उत्तराखंड में पहाड़ से लेकर मैदान तक जंगलों में अतिक्रमण, रामभरोसे सुरक्षा
पहाड़ से लेकर मैदानी इलाकों तक जंगल अतिक्रमण की जद में हैं। विशेषकर तराई और भाबर क्षेत्र में यह दिक्कत ज्यादा गंभीर दिखती है।
देहरादून, केदार दत्त। उत्तराखंड में पहाड़ से लेकर मैदानी इलाकों तक जंगल अतिक्रमण की जद में हैं। विशेषकर तराई और भाबर क्षेत्र में यह दिक्कत ज्यादा गंभीर दिखती है। वजह ये कि इस क्षेत्र में वन भूमि के उपजाऊ और मूल्यवान होने के कारण वहां अतिक्रमण के प्रयास अक्सर सुर्खियां बनते हैं।
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि राज्य में साढ़े नौ हजार हेक्टेयर से ज्यादा वन भूमि अतिक्रमण की गिरफ्त में है। कुछेक स्थान ऐसे भी हैं, जहां वन भूमि पर मानव बस्तियां उग आई हैं। जाहिर है कि अतिक्रमण से जंगल और जंगल में रहने वाले वन्यजीवों की मुश्किलों में इजाफा हो रहा है। परंपरागत रास्तों पर अतिक्रमण से वन्यजीवों का एक से दूसरे जंगल में आवागमन बाधित हुआ है। प्रदेश में चिह्नित 11 गलियारे इसकी तस्दीक करते हैं। सूरतेहाल, जंगली जानवरों की आबादी वाले क्षेत्रों में धमक बढ़ रही है। साथ ही जैव विविधता को भी यह खतरे की घंटी है।
जंगलों में अवैध कटान
यह किसी से छिपा नहीं है कि विषम भूगोल वाले उत्तराखंड में वनों का संरक्षण यहां की परंपरा में शामिल है। पेड़ों को बचाने के लिए 'चिपको आंदोलन' के अंकुर भी उत्तराखंड की सरजमीं पर फूटे। बाद में यह मुहिम देशभर में फैली। यदि राज्य के जंगल आज भी महफूज हैं तो वह यहां के निवासियों की मेहनत का ही परिणाम है, लेकिन कहते हैं न कि समय के साथ कुछ बुराइयां भी पनपती हैं।
पेड़ों के अवैध कटान की बीमारी यहां भी कम नहीं है। वन तस्कर इस राज्य में भी सक्रिय हैं। एक दशक के आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो 10 साल में अवैध कटान के 12662 मामले आ चुके हैं। यानी, प्रतिवर्ष औसतन 1266 मामले पेड़ कटान के सामने आ रहे और प्रतिमाह औसतन 106। साफ है कि बड़ी संख्या में हरे पेड़ों पर आरी चल रही है। इसे थामने को ठोस कदम उठाने की जरूरत है।
रामभरोसे जंगलों की सुरक्षा
ईको सिस्टम सर्विसेज में उत्तराखंड के वनों का अहम योगदान है। राज्य से प्रतिवर्ष मिल रही तीन लाख करोड़ की ईको सिस्टम सर्विसेज में अकेले वनों की भागीदारी करीब 98 हजार करोड़ है। बावजूद इसके, वन और इनमें रहने वाले वन्यजीवों की सुरक्षा को लेकर वह तेजी नजर नहीं आती, जिसकी दरकार है।
यही कारण भी है कि वन और वन्यजीव तस्कर जंगलों में बेखौफ घुसकर अपनी करतूतों को अंजाम दे देते हैं और वन महकमा बाद में लकीर पीटता रह जाता है। और तो और संरक्षित क्षेत्रों के सबसे महफूज माने जाने वाले कोर तक सुरक्षित नहीं हैं। कोर जोन में शिकारियों और तस्करों की धमक अक्सर सुर्खियां बनती हैं। ऐसे में अक्सर यही बात कही जाती है कि राज्य के जंगलों में वन और वन्यजीवों की सुरक्षा रामभरोसे है। जाहिर है कि इस अहम पहलू पर गंभीरता से मंथन कर ठोस प्रभावी कदम उठाने की दरकार है।
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रणनीति में बदलाव जरूरी
विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले उत्तराखंड में 71.05 फीसद वन भूभाग में फैले वन क्षेत्रों की सुरक्षा निश्चित रूप से किसी चुनौती से कम नहीं है, मगर यह चुनौती ऐसी नहीं कि इससे पार पर पाई जा सके। हालांकि, अवैध कटान, शिकार, अतिक्रमण और अवैध खनन रोकने के लिए वन विभाग के स्तर से कदम उठाए जा रहे हैं। फील्ड कर्मियों को आग्नेयास्त्र और वाहनों की उपलब्धता बढ़ाने के साथ ही सूचना तंत्र को बढ़ाने का दावा है। फिर भी इसके अपेक्षित परिणाम नहीं मिल रहे।
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साफ है कि सिस्टम में कहीं न कहीं खोट है। इसे ढूंढकर सिस्टम को दुरुस्त किया जाना चाहिए। जंगलों के जमीनी रखवालों की संख्या बढ़ानी होगी तो खुफिया तंत्र को सशक्त बनाना आवश्यक है। सबसे अहम तो यह कि वन और वन्यजीवों की सुरक्षा में स्थानीय लोगों का सक्रिय सहयोग लेना होगा। उन्हें यह अहसास दिलाना होगा कि जंगल सरकारी नहीं, बल्कि उनके अपने हैं।
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