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जैवविविधता दिवस: बढ़ रही प्रकृति के खजाने के संरक्षण की चुनौती

मध्य हिमालयी राज्य उत्तराखंड नैसर्गिक सौंदर्य से परिपूर्ण होने के साथ ही जैवविविधता के मामले में बेहद धनी। बावजूद इसके चुनौतियों का पहाड़ भी कम नहीं हैं।

By Edited By: Published: Fri, 22 May 2020 02:58 AM (IST)Updated: Fri, 22 May 2020 08:49 PM (IST)
जैवविविधता दिवस: बढ़ रही प्रकृति के खजाने के संरक्षण की चुनौती
जैवविविधता दिवस: बढ़ रही प्रकृति के खजाने के संरक्षण की चुनौती

देहरादून, केदार दत्त। मध्य हिमालयी राज्य उत्तराखंड नैसर्गिक सौंदर्य से परिपूर्ण होने के साथ ही जैवविविधता के मामले में बेहद धनी। बावजूद इसके चुनौतियों का पहाड़ भी कम नहीं हैं। चुनौती जैव संसाधनों के नियंत्रित दोहन के साथ ही इनके संरक्षण और स्थानीय समुदाय को लाभ दिलाने की। हालांकि, इसके दृष्टिगत सूबे की सभी 7791 ग्राम पंचायतों, 92 नगर निकायों, 95 विकासखंडों और 13 जिला पंचायतों में बॉयोडायवर्सिटी मैनमेजमेंट कमेटियां (बीएमसी) अस्तित्व में आ चुकी हैं, मगर अब असल चुनौती इन्हें गति देने की है। साथ ही तमाम कंपनियां, संस्थाएं और यहां के जैवसंसाधनों का व्यावसायिक उपयोग तो कर रहे, मगर लाभांश में से ग्रामीणों को हिस्सेदारी देने में आनाकानी कर रहे हैं।

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देवभूमि की जैवविविधता

हिमालय के रूप में यहां मौजूद जलस्तंभ से न सिर्फ राज्य बल्कि देश के करोड़ों लोगों की आर्थिकी व आजीविका जुड़ी है। गंगा, यमुना जैसी सदानीरा नदियों के उद्गम यहां के हिमखंडों व सघन वन क्षेत्रों में हैं। 71.05 फीसद हिस्सा वन भूभाग है, जो बेशकीमती जड़ी-बूटियों का भंडार है। बाघ, हाथी समेत दूसरे वन्यजीवों के साथ ही परिंदों, तितलियों का अनूठा संसार यहां बसता है। पारिस्थितिकीय संतुलन को बनाए रखने में राज्य की अहम भूमिका है और सरकार के अनुमान के मुताबिक राज्य से प्रतिवर्ष तीन लाख करोड़ से ज्यादा की पर्यावरणीय सेवाएं मिल रही हैं।

खतरे भी कम नहीं

जैव संसाधनों के अनियंत्रित दोहन से यहां की जैवविविधता के सामने खतरे भी कम नहीं हैं। बड़े पैमाने पर जैव संसाधनों की तस्करी अक्सर सुर्खियां बनती रही हैं। इसी वजह से फ्लोरा-फौना की 31 प्रजातियों पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं। हालांकि, राज्य में जैव विविधता संरक्षण अधिनियम 2017 से लागू है, लेकिन इसके क्रियान्वयन के साथ ही जनसामान्य को जागरूक करने के मद्देनजर प्रभावी कदम उठाने की दरकार है। अधिनियम के तहत त्रिस्तरीय स्थानीय निकायों और पंचायतों में अधिनियम के तहत जैव विविधता प्रबंधन समितियां (बीएमसी) गठित हैं। सभी को पीबीआर (पीपुल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टर) तैयार कर इसमें अपने क्षेत्र के जैव संसाधनों के साथ ही इनका उपयोग करने वालों का ब्योरा दर्ज करना है। बावजूद इसके अभी तक कुछ ही बीएमसी सक्रिय हैं।

कंपनियों की आनाकानी

अधिनियम में प्रविधान है कि जो भी कंपनी, संस्था अथवा व्यक्ति यहां के जैव संसाधनों का वाणिज्यिक उपयोग करेगा, वे अपने लाभांश में से संबंधित गांव, निकाय की बीएमसी को 0.5 से लेकर 3.0 फीसद तक की हिस्सेदारी जैवविविधता बोर्ड के माध्यम देंगे। इससे बीएमसी जैव संसाधनों के संरक्षण करेंगी। बोर्ड ने इस क्रम में 1256 कंपनियां चिह्नित की हैं, मगर इनमें से अभी तक करीब डेढ़ सौ ही यह हिस्सेदारी दे रही हैं। 

यह हैं चुनौतियां

  • पीबीआर के प्रति गंभीरता और अधिनियम के तहत लोगों को लाभ
  • हर क्षेत्र की जैवविविधता अलग है, लिहाजा इस लेकर जनजागरूकता
  • बीएमसी के जरिये क्षेत्र के प्रत्येक जैव संसाधन की बारीकी से निगरानी
  • थल-जल में उपलब्ध जैव संसाधनों का नियंत्रित ढंग से दोहन व संरक्षण को कदम
  • जैव संसाधनों की तस्करी की रोकथाम को ठोस कार्ययोजना

 विशेषज्ञों की राय

डॉ.आरबीएस रावत (चेयरमैन पीबीआर मॉनीटङ्क्षरग कमेटी, उत्तर भारत) का कहना है कि जैव संसाधनों का संरक्षण भी हो और इनसे ग्रामीणों को लाभ भी मिले, यही अधिनियम की अवधारणा भी है। जैवविविधता का संरक्षण ग्रामीणों से बेहतर कोई नहीं कर सकता। ऐसे में पीबीआर में हर जैव संसाधन का उल्लेख, कृषिकरण, पांरपरिक ज्ञान का अभिलेखीकरण पर ध्यान देना होगा। साथ ही यह सुनिश्चित करना होगा कि जैव संसाधनों का व्यवसायिक उपयोग कर रहे लोग हर हाल में लाभांश में से बीएमसीको को हिस्सेदारी दें।

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सच्चिदानंद भारती (संस्थापक पाणी राखो आंदोलन) का कहना है कि  उत्तराखंड की जैवविविधता बेजोड़ है। इसे बचाना भी है और रोजगार से भी जोड़ना है। इसके तहत सीमांत गांवों के लिए विशेष कार्यक्रम चलाया जाना चाहिए। बीएमसी अधिक सक्रिय हों, इसके लिए ठोस रणनीति के साथ आगे बढ़ना होगा।

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