उत्तराखंड के इस अमर कल्पवृक्ष की उम्र जानकर हो जाएंगे हैरान
चमोली जिले के जोशीमठ में औषधीय महत्ववाला अमर कल्पवृक्ष है। इसे पृथ्वी का पारिजात और देश का सबसे प्राचीन वृक्ष माना जाता है, जो लगभग ढाई हजार साल से यहां पर विद्यमान है।
जोशीमठ, चमोली [रणजीत रावत]: क्या आपको मालूम है कि पौराणिक, आध्यात्मिक व औषधीय महत्ववाला अमर कल्पवृक्ष ज्योतिर्मठ (जोशीमठ) में भी मौजूद है। इसे पृथ्वी का पारिजात और देश का सबसे प्राचीन वृक्ष माना जाता है, जो लगभग ढाई हजार साल से यहां पर विद्यमान है। असंख्य शाखाओं में पीपल की तरह फैले लगभग 22 मीटर व्यास वाले इस कल्पवृक्ष (शहतूत का पेड़) की ऊंचाई तकरीबन 170 फीट है। खास बात यह कि इस पर फूल तो खिलते हैं, मगर फल नहीं।
कहते हैं कि इस वृक्ष के नीचे बैठकर आदिगुरु शंकराचार्य ने तपस्या की थी। यहीं उन्हें दिव्य ज्ञान ज्योति की भी प्राप्ति हुई। इसके बाद सनातन धर्म की रक्षा के लिए उन्होंने चारों दिशाओं में चार पीठों की स्थापना कर देश में एकता का सूत्रपात किया था। बदरीनाथ धाम में नारद कुंड से भगवान बदरी विशाल की मूर्ति निकालकर उसे फिर मंदिर के गर्भगृह में स्थापित किया। कल्पवृक्ष के नीचे ज्योतेश्वर महादेव का पौराणिक मंदिर भी स्थित है। श्री बदरीनाथ धाम के धर्माधिकारी भुवन चंद्र उनियाल कहते हैं कि आदिगुरु शंकराचार्य ने इसी वृक्ष के नीचे तपस्या की थी। साथ ही 'शंकर भाष्य', 'धर्मसूत्र' सहित कई ग्रंथों की रचना भी इसी वृक्ष के नीचे की गई। मान्यता है कि समुद्र मंथन से जो 14 रत्न प्राप्त हुए, उनमें समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला पारिजात वृक्ष भी था। जिसे देवराज इंद्र को दिया गया। इंद्र ने हिमालय के उत्तर में स्थित सुरकानन वन में इस वृक्ष को स्थापित किया।यही पारिजात, यही तूबा
माना जाता है कि इस वृक्ष के नीचे अपार सकारात्मक ऊर्जा का संचरण होता है। यहां सच्चे मन से जो भी मांगा जाता है, उसकी अवश्य प्राप्ति होती है। कल्पवृक्ष को कल्पद्रूप, कल्पतरु, सुरतरु, देवतरु, कल्पलता व पारिजात में नाम से भी जाना जाता है। 'तूबा' नाम के ऐसे ही एक पेड़ का वर्णन इस्लामिक साहित्य में भी मिलता है। जो सदा अनन (स्वर्ग का उपवन) में फूलता-फलता है।
पहली बार सेनेगल में देखा गया था कल्पवृक्ष
कल्पवृक्ष यूरोप के फ्रांस, इटली, दक्षिण अफ्रीका व आस्ट्रेलिया में पाया जाता है। ऐसे कल्पवृक्ष को फ्रांसीसी वैज्ञानिक माइकल अडनसन ने 1775 में सेनेगल (दक्षिण अफ्रीका) में पहली बार देखा था। उन्हीं के नाम पर इसका नाम अडनसोनिया टेटा रखा गया। ओलिएसी कुल के इस वृक्ष का वैज्ञानिक नाम ओलिया कस्पीडाटा है। भारत में यह उत्तराखंड के अलावा रांची, अजमेर, ग्वालियर, राजस्थान, उत्तर प्रदेश के कुछ स्थानों पर पाया जाता है।
उम्र को लेकर रहा है मतभेद
माना जाता है कि आदिगुरु शंकराचार्य आठवीं सदी में ज्योतिर्मठ आए थे, इसलिए कल्पवृक्ष की आयु 1200 साल मानी गई है। लेकिन, सनातनी विद्वान शंकराचार्य का काल युधिष्ठिर संवत से मानते हैं और कहते हैं कि केदारखंड में इसका उल्लेख हुआ है। ज्योतिर्पीठ (ज्योतिष्पीठ) के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का कहना है कि जितने वर्ष ज्योतिष्पीठ की स्थापना को हो चुके हैं, उतने ही साल का कल्पवृक्ष भी है। इस हिसाब से कल्पवृक्ष को 2500 साल से अधिक हो गए है। कहते हैं कि 'इतिहास की भयंकर भूलें' पुस्तक में भी इसका उल्लेख है।
वृक्ष को लेकर हैरत में विज्ञानी :
वनस्पति विज्ञानी भी कल्पवृक्ष की उम्र को लेकर हैरत में हैं। वन अनुसंधान संस्थान (एफआरआइ) के टैक्सोनॉमिस्ट डॉ. एचबी नैथानी का कहना है कि वह वृक्ष पर 1992 से अध्ययन कर रहे हैं, लेकिन अब तक इसकी उम्र की स्पष्ट गणना नहीं हो पाई। वजह यह कि पेड़ खोखला है और ट्री-रिंग्स की जिस विधि से उम्र की गणना की जाती है, वह रिंग इसमें नहीं बन पा रहे। 1950 तक के रिकॉर्ड भी यही बताते हैं कि पेड़ का तना खोखला है। वह हैरत जताते हैं कि खोखलेपन के बावजूद यह पेड़ न सिर्फ हरा-भरा है, बल्कि इस पर लगातार शाखाएं भी फूट रही हैं।
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