोकगायक जीत सिंह नेगी के नेतृत्व की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। गढ़वाली गीतों की धुन बनाने और सजाने-संवारने में उनकी विशिष्टता को लोक साहित्य समिति उत्तर प्रदेश के सचिव विद्यानिवास मिश्र ही नहीं, आकाशवाणी दिल्ली के चीफ प्रोड्यूसर (म्यूजिक) ठाकुर जयदेव सिंह ने भी मान्यता दी। उनके गीतों की व्यापकता और लोकप्रियता को भारतीय जनगणना सर्वेक्षण विभाग ने भी प्रमाणित किया है।

कब तक सिसकती रहेगी दुधबोली 

तकरीबन सात वर्ष पूर्व मुझे लोकगायक जीत सिंह नेगी के साक्षात्कार का मौका मिला। संभवत: यह उनका अंतिम साक्षात्कार था। लोक का जिक्र आया और वह कहने लगे, 'हम कहां जाना चाहते थे और कहां पहुंच गए। कहां खो गई वह अपण्यास (अपनापन)। सोचा था अपने राज्य में अपनी परंपराएं समृद्ध होंगी। रीति-रिवाजों के प्रति लोगों का अनुराग बढ़ेगा। लेकिन, यहां तो उल्टी गंगा बहने लगी। कला और कलाकार, दोनों ही आहत हैं। दुधबोली सिसक रही है, पर उसके आंसू किसी को नजर नहीं आते हैं। सब अपने में मस्त हैं, न संस्कृति की चिंता है, न संस्कारों की ही। 'यह कहते-कहते 'सुर सम्राट' जीत सिंह नेगी अतीत की गहराइयों में खो गए।

अब मेरी उत्कंठा बढ़ने लगी थी, पर कुछ बोला नहीं। बल्कि, यूं कहें कि बोलने की हिम्मत ही नहीं हुई। खैर! नेगीजी ने ही खामोशी तोड़ी और कहने लगे, 'बड़ी पीड़ा होती है, जब अपनों की करीबी भी बेगानेपन का अहसास कराती है। सबकी आंखों पर स्वार्थ का पर्दा पड़ा हुआ है। फिर वह नेता हों या अफसर, किसी का उत्तराखंड से कोई लेना-देना नहीं। सोचा था अपने राज में अपनी भाषा-संस्कृति को बढ़ावा मिलेगा। गढ़वाली-कुमाऊंनी को सम्मान मिलेगा। लेकिन, हुआ क्या। इस कालखंड में हम गढ़वाली-कुमाऊंनी को दूसरी राजभाषा बनाने का साहस तक नहीं जुटा पाए। 

नेगीजी का एक-एक शब्द हथौड़े की तरह चोट कर रहा था। लग रहा था, जैसे उत्तराखंड खुद अपनी पीड़ा बयां कर रहा है। कहने लगे, 'मैंने पैसा कमाने के बारे में कभी नहीं सोचा। मेरा उद्देश्य हमेशा ही लोक संस्कृति की समृद्धि रहा। लेकिन, आज संस्कृति को मनोरंजन का साधन मात्र मान लिया गया है। क्या ऐसे बचेगी संस्कृति।' नेगीजी गीतों में बढ़ती उच्छृंखलता व हल्केपन से भी बेहद आहत रहते थे। बोले, 'गीतों का अपनी जमीन से कटना संस्कृति के लिए बेहद नुकसानदायक है। इससे न गंभीर कलाकार पैदा होंगे, न कला का ही संरक्षण होने वाला।' 

उनके मुताबिक कवि तो युगदृष्टा-युगसृष्टा होता है। वह इतिहास ही नहीं संजोता, भविष्य का मार्गदर्शन भी करता है। बातों का सिलसिला चलता रहा। मजा भी आ रहा था। इच्छा हो रही थी कि नेगीजी कहते रहें और मैं सुनता रहूं। लेकिन, समय की पाबंदियां हैं। सो, मैंने भी जाने की इजाजत मांगी। धीरे-धीरे बाहर तक छोड़ने के लिए आए और विदा लेते वक्त यह कहना भी नहीं भूले कि अब तुम ही कुछ कर सकते हो, अपनी संस्कृति के लिए। अपनी बोली-भाषा के लिए।

जीवन वृत्त

  • नाम : जीत सिंह नेगी
  • जन्म तिथि : 2-2-1925
  • माता-पिता : रूपदेई देवी-सुल्तान सिंह नेगी
  • जन्म स्थान : ग्राम अयाल पट्टी पैडुलस्यूं पौड़ी गढ़वाल
  • वैवाहिक स्थिति : विवाहित बच्चे : एक पुत्र, दो पुत्रियां
  • शिक्षा : इंटरमीडिएट
  • हाल निवास : धर्मपुर देहरादून
  • प्रकाशित रचनाएं: गीत गंगा, जौंल मगरी व छम घुंघुरू बाजला (गीत संग्रह), मलेथा की कूल  (ऐतिहासिक गीत नाटक), भारी भूल (सामाजिक नाटक)
  • अप्रकाशित: जीतू बगड्वाल व रामी (ऐतिहासिक गीत नाटिका), राजू पोस्टमैन (एकांकी), पतिव्रता रामी (हिंदी नाटक)
  • मंचित नाटक: भारी भूल, मलेथा की गूल, जीतू बगड्वाल, रामी व राजू पोस्टमैन।
  • आकाशवाणी से प्रसारित: गीत नाटिका जीतू बगड्वाल व मलेथा की कूल। गीत नाटिका रामी।

उपलब्धियां: 

  • गढ़वाली लोकगीतों की विभिन्न लुप्त, अर्धलुप्त धुनों के संवर्धक, रचियता एवं स्वर सम्राट। अन्य पहाड़ी प्रदेशों की मिलती-जुलती मधुर धुनों के समावेश से उत्तराखंड परिवार की धुनों में अभिवृद्धि की। प्राचीन, लुप्त व विस्मृत धुनों को अपनी मौलिक प्रतिभा से पुनर्जीवित किया।
  • प्रथम गढ़वाली लोक गीतकार, जिन्होंने गढ़वाली लोकगीतों की सर्वप्रथम 'हिज मास्टर व्हाइस एंड ऐंजिल न्यू रिकार्डिंग' कंपनी में छह गीतों की रिकार्डिंग की।
  • गढ़वाली लोकगीतों के माध्यम से गढ़वाल के प्राचीन व आधुनिक सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक व धार्मिक विचारों को वहां के जनजीवन से जोड़कर नाटक व गीतों में पिरो अभिव्यक्त किया।
  • भविष्य की पीढ़ी के गीतकारों के लिए गढ़वाली लोकगीतों के स्वर, ताल, लय व धुन को शोध के विषय का मार्ग प्रशस्त किया।
  • गढ़वाली लोकगीतों व नाटकों के माध्यम से रचनाकारों को उनके जीवन-यापन से जोड़ के लिए मार्गदर्शन किया। उनकी कई रचनाओं के आज चलचित्र भी बन रहे हैं।

सांस्कृतिक गतिविधियां

  • वर्ष 1942 में छात्र जीवन से ही गढ़वाल की सांस्कृतिक राजधानी पौड़ी के नाट्य मंचों से स्वरचित गढ़वाली गीतों के सस्वर पाठ से गायन जीवन का शुभारंभ। प्रारंभ से ही आकर्षक सुरीली धुनों में लोकगीत गाकर लोकप्रिय हो गए थे।
  • वर्ष 1949 में 'यंग इंडिया' ग्रामोफोन कंपनी मुंबई से छह गढ़वाली गीतों की रिकार्डिंग। ये गीत बहुत ही प्रचलित हुए और सराहे भी गए।
  • वर्ष 1954 में मुंबई से ही फिल्म कंपनी मूवी इंडिया द्वारा निर्मित 'खलीफा' चलचित्र में सहायक निर्देशक की भूमिका निभाई। उन्हीं दिनों फिल्म 'चौदहवीं रात', जो मुंबई की 'मून आर्ट पिक्चर'  ने बनाई थी, उसमें भी सहायक निर्देशक के रूप में काम किया।
  • नेशनल ग्रामोफोन रिकार्डिंग कंपनी मुंबई में भी सहायक संगीत निर्देशक के पद पर कार्य किया।
  • वर्ष 1955 में आकाशवाणी दिल्ली से गढ़वाली गीतों का प्रसारण आरंभ होने पर प्रथम बैच के 'गीत गायक'।
  • 1955 में ही दिल्ली की रघुमल आर्य कन्या पाठशाला में छात्राओं को सांस्कृतिक दिशा देन हेतु रंगारंग कार्यक्रमों का निर्देशन। इसी वर्ष कानपुर में चीनी प्रतिनिधि मंडल के स्वागत समारोह में पर्वतीय जन विकास समिति के तत्वावधान में सांस्कृतिक दल का नेतृत्व। इसके अलावा गढ़वाल भूमि सुधार से संबंधित दिल्ली स्थित प्रवासी गढ़वालियों के वृहद् सम्मेलन में प्रगतिवादी एवं कृषि उत्थान संबंधी गढ़वाली गीतों के माध्यम से  जनजागरण में प्रमुख योगदान।

सम्मान

  • 1956 में गढ़वाली गीतों के प्रथम संग्रह गीत गंगा के लिए अखिल गढ़वाल सभा देहरादून द्वारा सम्मानित
  • 1956 में प्रांतीय रक्षा दल देहरादून द्वारा आयोजित खेलकूद व सांस्कृतिक प्रतियोगिता के अवसर पर जिलाधीश मोहम्मद बट द्वारा सम्मानित
  • 1955 में पर्वतीय जन विकास संस्था दिल्ली की ओर गढ़वाली लोक संगीत के लिए सम्मानित
  • 1956 में सरस्वती महाविद्यालय दिल्ली द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए सम्मानित
  • 1957 में आचार्य नरेंद्र देव शास्त्री व सांसद भक्तदर्शन के हाथों प्रशस्ति पत्र
  • पर्वतीय सांस्कृतिक सम्मेलन देहरादून की ओर से 1958 में गणतंत्र दिवस के मौके पर लोकगीतों के रंगारंग कार्यक्रमों के लिए सम्मानित
  • 1962 में साहित्य सम्मेलन चमोली द्वारा 'लोकरत्न' की उपाधि
  • 1970 में 'मलेथा की कूल' नाटक के सफल मंचन के लिए हिमालय कला संगम देहरादून की ओर से सम्मानित
  • 1979 में डिफेंस एकाउंट्स रिर्केशन क्लब सीडीए देहरादून की ओर से सम्मानित
  • 1980 में लोक संगीत स्वर परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर आकाशवाणी नजीबाबाद की ओर से प्रशस्ति पत्र
  • 1984 में स्वतंत्रता दिवस के मौके पर दून मनोरंजन क्लब की ओर से जिलाधीश अतुल चतुर्वेदी के हाथों सम्मानित
  • 1990 में गढ़वाल भ्रातृ मंडल मुंबई द्वारा 'गढ़ रत्न' 
  • 1995 में उत्तरप्रदेश संगीत अकादमी द्वारा अकादमी पुरस्कार, नागरिक परिषद संस्थान देहरादून द्वारा 'दून रत्न'
  • 1999 में उत्तराखंड महोत्सव देहरादून में 'मील का पत्थर' सम्मान
  • 2000 में अल्मोड़ा संघ की ओर से प्रथम 'मोहन उप्रेती लोक संस्कृति' पुरस्कार
  • 2003 देहरादून के 18 सामाजिक संगठनों की ओर से सामूहिक नागरिक अभिनंदन
  • 2011 में डा.शिवानंद फाउंडेशन की ओर से 'डॉ. शिवानंद नौटियाल स्मृति सम्मान' 
  • वर्ष 2016 में दैनिक जागरण की ओर से आयोजित स्वरोत्सव में 'लाइफ टाइम अचीवमेंट' सम्मान

एलबम

  • रवांई की राजुला
  • गढ़वाली सिनेमा में योगदान
  • 'मेरी प्यारी ब्वै' के संवाद और गीत लिखे।

श्रद्धांजलि: सदा अमर रहेंगे जीतू तेरे गीत

  • मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने कहा कि जीत सिंह नेगी के निधन की खबर सुनकर झटका लगा। उनके गीत उत्तराखंड की संस्कृति की छाप दिल पर छोड़ते हैं। बचपन से उनके गीत सुनते रहे हैं। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे और परिवार को यह दुख सहन करने की शक्ति प्रदान करे।
  • लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी ने कहा कि होश संभाला, तब से जीत सिंह नेगी की रचनाएं और गीत सुनते आ रहे हैं। उनके कई गीत मैंने खुद गाए हैं। उनके निधन की खबर से बहुत दुख हुआ। वो हमारे गुरु और मार्गदर्शक थे। पर्वतीय संस्कृति के प्रसार में उनका योगदान अतुलनीय है।

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  • संस्कृतिकर्मी अजय जोशी ने कहा कि आधुनिक गढ़वाली लोक संगीत के जनक कहे जाने वाले जीत सिंह नेगी का जाना उत्तराखंड संगीत जगत के लिए एक अपूरणीय क्षति है। बहुआयामी प्रतिभा के धनी जीत सिंह नेगी एक श्रेष्ठ संगीतकार, गीतकार, लेखक, गायक और श्रेष्ठ निर्देशक भी रहे।
  • लोक गायक संगीता ढौंढियाल ने कहा कि उनकी रचनाओं ने लोक संस्कृति के संवर्धन में बड़ा योगदान दिया। सभी प्रमुख लोक कलाकारों के लिए वे प्रेरणा स्रोत रहे। उनका जाना उत्तराखंड को बड़ा नुकसान है। साहित्य और लोक गीतों की दुनिया में वे हमेशा अमर रहेंगे। 

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