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पारंपरिक बीजों के मामले में विशेषज्ञों को भी मात देती हैं 71 वर्षीय बीजा दीदी, जानिए उनके बारे में

नाम बीजा दीदी उम्र 71 साल। उम्र के इस पड़ाव में भी एक ही चिंता कि उत्तराखंड में पारंपरिक फसलों की अनदेखी हो रही। खासकर इनके बीज बचाने के मामले में। खेती-किसानी के पारंपरिक ज्ञान को आगे बढ़ने का हथियार बनाकर बीजा 26 साल तक इनके संरक्षण में जुटी रहीं।

By Raksha PanthriEdited By: Published: Sat, 12 Jun 2021 03:31 PM (IST)Updated: Sat, 12 Jun 2021 10:40 PM (IST)
पारंपरिक बीजों के मामले में विशेषज्ञों को भी मात देती हैं 71 वर्षीय बीजा दीदी, जानिए उनके बारे में
पारंपरिक बीजों के मामले में विशेषज्ञों को भी मात देती हैं 71 वर्षीय बीजा दीदी।

केदार दत्त, देहरादून। नाम बीजा दीदी, उम्र 71 साल। उम्र के इस पड़ाव में भी एक ही चिंता कि उत्तराखंड में पारंपरिक फसलों की अनदेखी हो रही है। खासकर, इनके बीज बचाने के मामले में। खेती-किसानी के पारंपरिक ज्ञान को आगे बढ़ने का हथियार बनाकर 26 साल तक बीजों के संरक्षण में जुटी रहीं बीजा देवी पढ़ी-लिखी तो नहीं हैं, मगर पारंपरिक बीजों के मामले में वह विशेषज्ञों को भी मात देती हैं। प्रसिद्ध पर्यावरणविद् डा. वंदना शिवा की संस्था नवधान्या से जुड़कर उन्होंने पर्वतीय क्षेत्र की विभिन्न फसलों की करीब 500 किस्म के बीजों के संरक्षण में मुख्य भूमिका निभाई। नतीजतन, उन्हें नाम मिला बीजा दीदी। वह कहती हैं कि पहाड़ की परिस्थितियों के अनुसार खेती में पारंपरिक बीजों को तवज्जो मिलनी चाहिए। इसके लिए बीजों का संरक्षण बेहद आवश्यक है। इससे खाद्य सुरक्षा की दिशा में तो नए आयाम जुड़ेंगे ही, आबोहवा भी सशक्त बनी रहेगी।

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मूल रूप से टिहरी जिले के लोस्तु बडियारगढ़ निवासी बीजा दीदी अब देहरादून में रहती हैं। उनका जीवन बेहद संघर्षपूर्ण रहा। परिस्थितियां ऐसी रहीं कि चाहकर भी स्कूल का मुंह नहीं देख पाईं। होश संभाला तो परिवार के अन्य सदस्यों के साथ खेती में हाथ बंटाने लगी। 13 साल की उम्र में विवाह हुआ तो ससुराल में भी आजीविका का मुख्य स्रोत खेती ही थी।

खेती-किसानी का ज्ञान उन्हें विरासत में मिला। बाद में देहरादून आ गई और 1994 में नवधान्या संस्था से जुड़ गईं। बीजा दीदी बताती हैं कि नवधान्या से जुड़ने के बाद उन्होंने पर्वतीय क्षेत्र में उगाई जाने वाली धान, गेहूं, मंडुवा, कौणी, चीणा, नौरंगी, राजमा, लोबिया, भट समेत तमाम फसलों के बीजों को सहेजने का प्रयास किया। इन बीजों को नवधान्या के फार्म में उगाकर फिर इनसे मिलने वाले बीज का किसानों को वितरण किया जाता है।

कोरोनाकाल में पिछले वर्ष नवधान्या को छोड़ चुकीं बीजा दीदी कहती हैं कि पारंपरिक फसलें यहां की जलवायु, परिस्थिति के अनुरूप हैं। पारंपरिक फसलों के नाम उनकी जुबां पर हैं। पुराने दिनों को याद करते हुए वह बताती हैं कि एक दौर में पहाड़ में सालभर में सात, नौ, ग्यारह व 12 अनाजों की फसलें उगाई जाती थीं। इससे किसानों को वर्षभर के लिए अनाज खेत से ही मिल जाता था। यानी खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भरता थी। आज परिस्थितियां बदली हैं। पलायन, वन्यजीवों का आतंक जैसे कारणों ने खेती की राह में मुश्किलें खड़ी कीं तो परंपरागत फसलें सिमटती चली गईं।

खाद्यान्न के लिए लोग आज बाजार पर निर्भर हो चले हैं। यही चिंता का विषय है। परंपरागत फसलें पूरी तरह जैविक होने के कारण बेहद पौष्टिक हैं, जो आज की बड़ी जरूरत है। बीजा दीदी बताती हैं कि पूर्व में जब वह नवधान्या के दल के साथ इटली और पुर्तगाल गईं तो वहां के किसानों ने भी पारंपरिक फसलों के बीजों के संरक्षण के महत्व को स्वीकार किया था। वह कहती हैं कि पहाड़ में खेती और पर्यावरण को बचाना है तो पारंपरिक फसलों के बीजों को तवज्जो देनी ही होगी।

अच्छा उत्पादन भी देती हैं पारंपरिक फसलें

पारंपरिक फसलों के बीज संरक्षण से जुड़े उत्तरा रिसोर्स डेवलपमेंट सोसायटी के अध्यक्ष डा.विनोद भट्ट कहते हैं कि कोरोनाकाल ने पारंपरिक फसलों की तरफ ध्यान खींचा है। उन्होंने कहा कि स्वास्थ्य के लिहाज से यह बेहद फायदेमंद हैं। साथ ही पारंपरिक फसलों के बीज किसान के पास होंगे तो उसे पैसा खर्च नहीं करना होगा। फर्टिलाइजर समेत अन्य इनपुट की जरूरत नहीं पड़ेगी। वह इस बात को नकारते हैं कि परंपरागत बीजों से उत्पादन कम मिलता है।

उदाहरण देते हुए वह कहते हैं कि मंडुवा की डुंडकिया, धान की जीरी, रामजवान, लठमार, झौंपा, झैड़ू, लोहाकाट, गेहूं की सफेद व लाल मुंडरी जैसी किस्में अच्छा उत्पादन देती हैं। कुछ क्षेत्रों में किसान इन्हें उगा रहे हैं, मगर इनकी संख्या बेहद कम है। इन फसलों को उगाने में रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल नहीं किया जाता। वह कहते हैं कि पारंपरिक बीजों को बचाने के लिए यह आवश्यक है कि हर तीन साल में इन्हें रोटेशन के आधार पर खेतों में बोया जाए।

पारंपरिक बीज से ही उपजे हैं आधुनिक बीजकृषि

विज्ञान केंद्र ढकरानी (देहरादून) के सह निदेशक डा. संजय कुमार के मुताबिक पारंपरिक फसलों के बीजों से ही आधुनिक बीज तैयार किए जाते हैं। वह कहते हैं कि हम जहां रहते हैं, वहां की पुरानी फसलों से हमें वह पोषक तत्व उपलब्ध होते हैं, जिनकी शरीर को आवश्यकता है। यानी ये शरीर के संतुलित विकास के साथ ही रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में भी सहायक हैं।

उन्होंने कहा कि पारंपरिक बीज यहां की जलवायु व परिस्थितियों के अनुसार अच्छा उत्पादन देते हैं। इसे देखते हुए कृषि विज्ञान केंद्र भी किसानों को पारंपरिक बीजों के उपयोग के लिए प्रेरित कर रहा है। खुद केंद्रीय कृषि मंत्रालय समेत तमाम शोध संस्थान इसमें जुटे हैं। केंद्र सरकार ने परंपरागत कृषि विकास योजना ही शुरू की है। आने वाले दिनों में इसके बेहतर नतीजे सामने आएंगे।

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