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    Independence Day 2025: बुंदेलों की शौर्य गाथा के बगैर अधूरी है ‘स्वतंत्रता आंदोलन की कहानी’

    Independence Day 2025 बांदा के भूरागढ़ दुर्ग बुंदेलखंड में 1857 की क्रांति का केंद्र था। यहां अंग्रेजों ने तीन हजार से अधिक क्रांतिकारियों को फांसी दी थी। बांदा के नवाब अली बहादुर द्वितीय ने इस लड़ाई का नेतृत्व किया। सुभाष चंद्र बोस ने भी यहाँ आज़ादी की रणनीति बनाई थी। आज भी यह दुर्ग क्रांतिकारियों की शहादत की याद दिलाता है और उनकी वीरता की गाथाएं प्रेरणा देती हैं। 

    By vimal pandey Edited By: Anurag Shukla1Updated: Wed, 13 Aug 2025 09:11 PM (IST)
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    Independence Day 2025: स्वतंत्रता आंदोलन का गवाह भूरागढ़ दुर्ग। जागरण

    विमल पांडेय, जागरण, बांदा। याद करो कुर्बानी: Independence Day 2025: स्वतंत्रता आंदोलन की जब बात हो तो बुंदेलों की शौर्य गाथा के बगैर इस पर चर्चा व्यर्थ है। बुंदेलखंड में सन 1857 में क्रांति का बिगुल अंग्रेजों के खिलाफ बुंदेलियों ने ही बजाया था। यहां के क्रांतिकारियों द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ शुरू की गई जंग आज भी यहां के जन मन में है। बुंदेली क्रांतिकारियों के वीरता की कहानियां समाज को प्रेरक बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दे रहीं हैं। इसी बुंदेली शौर्य गाथा की निशानी है जिले का भूरागढ़ दुर्ग।

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    यह वह दुर्ग है जो ब्रिटिश हुकूमत में तीन हजार से अधिक क्रांतिकारियों का कब्रगाह बना। यह वो स्थान है जहां अंग्रेजों ने 3 हजार क्रांतिकारियों को फांसी पर लटका दिया था। इन क्रांतिकारियों की शहादत को बांदा का गजेटियर भी अपने पन्ने में दर्ज किए हुए है। 18 जून सन 1859 में 28 व्यक्तियों के नाम विशेष तौर पर मिलते हैं जिन्हें अंग्रेजों की अदालत में मृत्युदंड व काला पानी की सजा सुनाई गई थी।

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    आजादी के आंदोलन में बुंदेलों की शौर्य गाथा जाननी-समझनी हो तो बांदा शहर से करीब चार किलोमीटर दूर भूरागढ़ दुर्ग (किला) घूम लीजिए। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारियों की वीरता और ब्रिटिश हुकूमत की बर्बरता का यह गवाह है।

    गजेटियर की माने तो 14 जून 1857 में अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध शुरू होने के बाद बुंदेलखंड में उसकी अगुवाई बांदा ने ही किया था। आजादी की इस लड़ाई का नेतृत्व बांदा के नवाब अली बहादुर द्वितीय ने किया था। इस क्रांति में अंग्रेजों का साथ देकर रणछोड़ सिंह दउवा ने गद्दारी की थी। यह विद्रोह इतना भयानक था कि इसमें इलाहाबाद (अब प्रयागराज), कानपुर और बिहार के क्रांतिकारी भी आ गए थे।

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    क्रांतिकारियों ने ज्वाइंट मजिस्ट्रेट मि. काकरेल की हत्या 15 जून 1857 को कर दी थी। 16 अप्रैल 1858 में हिटलक का आगमन हुआ, जिससे बांदा की विद्रोही सेना ने युद्ध किया था। इसमें तीन हजार क्रांतिकारी भूरागढ़ दुर्ग में मारे गए थे, हालांकि इतिहासकारों के मतों में भिन्नता है। कुछ लोग मात्र 800 लोगों की मौत का हवाला दे रहे हैं। गजेटियर में18 जून 1859 में 28 व्यक्तियों के नाम विशेष तौर पर मिलते हैं, जिन्हें अंग्रेजों की अदालत में मृत्युदंड व काला पानी की सजा सुनाई गई थी।

    भूरागढ़ दुर्ग के आसपास अनेक शहीदों की कब्र हैं। इसी युद्ध में सरबई के पास नटों ने भी बलिदान दिया था, जिसका स्मारक नटबली दुर्ग के नीचे बना है। मकर संक्रांति के अवसर पर शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए प्रतिवर्ष एक मेले का आयोजन बुंदेलखंड पर्यटन विकास समिति कराती है।

    साहित्यकार डा. चंद्रिका प्रसाद दीक्षित ललित की मानें तो बुंदेलखंड में भूरागढ़ किला 1857 की क्रांति का केंद्र बन गया था। 1857 की क्रांति में जब जनरल ह्यूरोज ने झांसी को घेर लिया था, तब रानी लक्ष्मीबाई ने बानपुर के राजा मर्दन सिंह के हाथ बांदा नवाब अली बहादुर को राखी और चिट्ठी भेजकर मदद मांगी थी। तब उन्होंने मुनादी कराई कि जिसे झांसी जाना हो वह भूरागढ़ में एकत्र हो जाएं। तब तीन दिनों में आसपास के क्रांतिकारी अपना घोड़ा और तलवार लेकर पहुंचे थे। नवाब झांसी तो पहुंच गए, लेकिन रतन सिंह ने अंग्रेजों की मदद से भूरागढ़ में कब्जा कर लिया था। इस युद्ध में भूरागढ़ किले में 33 सौ लोगों को अंग्रेजों ने फांसी दी थी।

    सुभाष चंद्र बोस ने भी भरा था बुंदेलियों में जोश

    आजाद हिंद फौज के संस्थापक सुभाष चंद्र बोस भी कभी बुंदेलियों में जोश भरने के लिए बांदा आए थे। यहां का मोदी मंदिर इसी आजादी का गवाह था। यहां क्रांतिकारी आजादी की लड़ाईयोें की बैठकें करते थे। इसी मंदिर में आजादी की जंग लड़ने वाले क्रांतिकारी अपनी योजनाएं बनाते थे। बताते हैं कि यही वह ऐतिहासिक मंदिर है जिसके महल में आजाद हिंद फौज के नायक सुभाष चंद्र बोस गोपनीय तरीके से पहुंचे थे। यहां उन्होंने दो दिनों तक अंग्रेजों के विरुद्ध बैठकें कर रणनीति बनाई थी। यहां से जाने के बाद ही उन्होंने आजाद हिंद फौज की स्थापना की थी।