गोरखपुर सबरंग: गोरक्ष धरा पर शक्ति की भक्ति, दुर्गा पूजा का इतिहास 125 साल पुराना
गोरखपुर में दुर्गा पूजा का इतिहास 125 साल पुराना है। इसकी शुरुआत बंगाली समिति ने की थी। शहर में लगभग तीन हजार पंडाल सजते हैं। राघव-शक्ति मिलन यहाँ की अनोखी परंपरा है जिसमें श्रीराम दुर्गाबाड़ी में माता दुर्गा का पूजन करते हैं। मूर्तिकार बंगाल से आकर प्रतिमाएँ बनाते हैं। कालीबाड़ी में बंगाली रीति से पूजा होती है और 1987 से स्वचालित प्रतिमाएँ भी बनने लगीं।

आदिशक्ति विश्व की सृजनकर्ता है। इसी में सृष्टि के संचालन और संहार की भी क्षमता है। सृजन से लेकर संहार की क्षमता रखने वाली आदिशक्ति ही सृष्टि की संपूर्ण व्यवस्था का आधार है। यही कारण है कि नवरात्र में नौ दिन तक आदिशक्ति के अलग-अलग नौ रूप की आराधना का विधान है।
आराधना की दिव्यता व भव्यता के लिए हर वर्ष होता अनुसंधान है। प्रतिपदा से लेकर नवमी तक चलने वाली इस आराधना की ऐतिहासिकता भगवान श्रीराम से जुड़ती है। शारदीय नवरात्र की पूजा की शुरुआत श्रीराम ने समुद्र तट से की।
आदिशक्ति की विधि-विधान से आराधना के बाद ही उन्होंने लंका पर चढ़ाई की। रावण जैसे महाशक्तिशाली राजा को हराने में सफलता पाई। शक्ति पूजा की इस सशक्त मान्यता को गुरु गोरक्ष की धरा के लोगों ने भी पूरी आस्था व श्रद्धा के साथ स्वीकारा है।
मां दुर्गा को बीते सवा सौ वर्ष से हर वर्ष भव्य व दिव्य आयोजन के जरिये श्रद्धा के साथ पुकारा है। हर नवरात्र में मां दुर्गा की प्रतिमा की स्थापना के लिए जिले में करीब ढाई से तीन हजार पंडालों का सजना इसका प्रमाण है। एक बार फिर शारदीय नवरात्र करीब आ गया है। आदिशक्ति मां दुर्गा के प्रतिमा पंडालों के आकार लेने का सिलसिला शुरू हो गया है।
अवसर है कि हम शहर में प्रतिमा पंडालों के सजाए जाने की सवा सौ साल पुरानी परंपरा को याद करें। परंपरा की ऐतिहासिकता जानकर उसके साथ पूरी आस्था और भक्ति के साथ जुड़े। शहर में शारदीय नवरात्र पर सजने वाले पूजा पंडालों का इतिहास बताती डा. राकेश राय की रिपोर्ट...
गोरक्ष नगरी में दुर्गा पूजा को उत्सव के रूप में शुरू करने का श्रेय शहर की बंगाली समिति को जाता है। इतिहास में जाएं तो गोरखपुर में दुर्गा पूजा की शुरुआत का समय 19वीं सदी के अंतिम वर्षों तक जाता है।
बंगाल के रहने वाले डा. योगेश्वर राय उन दिनों जिला अस्पताल के सिविल सर्जन थे। 1896 में उन्होंने अस्पताल परिसर में दुर्गा पूजा की शुरुआत की। 1903 तक अस्पताल में दुर्गा पूजा का आयोजन होता रहा। उसके बाद प्लेग महामारी फैलने के कारण 1906 तक यह आयोजन नहीं हो सका।
वर्ष 1907 से 1909 तक जुबली कालेज के प्रधानाचार्य राय साहब अघोर नाथ चटर्जी और डा. राधा विनोद राय ने जुबली कालेज में दुर्गा पूजा का आयोजन किया। 1910 में आर्य नाट्य मंच का गठन हुआ और यह दुर्गा पूजा अलहदादपुर में स्थानांतरित हो गयी।
दुर्गा पूजा के आयोजन को स्थायित्व मिले, इसके लिए 1928 में आर्य नाट्य मंच और सुहृदय समिति का विलय कर बंगाली समिति का गठन हुआ, जिसने भव्य दुर्गा पूजा के संपूर्ण आयोजन की जिम्मेदारी संभाल ली।
उसके बाद दुर्गा पूजा स्थानांतरित होकर भगवती प्रसाद रईस के अहाते में आ गयी। कुछ वर्षों के बाद यह पूजा चरण लाल चौराहे पर आयोजित एक भवन होने लगी। 1942 में द्वितीय विश्व युद्ध के समय सरकार ने चरण लाल चौराहा स्थित वह भवन अधिग्रहीत कर लिया तो समिति ने दुर्गा पूजा को दीवान बाजार में स्थानांतरित कर दिया।
1953 में बाबू महादेव प्रसाद रईस ने अपने पिता भगवती प्रसाद को स्मृति में समिति को एक भूखंड प्रदान किया। वही भूखंड आज का दुर्गाबाड़ी है।
1953 से शुरू हुई दुर्गाबाड़ी की दुर्गापूजा
बाबू महादेव प्रसाद रईस के जरिये भूमि का प्रबंध होने के बाद गोरखपुर की दुर्गापूजा को स्थायित्व मिल गया। 1953 में स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर 15 अगस्त को इस भूमि का पूजन हुआ और तभी से यहां बंगाली समिति की ओर से दुर्गा पूजा का आयोजन होने लगा।
उसके बाद जिले में दुर्गा पूजा पंडाल सजाए जाने का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह साल दर साल बढ़ता गया। अब तो हर गली-माेहल्ले भव्य प्रतिमाएं स्थापित होने लगी हैं। शहर में पूजा पंडालों की संख्या तीन हजार के करीब पहुंच गई है।
दीवान बाजार में 1970 से सज रहा पूजा पंडाल
शारदीय नवरात्र में आसपास के श्रद्धालुओं को देवी दर्शन के लिए दूर न जाना पड़े। पर्व को अपने घर के पास ही पूरी भव्यता के साथ मनाया जा सके। इसके लिए शहर के सबसे पुराने मुहल्लों में से एक दीवान बाजार में दुर्गा पूजा उत्सव का आयोजन शुरू हुआ।
1970 में मुहल्ले के देवेंद्र नाथ अग्रवाल, मुन्नी लाल जैन, अनिल खरे, बुद्धि लाल शर्मा, देवेंद्र नाथ चटर्जी, सुदामा शर्मा, नवल मौर्या, सुरेश अग्रवाल व माधव प्रसाद अग्रवाल ने मिलकर दुर्गा पंडाल सजाने की शुरुआत की। मां दुर्गा की पूजा का स्वरूप परंपरागत रहे इसके लिए बंगाली रीति-रिवाज को अपनाया। आज भी दीवान बाजार में सजने वाले पूजा पंडाल में मां की पूजा बंगाली रीति से ही होती है।
विशालता के लिए मशहूर रही स्टेशन रोड की दुर्गा प्रतिमा
रेलवे स्टेशन पर दुर्गा पूजा की शुरुआत पूर्व एमएलसी सुदामा सिंह ने पांच दशक पहले की थी। वह बलिया से व्यापारी के रूप में गोरखपुर आए थे। मित्रों व सहयोगियों के साथ उन्होंने रेलवे स्टेशन पर प्रति एक छोटी प्रतिमा स्थापित की थी। बाद के दिनों में इस पूजा उत्सव ने भव्य रूप ले लिया।
एक समय स्टेशन रोड की प्रतिमा पंडाल की पहचान शहर ही नहीं बल्कि समूचे पूर्वांचल के सबसे बड़े पंडाल के रूप में होने लगी। नवरात्र की अष्टमी पर यहां सर्वाधिक भीड़ लगने लगी। भीड़ बढ़ने से वहां मेला लगने लगा।
स्थिति यह हो गई कि लोग स्टेशन रोड वाली मां दुर्गा की प्रतिमा के दर्शन के बिना नवरात्र को अधूरा समझने लगे। हालांकि कोरोना काल के बाद यहां की चमक थोड़ी फीकी पड़ गई है लेकिन भीड़ आज भी उतनी ही उमड़ती है।
राघव-शक्ति मिलन की अद्भुत परंपरा
गोरखपुर में दुर्गा पूजा से जोड़कर होने वाला एक आयोजन अद्भुत है। यह आयोजन है-राधव-शक्ति मिलन। इसकी शुरुआत 1948 में मोहन लाल यादव, रामचंद्र सैनी, मेवालाल यादव और रघुवीर मास्टर ने राघव शक्ति मिलन कमेटी की स्थापना करके की। तभी से इस परंपरा का निर्वहन निरंतर हो रहा है।
इस आयोजन का प्रारूप यह है कि विजयदशमी के दिन बर्डघाट रामलीला के भगवान श्रीराम, रावण का वध करने के बाद माता सीता, भाई लक्ष्मण और भक्त हनुमान के साथ विजय जुलूस लेकर दुर्गा मिलन चौक यानी बसंतपुर तिराहे पर पहुंचते हैं।
वहां शहर की प्राचीनतम दुर्गाबाड़ी की प्रतिमा का पूजन-अर्चन करते हैं। आरती कर रावण से युद्ध में विजय दिलाने के लिए उनके प्रति आभार व्यक्त करते हैं और आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। श्रीराम एवं माता दुर्गा के मिलन के कार्यक्रम को राघव और शक्ति मिलन के नाम से जाना जाता है।
इस अद्भुत पल को देखने के लिए हजारों की संख्या में श्रद्धालु बसंतपुर पहुंचते हैं। यह परंपरा गोरखपुर के अतिरिक्त देश के किसी हिस्से में देखने को नहीं मिलती है।
प्रतिमा वनाने बंगाल से आते हैं कलाकार
दुर्गा पूजा चूंकि मूल रूप से बंगाल का पर्व माना जाता है, ऐसे में मूर्ति की आस्थाजनक परिपक्वता के लिए बंगाल से कलाकारों को बुलाने की परंपरा रही है। ये कलाकार नवरात्र से महीने भर पहले ही गोरखपुर आकर प्रतिमा बनाते रहे हैं।
नवद्वीप जिले के मूर्तिकार प्रोबीर विश्वास का इस सिलसिले में चार दशक से भी अधिक समय से गोरखपुर आना रहा है। काेलकाता से आने वाले मूर्तिकारोंं की संख्या एक दर्जन के करीब है। कोरोना काल के बाद वहां से मूर्तिकारों का आन कुछ कम हो गया तो गोरखपुर के मूर्तिकारों को अच्छा रोजगार मिलने लगा।
51 साल से कालीबाड़ी में स्थापित होतीं मां दुर्गा
हिंदी बाजार के कालीबाड़ी मंदिर क्षेत्र में स्थापित होने वाली दुर्गा पूजा का अपना अलग महत्व है। शहर के रेती चौक क्षेत्र स्थित कालीबाड़ी दुर्गा उत्सव की शुरुआत वर्ष 1971 में विश्वनाथ विश्वास, बीएन कुंडू, स्वतंत्र रस्तोगी और कृष्ण चंद्र गुप्ता ने की थी।
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पहली बार जो मूर्ति स्थापित की गई, उसे समिति के सदस्यों ने स्वयं अपने हाथों से बनाया था। उस समय माता का रौद्र रूप दर्शनीय था। बाद की पीढ़ी ने मूर्ति की कलात्मक कर इसे सौम्य स्वरूप प्रदान किया। कालीबाड़ी में स्थापित होने वाली मां दुर्गा की प्रतिमा की पूजा भी बंगाली रीति से होती है। इसे लेकर आयोजकों की मान्यता बंगाल की दुर्गापूजा के अनुरूप ही होती है।
1987 से बनने लगीं स्वचालित प्रतिमाएं
विकास के दौर का असर शहर में स्थापित होने वाली मां दुर्गा की प्रतिमाओं पर भी पड़ा। परिणास्वरूप 1987 से स्वचालित प्रतिमाएं बनने लगीं। नरसिंहपुर से स्वचालित प्रतिमाओं के बनने की शुरुआत हुई। लोगों को जब प्रतिमा का यह रूप भाया तो कई और दुर्गा समितियों ने इसे अपनाया।
आज की तारीख में दर्जन भर स्वचालित प्रतिमाएं शहर में स्थापित होती हैं, जिन्हें देखने के लिए लोगोंं की भारी भीड़ उमड़ती है। स्वचालित प्रतिमाओं की शुरुआत का श्रेय शहर के मशहूर मूर्तिकार सुशील गुप्ता को जाता है। सुशील बताते हैं कि बीते कुछ वर्षाें में स्वचालित प्रतिमाओं की मांग तेजी से बढ़ी है।
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