कंक्रीट के जंगल में तब्दील हुआ पौराणिक गोपेश्वर गांव
एक दौर में परंपरागत पठाल (पहाड़ी पत्थर) की छतों वाले गांवों में शुमार चमोली जिले का गोपेश्वर गांव धीरे-धीरे कंकरीट में जंगल में तब्दील होता जा रहा है।
गोपेश्वर, [जेएनएन]: एक दौर में परंपरागत पठाल (पहाड़ी पत्थर) की छतों वाले गांवों में शुमार चमोली जिले का गोपेश्वर गांव धीरे-धीरे कंकरीट में जंगल में तब्दील होता जा रहा है। चुनिंदा परंपरागत भवन ही अब गांव में देखने को मिलते हैं। इसे पौराणिक गांव का दर्जा भी हासिल है। स्कंद पुराण समेत अन्य धार्मिक ग्रंथों में गोपेश्वर गांव का उल्लेख मिलता है। लेकिन, आज जिस प्रकार यह गांव कंकरीट के जंगल में तब्दील हो रहा है, उससे जल्द ही एक गौरवशाली परंपरा इतिहास के पन्नों में दफन हो जाएगी।
चमोली जिले का दो तिहाई क्षेत्र ग्रामीण बाहुल्य है। इन्हीं में से एक है गोपेश्वर गांव। वर्ष 1962 में चमोली का जिला मुख्यालय बनने से पहले गोपेश्वर के सभी भवन परंपरागत पठाल की छतों वाले थे। चूंकि, गोपेश्वर उच्च हिमालयी क्षेत्र में आता है। इसलिए यहां के पठाल वाले भवन गर्मियों में ठंडक तो सर्दियों में गर्मी का अहसास कराते थे।
मगर जिला मुख्यालय बनने के बाद गोपेश्वर गांव भी धीरे धीरे कंकरीट के जंगल में तब्दील होता चला गया। आज यहां के लोग अपनी परंपरा से हटकर कंकरीट के भवनों में रहना ही पसंद कर रहे हैं। इसलिए अब यहां नाममात्र के घर ही पठाल वाले रह गए हैं। सालभर गोपेश्वर आने वाले पर्यटक व यात्री इन परंपरागत भवनों को अपने कैमरों में कैद करना नहीं भूलते हैं।
चमोली कस्बे से आठ किमी दूर है गोपेश्वर
गोपेश्वर केदारनाथ से बदरीनाथ आने वाले मार्ग पर चमोली कस्बे से आठ किमी दूर पड़ता है। यहां से श्रीविष्णु का प्रभाव क्षेत्र समाप्त होकर शिव का क्षेत्र प्रारंभ होता है। स्कंद पुराण के केदारखंड में उल्लेख है कि भगवान शिव ने कामदेव को गोपेश्वर में ही भस्म किया था।
रासलीला की चाह में शिव बने थे गोपी
पौराणिक मान्यता के अनुसार सृष्टि के आरंभ में जब गोलोक में भगवान श्रीहरि देवी लक्ष्मी के साथ महारास में मग्न थे, तब उन्हें देख भगवान शिव में भी गौरी के साथ रास रचाने की इच्छा जागृत हुई। परंतु, न तो भगवान त्रिपुरारी स्वयं त्रिलोकीनाथ श्रीहरि बन सकते थे और उनकी अर्धांगिनी गौरी लक्ष्मी ही।
सो, रासलीला रचाने भगवान शिव स्वयं गोपी बन गए और गौरी ने गोप का रूप धारण किया। लेकिन, भगवान विष्णु ने शिव को पहचान लिया और उन्हें गोपीनाथ की उपाधि दी। मान्यता के अनुसार गोपेश्वर में ही भगवान शिव को यह उपाधि मिली थी। यहां भगवान गोपीनाथ का पौराणिक मंदिर भी है।
करनी होगी पहल
अक्षत नाट्य संस्था के सचिव ओमप्रकाश नेगी के मुताबिक पठाल वाले भवन परंपरा को तो बचा ही रहे थे, इससे कई फायदे भी थे। स्थानीय स्तर पर ही पत्थरों की पठाल बनाकर भवनों की छतों का निर्माण होता था। खान से पठाल निकालने वालों को रोजगार भी मिलता था। लेकिन, आज पठाल वाले भवनों की परंपरा तकरीबन समाप्त हो चुकी है। हमें इसे बचाने की कोशिश करनी होगी।
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