सबरंग: गोरखपुर के खिचड़ी मेला में परंपरा, आस्था व मनोरंजन की त्रिवेणी, देखें तस्वीरें
Khichdi Mela 2025 गोरखपुर के गोरखनाथ मंदिर ( Gorakhnath Temple) में लगने वाला खिचड़ी मेला परंपरा आस्था और मनोरंजन का संगम है। मकर संक्रांति के दिन से शुरू होकर महाशिवरात्रि तक चलने वाले इस मेले में लाखों श्रद्धालु बाबा गोरखनाथ को खिचड़ी चढ़ाते हैं। मेले में सामाजिक समरसता की भी अनूठी मिसाल देखने को मिलती है। मेले के इतिहास परंपरा और इंतजाम की जानकारी देती डा. राकेश राय की रिपोर्ट...
जागरण संवाददाता, गोरखपुर। परंपरा, आस्था और मनोरंजन की त्रिवेणी का दर्शन कराने वाला खिचड़ी मेला गुरु गोरक्षनाथ की तपोस्थली गोरखनाथ मंदिर में लगभग सज चुका है। ट्रायल व रन की ओर बढ़ चुका है। नए साल के पहले दिन से यह पूरे रौ में दिखने लगेगा। मकर संक्रांति के दिन यानी 14 जनवरी से तड़के बाबा गोरखनाथ के चरणों के खिचड़ी चढ़ाने के बाद यह औपचारिक रूप ले लेगा।
महाशिवरात्रि तक चलने वाले इस मेला कोई सामान्य मेला नहीं है। खिचड़ी चढ़ाने और फिर मेले का लुत्फ उठाने की परंपरा त्रेता युग से चली आ रही है और वर्ष दर वर्ष व्यवस्थागत विस्तार पा रही है। गोरक्षपीठाधीश्वर व मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के संरक्षण में मेले की दिव्यता व भव्यता और परवान चढ़ी है। ऐसे में इसकी प्रतिष्ठा लोगों के बीच और बढ़ी है।
पूरी प्रकृति को ऊर्जस्वित करने वाले सूर्यदेव के उत्तरायण होने पर गुरु गोरखनाथ को खिचड़ी चढ़ाने की त्रेतायुग से चली आ रही अनूठी परंपरा पूरी तरह लोक को समर्पित है। गोरखनाथ मंदिर में खिचड़ी के रूप में चढ़ाया जाने वाला अन्न वर्षभर जरूरतमंदों में वितरित होता है। मंदिर के अन्न क्षेत्र में कभी भी कोई जरूरतमंद खाली हाथ नहीं लौटता है। ठीक वैसे ही, जैसे बाबा गोरखनाथ को खिचड़ी चढ़ाकर मनौती मानने वाला कभी निराश नहीं होता।
मेला में सजे मुरादाबाद के उत्पाद। जागरण
ऐसे स्थापित हुई परंपरा
गोरखनाथ मंदिर में खिचड़ी चढ़ाने की परंपरा त्रेतायुगीन मानी जाती है। मान्यता है कि आदियोगी गुरु गोरक्षनाथ एक बार हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में स्थित मां ज्वाला देवी के द्वार पर पहुंचे। मां ने उनके भोजन का प्रबंध किया। कई प्रकार के व्यंजन देख बाबा ने कहा कि वह तो योगी हैं और भिक्षा में प्राप्त चीजों को ही भोजन रूप में ग्रहण करते हैं। उन्होंने मां ज्वाला देवी से पानी गर्म करने का अनुरोध किया और स्वयं भिक्षाटन को निकल पड़े।
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भिक्षा मांगते हुए वह गोरखपुर आ पहुंचे और राप्ती और रोहिन के तट पर जंगलों में बसे इस स्थान पर धूनी रमाकर साधनालीन हो गए। उनका तेज देख तभी से लोग उनके खप्पर में अन्न (चावल, दाल) दान करते रहे। उसी दौरान मकर संक्रांति का पर्व आ गया तो यह परंपरा पर्व पर खिचड़ी चढ़ाने के रूप में परिवर्तित हो गई। तब से बाबा गोरखनाथ को खिचड़ी चढ़ाने का क्रम हर मकर संक्रांति पर अहर्निश जारी है। मान्यता यह भी है कि कि ज्वाला देवी के मंदिर में बाबा की खिचड़ी पकाने के लिए आज भी पानी उबल रहा है।
मेला में सजे सहारनपुर के उत्पाद। जागरण
राज्यों से ही नहीं नेपाल से भी आते हैं श्रद्धालु
मकर संक्रांति के दिन तड़के सबसे पहले गोरक्षपीठाधीश्वर नाथ पंथ की विशिष्ट परंपरानुसार शिवावतारी गुरु गोरखनाथ को लोक आस्था की खिचड़ी चढ़ाकर समूचे जनमानस की सुख समृद्धि की मंगलकामना करते हैं। इसी क्रम में परंपरागत रूप से नेपाल के राज परिवार की खिचड़ी चढ़ाई जाती है।
उसके बाद उत्तर प्रदेश, बिहार सहित देश के विभिन्न भागों के साथ-साथ नेपाल से भी आए श्रद्धालु बाबा के चरणों में अपनी खिचड़ी समर्पित करते हैं। खिचड़ी चढ़ाने वाले श्रद्धालुओं की संख्या लाखों में होती है। ऐसे में यह सिलसिला सुबह से शुरू होकर शाम तक चलता रहता है। बाहर से आने वाले श्रद्धालुओं के ठहरने और भोजन का इंतजाम मंदिर प्रबंधन की ओर से किया जाता है।
मेला में लगा कोलंबस नाव। जागरण
इसलिए चढ़ती है नेपाल राजपरिवार की खिचड़ी
बाबा गोरखनाथ के दरबार में मकर संक्रांति पर नेपाल राज परिवार की ओर से भी खिचड़ी चढ़ाई जाती है। इसके पीछे का इतिहास नेपाल के एकीकरण से जुड़ा है। गुरु गोरक्षनाथ संस्कृत विद्यापीठ के आचार्य डा. रोहित मिश्र बताते हैं नेपाल के राजा के राजमहल के पास ही गुरु गोरक्षनाथ की गुफा थी।
उस समय के राजा ने अपने बेटे राजकुमार पृथ्वी नारायण शाह से कहा कि यदि कभी गुफा में गए तो वहां के योगी जो भी मांगे, उसे मना मत करना। जिज्ञासावश शाह खेलते हुए वहां पहुंच गए और गुरु ने उनसे दही मांग दी। राजकुमार अपने माता-पिता संग दही लेकर जब गुरु के पास पहुंचे तो उन्होंने दही का आचमन कर युवराज के अंजुलि में उल्टी कर दी और उसे पीने को कहा।
मेला में सजा झूला। जागरण
युवराज की अंजुलि से दही उनके पैरों पर गिर गई। लेकिन बालक को निर्दोष मानकर नेपाल के एकीकरण का वरदान गुरु ने दे दिया। बाद में इसी राजकुमार ने नेपाल का एकीकरण किया। तभी से नेपाल नरेश व वहां के लोगों के लिए बाबा गोरखनाथ आराध्य देव हैं। राजपरिवार से खिचड़ी चढ़ाने की परंपरा भी तभी से शुरू हुई जो आज तक चली आ रही है।
सामाजिक समरसता का प्रतीक होता है खिचड़ी मेला
गोरखनाथ मंदिर सामाजिक समरसता का ऐसा केंद्र है, जहां जाति, पंथ, महजब की बेड़ियां टूटती नजर आती हैं। मेला में यह बात हर वर्ष पुष्ट होती दिखाई देती है। मेले के 40 प्रतिशत दुकानदार मुसलमान होते हैं। मेले में दुकान लगाने के लिए आने वाले मुसलमान दो-चार वर्ष नहीं बल्कि चार दशक से आते हैं। वह गुरु गोरक्षनाथ के प्रति आस्था जताते हुए अपनी दुकान सजाते हैं।
गोरखनाथ मंदिर परिसर में खिचड़ी मेला की तैयारी अंतिम चरण में है। मेला परिसर में श्रद्धालुओं का आना-जाना शुरू हो गया है। पिता के साथ मेला घूमता बच्चा। अभिनव राजन चतुर्वेदी
यही नहीं, मंदिर परिसर में डेढ़-दो माह तक लगने वाला खिचड़ी मेला हजारों लोगों की आजीविका का माध्यम बनता है। मंदिर परिसर में नियमित रोजगार करने वालों से लेकर मेला में दुकान लगाने वालों तक में बड़ी भागीदारी अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों की होती है।
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उन्होंने कभी कोई भेदभाव महसूस नहीं करते बल्कि अपनेपन के भाव से विभोर होते रहते हैं। पुराने दुकानदारों को ही प्राथमिकता मिलती है। यदि एक-दो पुराने दुकानदार किसी वर्ष किसी वजह से नहीं आ पाते तो उनके स्थान पर नए दुकानदारों को अवसर दिया जाता है।
क्रॉस झूला। जागरण
मानव प्रबंधन की अद्भुत मिसाल
गोरखनाथ मंदिर में लगने वाला परंपरागत खिचड़ी मेला केवल आस्था व उल्लास के चरम तक ही नहीं पहुंचाता, उत्कृष्ट मानव प्रबंधन भी सिखाता है। हर क्षण अपने दायित्व के प्रति समर्पित और अनुशासित मंदिर के स्वयंसेवक इस आयोजन को सुगठित प्रबंधन का पर्याय बनाते हैं। इस मानव प्रबंधन की रूपरेखा स्वयं गोरक्षपीठाधीश्वर योगी आदित्यनाथ तैयार करते हैं।
गोरखनाथ मंदिर परिसर मे खिचड़ी मेला में राजस्थानी चूड़ी से स्टाल को सजाती दुकानदार। जागरण
संचालन भी उन्हीं के सीधे मार्गदर्शन में होता है। इसी का नतीजा है कि मेले की व्यवस्था स्वचालित सी दिखती है। दरअसल इसके लिए मंदिर के स्वयंसेवक मकर संक्रांति से एक दिन पहले से व एक दिन बाद तक मंदिर व मेला परिसर में प्रशासनिक मशीनरी के समानांतर खड़े नजर आते हैं। हर बार सबकी जिम्मेदारी तय की जाती है, जिसके अनुसार उन्हें खिचड़ी चढ़वाने से लेकर मेले तक की व्यवस्था संभालनी होती है।
श्रद्धालुओं की सुविधा और सहूलियत ही इनका उद्देश्य होता है। इसमें 50-100 नहीं, करीब डेढ़ हजार लोगों को लगाया जाता है। सबकी जिम्मेदारी सप्ताह भर पहले ही तय कर दी जाती है। कार्यस्थल भी सुनिश्चित कर दिया जाता है। बेहद अनुशासित मानव प्रबंधन का ही परिणाम है कि मेले में कभी किसी श्रद्धालु को कोई भी दिक्कत नहीं होने पाती और विशाल आयोजन में कहीं अव्यवस्था नजर नहीं आ पाती।
खिचड़ी मेला परिसर में काटन कैंडी का आनंद लेते बच्चे। जागरण
जनवरी के पहले सप्ताह से ही दिखने लगती है रौनक
वैसे तो मेले की तय अवधि मकर संक्रांति यानी 14 जनवरी से 31 जनवरी के बीच ही मानी जाती है और महाशिवरात्रि तक इसका प्रसार बना रहता है लेकिन इसकी अनौपचारिक शुरुआत एक जनवरी से ही हो जाती है। जनवरी के पहले सप्ताह में ही इसकी पूरी रौनक दिखने लगती है। इस बार भी ऐसा ही होने वाला है, क्योंकि मेला स्वरूप लेने लगा है।
गोरखनाथ मंदिर परिसर में खिचड़ी मेला की तैयारी अंतिम चरण में है। बच्चों तथा महिलाओं को आकर्षित करने वाली दुकानें सज चुकी हैं। श्रृंगार सामग्री की खरीदारी करती महिला। अभिनव राजन चतुर्वेदी
चाइनीज सामानों के लिए नो इंट्री
खिचड़ी मेले में दुकान लगाने वालों को यह निर्देश होता है कि वह चाइनीज सामान मेला परिसर में नहीं बेचेंगे। यदि कोई ग्राहक चाइनीज सामान मांगता है, उसे इस बात के लिए प्रेरित करेंगे कि वह भारतीय सामान ही खरीदे क्योंकि ऐसा किया जाना राष्ट्रहित में है।
खिचड़ी मेला परिसर में टेडीबियर की खरीदारी करती युवती। जागरण
खानपान की हर मांग पूरी करता है मेला
खानपान का इंतजाम हर मेले की जान होती है। गोरखनाथ मंदिर में लगने वाला खिचड़ी मेला इसपर पूरी तरह खरा उतरता है। चाट-फुलकी के सााथ छोला-भठूरा, डोसा तक तक यहां मिलता है। मैगी, चाऊमीन को लेकर युवाओं की मांग भी मेले में बखूबी पूरी होती है। इसे लेकर भी मेले में कई अस्थायी दुकानें सजती हैं। परिसर की स्थायी खानपान की दुकानें भी इस दौरान मेले के अनुरूप ही अपने खानपान का मेन्यू रखती हैं।
राेमांच पैदा करते तरह-तरह के झूले
मेले का एक महत्वपूर्ण आकर्षण झूले भी होते हैं। एक दर्जन प्रकार के झूले बच्चों से लेकर युवाओं तक को राेमांचित करते हैं। सेलंबो, कोलंबस, जाइंट व्हील, रेंजर, ब्रेक डांस, टोरा-टोरा जैसे झूले मेला परिसर में सज चुके हैं। एक जनवरी से लोगों को आनंदित करने के लिए तैयार हो चुके हैं।
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