सावधान! रील की लत बदल रही है बच्चों के आंखों का 'एंगल', अस्पतालों में बढ़ी मरीजों की तादाद
रील्स की लत युवाओं की सेहत पर बुरा असर डाल रही है। जिला अस्पताल के डॉक्टरों के अनुसार, मोबाइल के अत्यधिक उपयोग से बच्चों में आँखों की समस्याएँ जैसे ति ...और पढ़ें

प्रतीकात्मक चित्र
जागरण संवाददाता, मुरादाबाद। मोबाइल स्क्रीन पर कुछ सेकेंड की रील्स अब युवाओं की दिनचर्या का हिस्सा नहीं, बल्कि लत बनती जा रही हैं। भारत में तेजी से बढ़ते शार्ट वीडियो ट्रेंड ने मनोरंजन की परिभाषा तो बदली है। सोमवार को दैनिक जागरण से बात करते हुए जिला अस्पताल के मानसिक रोग विशेषज्ञ डा. शैलेन्द्र कुमार शर्मा ने बताया कि रील्स की अधिकता युवाओं की मानसिक, शारीरिक और सामाजिक सेहत पर सीधा असर डाल रही है। जो उनको धीरे धीरे बीमार बना रही है।
उन्होंने बताया जिला अस्पताल में प्रतिदिन 15 मरीज सिरदर्द, एंजाइटी, चिड़चिड़ापन को आ रहे है। इसमें सबसे ज्यादा मोबाइल को देखने से दिक्कत के लोग आ रहे। वहीं दूसरी ओर नेत्र रोग विशेषज्ञ विजेन्द्र पाल ने बताया कि प्रतिदिन 50 बच्चे छह से लेकर 15 वर्ष तक के आ रहे हैं, जिनमें मोबाइल देखने की वजह से आंखों में तिरछापन, चश्मे का नंबर बढ़ना, रेटिना में परेशानी हो रही है। मुरादाबाद के जिला अस्पताल का डाक्टरों ने बताया कि मोबाइल में जलने वाली ब्लू लाइट सीधा आंखों, दिमाग और चेहरे पर असर डालती है।
दिमाग को मिल रही है डोपामिन की ओवरडोज
बार- बार जब आप रील स्वाइप करते हैं या वीडियो देखते हैं, तो दिमाग में डोपामिन नाम का फील गुड केमिकल रिलीज होता है। जिसकी वजह से प्लेटफार्म पर छोटे वीडियो देखना अच्छा लगता है। यह वीडियो सरप्राइज से भरे होते हैं ताकि दिमाग को बार-बार ये डोपामिन किक मिले।
समस्या ये है कि धीरे धीरे दिमाग को इसकी इतनी आदत पड़ जाती है कि रोजमर्रा की चीजें जैसे किताब पढ़ना, खाना खाना या दोस्तों से बात करना बोरिंग लगने लगता है। डा अभिनव शेखर बताते हैं कि इसमें सबसे ज्यादा पांच से लेकर 18 वर्ष के बच्चे है जो इस लत के शिकार हो रहे है ।
कैमरे के पीछे होता है तनाव और अकेलापन
गुरु जंभेश्वर विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार गिरीश कुमार द्विवेदी ने बताया कि रील्स की दुनिया में हर कोई मुस्कुरा रहा होता है, लेकिन कैमरे के पीछे बहुत लोग तनाव, असुरक्षा और अकेलेपन से जूझ रहे होते हैं। एक पल की मुस्कान, एक फिल्टर की खूबसूरती और एक बैकग्राउंड सॉन्ग, ये सब मिलकर एक झूठी परफेक्शन बनाते हैं।
मगर असल जिंदगी वैसी नहीं होती तो हम खुद से नाखुश हो जाते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण पैसा है। सोशल मीडिया पर कंटेंट क्रिएटर्स को मिलने वाला पैसा है। कुछ कंटेंट किएटर्स इंटरनेट मीडिया पर अपनी शानो शौकत की जिंदगी और लैविस लाइफ दिखाते हैं। बड़ी बड़ी गाड़ियां और बंगले दिखाते हैं।
इसी को देखकर उनके फालोअर्स भी उनसे प्रभावित हो रहे हैं। सोशल मीडिया पर पैसा कमाने और उनकी तरह लाइफ स्टाइल जीने के चक्कर में किसी भी हद तक जा रहे हैं, क्योंकि उन्हें कम समय में फेम चाहिए। इंटरनेट मीडिया से आने वाला पैसा भी लोगों को इस तरफ खींच रहा है। हालांकि पैसा कमाना बुरी बात नहीं है, लेकिन इसके लिए अपनी जान को जोखिम में डालना सही नहीं है।
डाक्टरों नें बताए उपाए
- हर दिन कम से कम एक घंटा स्क्रीन टाइम कम करें
- सोने से पहले और सुबह उठते ही मोबाइल न छुएं।
- सुबह- शाम टहलें। म्यूजिक सुनें। बुक रीडिंग करें। स्पोर्ट्स खेलें जो दिमाग को रिफ्रेश करते हैं।
- अभिभावक बच्चों को रील्स पर कंटेंट न देखने दें। उनको किताब पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करें। उनके सामने खुद भी पढ़ें।
- डिजिटल एजुकेशन स्कूलों में शामिल हो जिससे कि बच्चों को सिखाया जाए कि लाइक से ज्यादा जरूरी है लाइफ।
- अगर किसी को रील या सोशल मीडिया से दूर रहना मुश्किल लग रहा है, तो मनोचिकित्सक या काउंसलर से मिलना चाहिए।
जिला अस्पताल में दिन पर दिन आंखों के मरीज बढ़ते जा रहे हैं। इनमें बच्चों की संख्या ज्यादा है। जब उनका चेकप किया तो पता चला कि छह से लेकर 18 वर्ष के युवाओं में स्क्रीन टाइम ज्यादा (मोबाइल या लैपटाप ) देखने के कारण दिक्कत हुई है। इनकी प्रतिदिन संख्या 50 हो जाती है। उनकी आखों में तिरछा, चश्मे का नंबर बढना, रैटिना में दिक्कत आना।
- डा. विजेंद्र पाल सिंह, नेत्र सर्जन
हमारे यहां प्रतिदिन 25 मरीजों में से 10 ऐसे होते हैं जिनको सिर दर्द,एंजाइटी डिप्रेशन और नींद न आना ,ज्यादा याद न रहना की परेशानी है। उनकी जांच की तो पता चला कि ज्यादा देर तक मोबाइल या लैपटाप पर समय बिताना। यह संख्या धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है । इसका उपाए यह है कि सबसे पहले स्क्रीन टाएम कम करना (मोबाइल पर कम समय बिताना ) मोबाइल से निकलने बाली ब्लू लाइट सीधा दिमाग और आंखों , चेहरे पर सीधा डालती है।
- डा. अभिनव शेखर, मानसिक रोग विशेषज्ञ
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