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    प्रयागराज के पुराने शहर का लोकनाथ चौराहा..., यहां की कुरकुराती जलेबी और गरमागरम कचौड़ी का स्वाद ही निराला

    By Jagran News Edited By: Brijesh Srivastava
    Updated: Tue, 11 Nov 2025 04:33 PM (IST)

    प्रयागराज के पुराने शहर में लोकनाथ चौराहा खानपान संस्कृति का केंद्र है। यहाँ दही-जलेबी, कचौड़ी और खस्ता दमालू का स्वाद अनोखा है। सुबह होते ही जलेबियाँ और कचौड़ियाँ तलने लगती हैं। प्रकाश गुप्ता की छोटी जलेबी और मनोज कुमार केसरवानी के खस्ता-दमालू प्रसिद्ध हैं। अनिल चौरसिया की कचौड़ी-दमालू और रायता भी खूब पसंद किए जाते हैं। यहाँ 70 सालों से स्वाद का खजाना लुटाया जा रहा है, जहाँ लोग सुबह के नाश्ते का आनंद लेते हैं।

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    प्रयागराज में लोकनाथ चौराहा स्थित दुकान में गरमागरम कचौड़ी छानता दुकानदार। जागरण

    अमरदीप भट्ट, प्रयागराज। पुराने शहर में खानपान संस्कृति का सबसे बड़ा जोन लोकनाथ चौराहा है। यहां की दही-जलेबी, कचौड़ी, खस्ता दमालू का स्वाद ही निराला है। लोकनाथ चौराहा से लेकर घंटाघर के निकट दरवेश्वर नाथ शिवालय तक सुबह की शुरुआत ही गरमागरम छनती जलेबियों और कचौड़ियों से होती है। ऐसी-ऐसी दुकानें हैं जो स्वाद के मामले में अपने ग्राहकों को अंगुली चाटने पर मजबूर करती रहती हैं।

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    छोटी जलेबी नहीं खाई तो यहां चले आइए 

    छोटी जलेबी, कभी सुना है आपने ? प्रकाश गुप्ता की दुकान पर बनने वाली छोटी जलेबी का स्वाद ही बेजोड़ है। गरम छनती और मिनटों में थाल खाली होते रहने से जलेबी ही मांग भी बढ़ जाती है। 52 साल से यह दुकान दरवेश्वर नाथ शिवालय के ठीक सामने दूसरी पटरी पर लग रही है। इनकी पहचान है छाता।

    वर्ष 1973 में सुशील के बाबा बेचते थे जलेबी 

    प्रकाश कहते हैं कि वर्ष 1973 में बाबा हजारीलाल ने यहीं पर जलेबी बेचने की शुरुआत की थी। उनके बाद पिता सुशील कुमार गुप्ता 'भोंदू भाई' ने इस दैनिक रोजगार को बनाए रखा और अब प्रकाश स्वयं बैठते हैं बिना नागा। जलेबी के स्वादिष्ट होने का राज बताते हैं कि तलने में कोई जल्दबाजी नहीं करते। जलेबी कुरकुरी रहे तो इसे खाने का स्वाद बढ़ जाता है।

    40 वर्ष से मनोज लगा रहे खस्ता-दमालू व ढोकला

    कुछ ही दूरी पर जलेबी और नाश्ते की एक दुकान 40 साल से संचालित है। मनोज कुमार केसरवानी ने इसकी शुरुआत की थी, अब बेटा हर्ष भी उनके साथ दैनिक रोजगार में जुट गया है। जलेबी, खस्ता दमालू, साथ में ढोकला। सुबह साढ़े आठ या नौ बजे तक ग्राहक अधिक संख्या में आते हैं। पत्तल के दोहने में दही जलेबी, खस्ता दमालू खाया, कुछ चुहल मजाक हुई, सुबह-सुबह की ताजी हवा से इम्युनिटी बढ़ाई और घर लौटने के बाद कामकाज पर निकल गए।

    अनिल की कचौड़ी-दमालू संग रायता का टेस्ट अलग 

    लोकनाथ चौराहा पर कचौड़ी के ठेले लगने के बाद ग्राहकों का आना भी सात बजे शुरू हो जाता है। कचौड़ी विक्रेता अनिल चौरसिया के ठेले पर जुटे रहे ग्राहक खाने में। कड़ाही में छनती ही कचौड़ियां, भगोने में दमालू और रसेदार सब्जी के अलावा रायता। बात करने पर अनिल मुस्कुराने लगे। कहा बहुत पहले से ठेला लग रहा है, खाने वालों की कमी नहीं है तब कारीगरी अच्छी होनी चाहिए। सब्जी में स्वाद रहे, कचौड़ी गरम हो तो फिर चटखारा लगना ही है।

    कई दुकानों में स्वाद का खजाना

    बब्लू के ठेले पर भी लगभग ऐसा ही हाल रहा। यहां कई दुकानें ऐसी हैं जो स्वाद का खजाना 70 साल से लुटा रही हैं। समाजवादी नेता जनेश्वर मिश्र कभी-कभी पहुंच जाते थे कचौड़ी खाने। छुन्नन गुरु के जमाने से यहां खानपान की दुकानें लगने का चलन है। वहीं कुछ दूरी पर राममूर्ति कचौड़ी वाले की दुकान ब्रिटिश शासन काल की है। ग्राहक दिनेश गुप्ता, प्रकाश केसरवानी और गुडमंडी में रहने वाले गुड्डू भाई कहते हैं कि नाश्ते का मजा तो सुबह ही रहता है। खास्ता दमालू खा लें या कचौड़ी और जलेबी। दोपहर तक फिर कुछ नहीं चाहिए। हालांकि घर में बनने वाले नाश्ता भी करते हैं, तब तक दोनों आहार के बीच लगभग दो घंटे का अंतर हो जाता है।

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