Vallabhacharya Jayanti 2025: कब और क्यों मनाई जाती है वल्लभाचार्य जयंती? यहां जानें धार्मिक महत्व
श्री वल्लभाचार्य द्वारा प्रतिपादित शुद्धाद्वैत दर्शन यह मानता है कि ब्रह्म (भगवान श्रीकृष्ण) ही एकमात्र सत्य है और यह संसार भी उसी ब्रह्म का अभिन्न रूप है। माया से रहित शुद्ध और वास्तविक। उनके अनुसार जीव भी ब्रह्म का अंश है और उसके साथ उसका संबंध प्रेम और सेवा का होना चाहिए। ब्रह्म शुद्ध है जीव शुद्ध है और जगत शुद्ध है।
डा. चिन्मय पण्ड्या (प्रतिकुलपति, देवसंस्कृति विश्वविद्यालय)। पुष्टिमार्ग के संस्थापक श्री वल्लभाचार्य एक प्रमुख हिंदू संत और दार्शनिक के नाम से जाने जाते हैं। उनका जीवन भगवान कृष्ण की दिव्य कृपा और भक्ति पर केंद्रित था और उन्होंने शुद्धाद्वैत (शुद्ध अद्वैतवाद) के सिद्धांत को विकसित किया, जिसने आत्मा के साथ ब्रह्म की एकता पर जोर दिया।
वल्लभाचार्य जी ने तीन भारत परिक्रमाओं के माध्यम से अपनी शिक्षाओं का प्रसार किया, विद्वानों के साथ बहुत ही मार्मिक व उच्च स्तरीय चर्चा की, जिससे उन्हें जगद्गुरु जैसी उपाधियां और कनकाभिषेक जैसे सम्मान प्राप्त किया और उन्होंने वल्लभाचार्य षोडश ग्रंथ, सुबोधिनीजी और मधुराष्टकम् सहित अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की। जो आज भी भक्तों और विद्वानों के लिए आध्यात्मिक मार्गदर्शन का स्रोत के रूप में विख्यात है।
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श्री वल्लभाचार्य द्वारा प्रतिपादित शुद्धाद्वैत दर्शन यह मानता है कि ब्रह्म (भगवान श्रीकृष्ण) ही एकमात्र सत्य है और यह संसार भी उसी ब्रह्म का अभिन्न रूप है। माया से रहित, शुद्ध और वास्तविक। उनके अनुसार जीव भी ब्रह्म का अंश है और उसके साथ उसका संबंध प्रेम और सेवा का होना चाहिए। ब्रह्म शुद्ध है, जीव शुद्ध है और जगत शुद्ध है। शुद्ध जीव और शुद्ध जगत का शुद्ध ब्रह्म से अभिन्न संबंध है। जगत का कारण रूप ब्रह्म शुद्ध है, मायिक नहीं है। ब्रह्म और जगत में अद्वैत संबंध है। उनका मत है कि वेद-वेदांत, गीता और सभी भगवत-शास्त्र ब्रह्मवाद का ही प्रतिपादन करते हैं।
स्थापितो ब्रह्मवादो हि सर्ववेदांतगोचर (पत्रावलंबनम् - 36)
श्री वल्लभाचार्य ने वैष्णव धर्म के पुष्टि मार्ग संप्रदाय की स्थापना की। उनका दर्शन, शुद्धाद्वैत, वास्तविकता का एक अनूठा दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है जहां दुनिया और व्यक्तिगत आत्मा को ईश्वर की अभिव्यक्ति के रूप में देखा जाता है, जिसमें कोई भ्रम या अलगाव नहीं है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि ब्रह्म (परम वास्तविकता) निर्माता और सृजन दोनों है और कृष्ण की भक्ति इस दिव्य एकता को साकार करने का मार्ग प्रदान करती है।
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श्री वल्लभाचार्य अविकृत परिणामवादी दार्शनिक हैं। उनका मत है कि ब्रह्म जब जगत के रूप में परिणत होता है, तो भी उनमें किसी प्रकार का विकार नहीं आता, वह शुद्ध अविकृत ही रहता है। जैसे सोने से सोने के गहने, मिट्टी से मिट्टी के बर्तन बनाने पर सोने या मिट्टी में कोई विकार नहीं आता तथा सोना शुद्ध सोना एवं मिट्टी शुद्ध मिट्टी ही बनी रहती है, वैसे ही ब्रह्म जगत का रूप धारण कर लेता है, तब भी वह शुद्ध ब्रह्म ही रहता है, उसमें कोई विकार नहीं आता।
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