क्विक कॉमर्स बदल रहा है शॉपिंग का तरीका, ऐसे होती है 10 मिनट में प्रोडक्ट की डिलीवरी; हैं कुछ साइड इफेक्ट भी
क्विक कामर्स अर्थात आपकी जरूरत की वस्तुएं कम से कम समय में आपके पास। इसमें सबसे बड़ा खेल रफ्तार का है। यहां AI के जरिए डेटा मैनेजमेंट एवं GPS सुविधा स ...और पढ़ें

क्विक कामर्स का बाजार तेजी से बढ़ा है। Photo- freepik
टेक्नोलॉजी डेस्क, नई दिल्ली। किचन में नाश्ता तैकर कर रहीं दिल्ली के संजना को घर पर सरसों का तेल व हरी सब्जी न होने का ध्यान आता है। वह अपना स्मार्टफोन उठाती हैं और ब्लिंकिट से जरूरत का सामान आर्डर कर देती हैं। मुश्किल से सात-आठ मिनट में उन्हें सामान मिल जाता है। स्कूल के लिए तैकर हो रही उनकी बेटी बोल पड़ती है, यह तो कमाल हो गया मम्मी। इस पर संजना मुस्कुरा देती हैं। यह जानती हैं कि यह कमाल उनका नहीं, बल्कि उस एप का है, जो अक्सर उनके काम आता है। हालांकि, इस एप के पीछे छिपे उस क्विक कामर्स के ताने-बाने की ताकद, तकनीक और तौर-तरीकों के बारे में उन्हें ज्यादा मालूम नहीं है।
इन दिनों 10 मिनट वाला जेप्टो, स्विगी इंस्टामार्ट और ब्लिंकिट क्विक कामर्स महानगरीय जीवनशैली में काफी चलन में आ चुका है। इनके एप के जरिए हरी सब्जियां, फल, कपड़े, जूते, साबुन आदि से लेकर मोबाइल व अन्य गैजेट्स केवल 10 मिनट में मंगवाए जा सकते हैं। इनका एक बड़ा आनलाइन बाजार बन चुका है, जिसमें रफ्तार का तगड़ा खेल है। यह एआइ के जरिये डेटा मैनेजमेंट एवं GPS सुविधा समेत UPI क्यूआर स्कैनर का कमाल है तो इसमें कुशल प्रबंधन और वेयर हाउस की भूमिका भी महत्वपूर्ण है।
दरअसल, यह कोरोना के दौर की आपदा से लगाए गए लाकडाउन की देन है, जो भारतीय स्टार्टअप कंपनियों के लिए अगस्त, 2020 और दिसंबर, 2021 के बीच अक्सर बनकर आया। दिल्ली एनसीआर के गुरुग्राम में इंस्टामार्ट ने 10 अगस्त, 2020 को अपना एक ब्रांड स्विगी लांच करते हुए फूड आइटम 30 से 45 मिनट में डिलीवर करने का वादा किया। तब इसमें पके पूड व ग्रासरी ही थी। इसका आर्डर एप के जरिये किया जाने लगा। कोविड का दूसरा फेज आने पर इंस्टामार्ट ने इस सुविधा में बदलाव कर डिलीवरी का समय 10 से 15 मिनट कर दिया। इसने उपभोक्ताओं को काफी प्रभावित किया, जिसे देखते हुए जून, 2021 में जेष्टो ने इसी तरह की शुरुआत कर दी। इसके बाद गुरुग्राम में वर्ष 2013 की स्थापित कंपनी ब्लिंकिट भी दिसंबर, 2021 में मैदान में कूद पड़ी। इस तरह से क्विक कामर्स के बाजार में इन तीन कंपनियों के बीच बेहतर सर्विस देने की प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई, जिसे शहरी लोगों ने सहर्ष स्वीकार किया।

क्विक कामर्स को प्रक्रिया आर्डर देने के बाद से कुल छह चरणों में पूरी होती है। एप के जरिये जब कोई आर्डर किया जाता है, तब इसकी सूचना उसी वक्त ग्राहक के नजदीकी 'डार्क स्टोर' यानी छोटे गोदाम में चली जाती है। ये एक से तीन किमी. के दायरे में बने होते हैं। यहां आनलाइन आर्डर की पैकिंग की जाती है। एआइ और डेटा से कंपनियों को पहले से मालूम रहता है कि सुबह या शाम को दूध और ब्रेड ज्यादा बिकेगा। इसी तरह से वीकेंड पर चिप्स, कोल्ड ड्रिंक्स, बारिश में नूडल्स और पर्व त्योहार आने पर पूजा-पाठ संबंधी सामान अधिक बिकेंगे। इन डार्क स्टोर में हजारों आइटम सहते हैं।
डार्क स्टोर में आर्डर आते ही उसकी पैकिंग का टाइमर चालू हो जाता है। यह क्विक कामर्स का तीसरा चरण होता है। आर्डर कन्फर्म करने के लिए मात्र 30 से 60 सेकंड का समय मिलता है। फिर दो से तीन मिनट में पिकिंग और पैकिंग का काम पूरा कर लिया जाता है। इसके बाद चौथे चरण के तहत छह से सात मिनट में डिलीवरी पार्टनर को बाइक से आर्डर करने वाले के पास पहुंचना होता है। इसके लिए उन्हें कुछ जीपीएस और आटो रूट से मदद मिलती है। इस काम के लिए डिलीवरी पर्सन डार्क स्टोर के पास पहले से तैयार राहते हैं। कई बार आर्डर आने से पहले ही वे अपना बैग तैयार कर अलर्ट रहते हैं। इस तरह डिलीवरी पर्सन एक से डेढ़ किलोमीटर के दायरे में आर्डर देने वाले के पास 10 मिनट से पहले पहुंच जाता है।
विवक कामर्स से शहरी उपभोक्ता को तुरंत मिली सुविधा का सबसे बड़ा फायदा समय की बचत का हुजा है। इससे आफिस जाने वाले, स्टूडेंट्स, सिंगल फैमिली आदि को बड़ी राहत मिली है। अच्छे अनुभव के तौर पर उन्हें कंपनियों डिस्काउंट या ऑफर का भी समय-समय पर फायदा पहुंचाती रहती हैं। हालांकि, इससे लोगों में अब अभी खरीदने की आदत बनती जा रही है तो हाइ आर्डर प्रोक्वेंसी के तहत छोटी, लेकिन बार-बार खरीद की लत लगने लगी है। बहुत से लोग आवेग में खरीदारी करते हैं और जरूरत से अधिक खर्च कर देते हैं। छोटी चीज के लिए भी एप खोलना और उस पर लगातार मिलने वाले ऑफर के नोटिफिकेशन को चेक करते रहने से भी लोग कई बार तब तनाव में आ जाते हैं, जब कहा जाता है कि फर खत्म होते ही कीमतें बढ़ सकती हैं।
भ्रांतियां
क्विक कामर्स को लेकर कई भ्रांतियां हैं, जैसे 10 मिनट डिलीवरी मतलब सुपरह्यूमन स्पीड नहीं है। वे निकट के डार्क स्टोर के पास पहले से होते हैं। एक भ्रांति वहां के सामान के सस्ता होने को लेकर भी है, जो कई बार निकट की दुकान से मिलने वाले की तुलना में महंगे कए गए है। हां, शुरुआती दाम सस्ते जरूर होते हैं।
डिलीवरी पार्टनर की कमाई को लेकर भी भ्रांति है कि वे खूब कमाते हैं। इसी के साथ यह माना जाता है कि यह सिर्फ युवा यानी जेनजी का ट्रेंड है, जबकि इसके इस्तेमाल करने वाले वर्किंग प्रोफेशनल्स, न्यूक्लियर फैमिली, सीनियर सिटीजन आदि भी है।
हैं कुछ साइड इफेक्ट भी
इसका साइड इफेक्ट छोटे-छोटे किराना दुकानदारों को हुआ है। पड़ोस की दुकान खाली रहने लगी है। कीमत के मामले में भी उन्हें बड़े प्लेटफार्म्स से बड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है।
बड़ी मुश्किल डिलीवरी पार्टनर के साथ आती है। वे अत्यधिक दबाव में रहते है। कंपनी के 10 मिनट के टाइम का वादा पूरा करने के लिए उनकी तेज रफ्तार सुरक्षात्मक जोखिम से भरी रहती है, जिसमें सड़क हादसों का खतरा बना रहता है तो उनकी इंसेंटिव आधारित कमाई अनिरिक्त आय की चिंता से भी भरी होती है।
ट्रैफिक, बारिश और हाइ डिमांड टाइम की वजह से वे बेहद तनाव में सर्विस देते हैं। एक नुकसान पर्यावरण को लेकर भी है। कारण छोटी-छोटी डिलीवरी में ज्यादा वाहन के इस्तेमाल से कार्बन उत्सर्जन व प्लास्टिक पैकेजिंग कचरा फैलने का भी है, साथ ही ट्रैफिक और अव्यवस्था सामान्य आवागमन को प्रभावित कर देती है।

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